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छे. कारण के जे नथी तेनुं उत्पादन नथी. तथा जे छे तेनो नाश नथी. अथवा ध्रुव ते नदी समुद्र पृथ्वी पर्वत आकाश ए बधांतुं निश्चयपर्ण होवथी ते ध्रुव छे (माटे तेमना मत प्रपाणे बधुं नित्य छे)
बौद्ध विगेरे कहे छे लोक अनित्य छे कारण के दरेक क्षणे तेनो स्वभाव क्षय थवारूप छे. विनाशना हेतुना अभावथी अने नित्य वस्तुना अनुक्रमथी के एक साथे अर्थ क्रियामां असामर्थ्यपणुं छे. (आ प्रमाणे तेमनुं मानवु छे के बधुं अनित्य छे.) अथवा अध्रुव ते चल छे जेमके भूगोल (पृथ्वीनो गोळी) केटलाक न कहेवा प्रमाणे नित्य चलायमान छे. (तेओ माने छे के पृथ्वी फरे छे) अने सूर्य स्थिर छे तेमां सूर्य मंडळ दूर होवाथी जेओ पूर्वमांथी जुए छे तेमने सूर्यनो उदय देखाय छे। अने सूर्यना मंडळना निचे रहेलाने मध्यान्ह देखाय छे। अने जेओने सूर्य दूर थवाथी न देखाय तेओने आयमेलो जणाय छे. वळी बीजा मतबाळा एवं माने छे के लोकनी आदि छे. तेओ कहे छे.
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तभित्र सर्वतः ॥ १ ॥
आ वधुं पूर्वे अंधारारूप, अजाण्युं, लक्षण रहित विचाराय नहीं तेवु, न जणाय तेनुं, बधी रीते मूतेला जेवुं हतुं.
तस्मिनेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजंगमे । नष्टामरनरे चैव प्रनष्टोरगराक्षसे ॥ २ ॥
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| ते एक समुद्ररूप बनेलुं स्थावर जंगमनो तथा देवता मनुष्यनो नाश हतो तेम नाग तथा राक्षसनो पण नाश हतो (त्यारे के हतुं ते कहे छे) केवलं गहरीभूते, महाभूत विवज्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥ ३ ॥
तस्य तत्र शयानस्य, नाभेः पद्मं विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं हृदं काञ्चनकर्णिकम् ॥ ४ ॥
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सूत्रम्
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