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आचा०
समत्र
॥६५३॥
॥६५३॥
आ रोगीने स्पर्श इंद्रिनं भान रोगवाळी जग्याएथी नष्ट थाय छे, ते रोगवाळाने हाथमां पकडेलुं लाकडं खसी जाय छे, अने सूइ& घोंचे तो पण असर न थाय तथा 'सीलीवयं त्ति' श्लीपद ते पग विगेरेमां कठण पणुं होय छे, ते आ प्रमाणे-वात, पित्त, कफना प्रकोपथी छातीमा रोग उत्पन्न थइ जंघामां स्थिर थइ धीरे धीरे काळांतरे पगोनो आश्रय करीने सोजो चडावे छे, ते रोगोने श्ली-|| पद कहे छे.
पुराणोदक भूमिष्ठाः, सर्वर्तुषु च शीतलाः ये देशा स्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥१॥ जे देशमां पाणी भराइ रहेलं होय, अने छए ऋतुमां शीतल (भेज) रहेतो होय, तेवा देशोमां विशेषे करीने इलीपद रोग थाय छ
यादयोहस्तयोश्चापि, श्लीपदं जायते नृणां; कर्णोष्ठनाशास्वपि च, केचि दिच्छन्ति तद्विदः ॥ २ ॥ बे पगमां वे हाथमां माणसोने ते रोग थाय छे, पण केटलाक विद्वानोनो एवो मत छे के ते रोग कान होठ अने नाकमा 5 पण थाय छे. तथा 'मधुमेहणि' ति मधु मेह ते 'बस्ति रोग' छे ते जेने होय ते मधुमेहि कहेवाय छे, एटले मधना जेवो तेनो पेसाब होय छे, ते प्रमेह, (परमीआ) ना २. भेद छे, ते असाध्य पणे गणाय छे. तेमां वधाए प्रमेहो पाये वधा दोषोथी थाय छे, तो पण वात विगेरे उत्कट थवाथी २० भेदो थाय छे, तेमां कफथी १० पित्तथी ६ अने वायुथी ४ थाय छे, अने ए बधा असाध्य अवस्थामां मधुमेहषणामां थाय छे. कड्यु छे केः
सर्वएव प्रमेहास्तु, कालेना पतिकारिणः मधुमेहत्वामायान्ति, तदाऽसाध्या भवंति ते ॥१॥
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