Book Title: Acharanga Stram Part 04
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 145
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रम 5॥७५०॥ 18/ तथा यथाशक्ति ते संबंधी धर्मकथा कहे छे:आचा० काले देशे कल्प्यं श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य च दातव्यं दानं प्रयतात्मना सद्भ्यः ॥१॥ दानं सत्पुरुषेषु स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन । वटकणिकेच महान्तं न्यग्रोधं मत्फलं कुरुते ॥२॥ ॥७५०॥ दुःखसमुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति पात्रार्पितेन दानेन । लघुनेव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥३॥ योग्य काळ देशमा साधुने कल्पे तेवू श्रद्धा सहित शुद्ध मनथी उद्यमवाळा थइने प्रामुक दान उत्तम साधुओने आपq (१) उत्तम पुरुषो जे गुणमां अधिक छे, तेमने विनय वडे थोडं पण, आपेलुं दान मोटुं फळ आपे छे. जेम-बडनी कणिका नानी छता, वडनुं झाड सांरां फळवाळु बनावे छे. (२) तीक्ष्ण बुद्धिबाळा पात्रमा योग्य दान आपीने दुःख समुद्रने तरे छे. जेम-मगरनां स्थानवाळो मोटो समुद्र होय; तेने वेपारीओ & नानां वहाण वडे तरी जाय छे. (३) आ प्रमाणे सुधर्मास्वामि कहे छे, अने हवे पछीनुं पण तेओ कहे छे:भिक्खु च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा वा फुसंति, से हंता हणह खणह छिंदह दहह पयह आलुपह विलुपह सहसाकारह विप्परामुसह, ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तकिया णमेणलिसं अदुवा वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपु GEOGRAASANSAR SC-SALAIMERUAR For Private and Personal Use Only

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