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आचा०
॥७६०॥
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गृहस्थ आमुनि पासे सांभळीने (पोतानी भक्तिथी) अनि सळगावीने भडको करीने साधुनी कायाने थोडी अथवा घणी तपावे, ते अग्नि सळगावचो मुनि देखे, ते पोतानी सुबुद्धिथी अथवा तीर्थङ्करना वचनोथी अथवा बीजा पासे तत्व समजीने ते गृहस्थ समजावे के आ अनि सेववो मने कल्पतो नथी, पण तमे साधु उपर भक्ति अने अनुकम्पाथी पुण्यनो समूह उपार्जन कर्यो छे. आ प्रमाणे सुधर्मास्वामी कहे छे. त्रीजो उद्देशो समाप्त थयो.
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चोथो उद्देशो
त्री जो कथा पछी चोथो कहे छे. तेनो संबन्ध आ प्रमाणे छे, गया उद्देशामां गोचरी गयेला साधुने ठंडथी शरीर कंपतां गृहस्थने खोटी शंका थाय, तो साधुए दूर करवी, पण जो गृहस्थना अभावमा जुवान खोने साधुना उपर काम चेष्टानी खोटी शंका थाय, अने कुचालनी इच्छाथी स्पर्श करवा आवे, तो गळे फांसो खाइने अथवा गार्ध पृष्ठ विगेरे आपघातनुं मरण पण स्वीकार; ( पण खोड काम करवु नहिं ) आनुं उपसर्गनुं कारण न होय तो आपघात न करवो, ते बताववा आ उद्देशो कहे भा संबन्धे आवेला उद्देशानुं आ पहेलुं सूत्र छे.
जे भिक्खु तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायच उत्थेहिं तस्स णं नो एवं भवइ - चउत्थं वत्थं जाइसामि, से असणिजाई वत्थाई जाइजा अपरिग्गहियाई वत्थाई धारिजा, नो धोइजा नो
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सूत्रम ॥७६०॥