Book Title: Acharanga Stram Part 04
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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आचा०
॥७४९ ॥
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से भिक्खु परिकमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्तु गा हाई आगाए हाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आहहु चेएइ आवसहं वा समुल्सि - oाइ भिक्खू परिघासेउं तं च भिक्खु जाणिजा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अन्नेसिं वा सुच्चा - अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आवसहं वा समुस्लि ors, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए तिबेमि ( सु० २०३ ) ते साधु मसाण विगेरेमा कोइ स्थाने विचरतां कोइ गृहस्थ मळतां ते हाथ जोडीने प्रकृतिवी भद्र होय; ते मनमा विचारे के हुं आ साधुने गुप्त रीते आरंभ करीने गोचरी विगेरे आपीश.
प्र०-शा माटे ? उ०- ते साधुने आहार करवा माटे आपीश; अथवा, साधुओने रहेवा माटे मकान बनावी आपीश. ते साधु माटे बनावेल आहर विगेरे दोषित छे एन साधु जाणी ले. प्र० - केवी रीते जाणे ? पोतानी ताक्ष्ण बुद्धिथी अथवा, तीर्थङ्करे बतावेला उपायोथी अथवा, बीजा माणसां एटले, तेना नोकर चाकर विगेरेने पूछीने जाणो ले के आ गृहस्थ मारे माटे आरंभ करीने आहार विगेरे अथवा, उपाश्रय आपे छे, आबु बोजा पासे साधु सांभळे तो ते वातनी खात्री करीने ते साधु कहे के, आ अमारे माटे बनावेलुं छे तेथी कल्पतुं नथी; माटे, हुं नहीं लड़ें. जो आवुं करनार श्रावक होय; तो तेने हुंकाणमां पिंड निर्युक्तिनुं स्वरुप समजावकुं. बीजो, भद्रक स्वभावनो होय तो तेने निर्दोष भोजनना दाननुं फळ बतावे; तथा गोचरीना सोळ उद्गम विगेरे दोष बतावे;
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सूत्रम
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