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आचा० ॥ ७३९ ॥
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छे, ते बतावे छे:- केटलाक सुखथी धर्मने इच्छे छे, बीजा दुःखथी धर्म माने छे, केटलाक स्नानथी धर्म माने छे तथा मारोज धर्म मोक्ष आपनार छे, बीजो बोलवा जेवोज नथी, एम बोलनारा अपुष्ट (तुच्छ) धर्मवाळा परमार्थ नहि जाणनारा (भोळा जीवो) ने फसावे छे. हवे तेमनो उत्तर जैनाचार्य आपे छे. लोक छे अथवा नथी विगेरेमां तमे जाणो.
अकस्मात् (मागध) देशमां आ शब्द गोवाळणी सुधां पण संस्कृतमां बोले छे, तेथी तेजरुपे लीधो छे एटले कस्माद् ( ते हेतु छे अने अ साथै लेवाथी अकस्माद् ते अहेतु छे) तेमां ते हेतुना अभावथी बनतुं नथी, एम समजनुं के दरेकमां हेतु रहेल छे, जो तेम न मानीने एकांतथीज “ लोक छे, ” एवं मानीए तो ते अस्ति (छे), शब्द साये समान अधिकरणपणे थवाथी जगतमां जे जे छे, ते बधुं लोक थशे अने ते मानतां तेनो प्रतिपक्ष पण 'अलोक ' अस्ति (छे), तेथी लोकज अले थशे अने व्याप्यना सद्भामां व्यापकनो सद्भाव थतां अलोकनो अभाव यशे अने तेना अभावमां तेना प्रति पक्ष लोकनो प्रथमज अभाव थशे. अथवा लोकनुं सर्व गतपणुं सिद्ध थशे.
अथवा "लोक अस्ति" पण लोक न भवति [ नथी] लोक पण नामज छे, अने लोक नथी लोकनो अभाव छे. ए प्रमाणे थशे, आ बधुं अनिष्ट छे, अने अस्तिनुं व्यापकपणुं होवाथी लोक साथै अस्ति एकांत लागवाथी घट पट विगेरेमां पण लोकपणानी प्राप्ति शे कारण के व्यायना व्यापकना सद्भाव साथ अंतरपणुं नथी वळी अस्ति लोक आ प्रतिज्ञा पण लोक एम मानवाथी हेतुनुं पण अस्तित्वपणुं छे, तेथी " प्रतिज्ञा अने हेतु " बन्नेमां एकत्व प्राप्ति थशे अने ते एक थतां हेतुनो अभाव थशे अने हेतुना अभावमां कोण केनाथी सिद्ध यशे, अथवा एम मानीए के " अस्तित्वथी अन्य लोक छे, तो प्रथम करेली प्रतिज्ञानी हानि थशे, तेथी ए
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सूत्रम् ॥७३९ ॥