Book Title: Acharanga Stram Part 04
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 165
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७०॥ www.kobatirth.org नहि, तेम तेतुं बीजं पण न कल्पे. आ प्रमाणे निषेध करेलो पण श्रावक सम्यगदृष्टि प्रकृति भद्रक अथवा मिथ्यादृष्टिमांथी कोइ पण दयाळु एवं चितवे, के आ छान साधु भिक्षा लेवा जवाने अशक्त छे, तेम बीजाने लावत्रा पण कही शके नहि, माटे तेणे निषेध कर्या छतां पण हुं कोई बहाने लावीने आपीश ए प्रमाणे विचारीने आहार विगेरे एम लावीने आपे, तो ते समये साधुए ते आहारने अनेषणीय (अयोग्य) छे, एम विचारीने ते गृहस्थने निषेध करवो. वळी जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिन्नत्तो अपडिन्नत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिक्खं साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइज्जिस्सामि, अहं वावि खलु अपडिन्नतो पन्नित्तस्स अगिलाणा गिलाणस्स अभिकख साहम्मियस्स कुज्जा बेग्रावडियं करणाए आ परिनं अणुक्खिस्सामि आहडं च साइजिस्सामि १, अहद्दु परिन्नं आणक्खिस्सामि आहर्ड नो साइजिस्सामि २, आहट्टु परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहर्ड च सा इजिस्तामि ३, आहट्टु परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि ४, एवं से अहा कि हियमेव धम्मं समभिजाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेसे तत्थावि तस्स कालपरियाए से Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥७७०॥

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