Book Title: Acharanga Stram Part 04
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 159
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७६४॥ www.kobatirth.org लघुनो भाव लाघव जेने होय ते लाघविक छे, तेवी लाघविक (लघुता) ने पोते धारण करवा एक पण वख त्यजी दे, अथवा शरीर अने उपकरणना कर्ममां लाघव पणाने पामीने वस्त्र त्याग करे, तेवा त्यागीने शुं थाय ? ते कहे छे. ते वखनो परित्याग करनार साधुने तपनी प्राप्ति थाय छे. कारण के कायाने क्लेश आपको ते पण बाह्य तपनो भेद छे. कां छे के: " पंचहि ठाणेहि समणाणं निग्गंथाणं अचेल गत्ते पसत्थे भवति तंजहा, ! अप्पा पडिलेहा १ सासिए वे २ तवे अणुमए ३ लाघवे पसत्ये ४ विउले इन्दियनिग्गहे ५ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांच कारणे साधु निर्गथने अचेलकपणुं प्रशंसवा योग्य छे. [१] अल्पपडिलेहणा (२) विश्वासवाळं रूप ( ३ ) तपनी अनुमति [४] प्रशस्त छाघव, [५] अतिशे इन्द्रियनो निग्रह आ जिनेश्वरे कं छे ते बतावे छे: जमेयं भगवया पवेइयं तमेत्र अभिसमिच्चा । सबओ सबत्ताए समत्तमेव सममि जाणिजा [सू० २१४] आ वधुं वीर वर्द्धमान स्वामीए कहेलं छे एम जाणीने वधा प्रकारोथी सर्व आत्माथी सम्यक्त्व अथवा समत्वपणुं धारे, अर्थात् सचेल अचेल अवस्थानी तुलनाने पोते जाणे, अने आ सेवन परिज्ञाथी पालन करे; पण जे साधुनी शक्ति तेवी न होय, तो ते प्रभुनो मार्ग बरोबर न जाणी शके, तो ते साधु हवे जे बतावे छे, तेवा अध्यवसायवाळो थाय ते कहे छे. असणं भिक्खुस्स एवं भवइ- पुट्टो खलु अहमंसि नालमहमंसि सोयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सवसमन्नागाय पन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणा हु तं सेयं जमेगे For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७६४॥

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