Book Title: Aatm Samikshan
Author(s): Nanesh Acharya
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 11
________________ इस व्यवधान को तोड़ने की दिशा में यात्राओं, चातुर्मासों और उद्बोधनों के जो आयोजन हुए उनके बीच एक दिव्य व्यक्तित्व उभरा-उन्नत ललाट, तेजयुक्त आनन, सुदृढ़ ग्रीवा, विशाल वक्षस्थल, प्रलम्ब बाहु और अनोखे प्रभामण्डल से दीपित वपु जो सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र और सम्यक दृष्टि की प्रकाश किरणें बरसाता इस सम्पूर्ण जीव-सृष्टि को अपने स्नेहपूर्ण कोमल आवेष्ठन में समेट लेने के लिये आतुर था। रवि, पवन, मेघ, चंदन और संत, भेद-अभेद नहीं जानते। स्वभाव से ही अपना अक्षय स्नेह-भण्डार सब के लिये उन्मुक्त रखते हैं। फिर इस प्रकाशपुंज की ज्योति सीमा में कैसे बंधती ? प्रसंग अनेक हो सकते हैं। परन्तु प्रतिबोध की महिमा अभिन्न होती है। इसीलिये सामाजिक उत्क्रान्ति की युगान्तरकारी दृष्टि धर्मपालों की अटूट श्रृंखला निर्मित कर सकी। इस प्रकार सम्यक्त्व के मंत्र के प्रभाव से समाज के निम्नतम स्तर पर बैठे व्यक्ति को भी उच्चतम व्यक्ति के स्तर पर वही आसीन करा सकता था जो मानता हो 'कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो...।' भगवान महावीर की इस वाणी को यदि आचार्य श्री ने चरितार्थ किया तो आश्चर्य कैसा? हरिकेशबल नामक चाण्डाल के लिये यदि प्रवज्या का विधान हो सकता था, तो जन्म के आधार पर निर्मित वर्णव उपयुक्तता तर्कसंगत कहाँ बैठती थी ? परिणामस्वरूप व्यापक मानव समाज के प्रति स्नेह, सद्भाव और न्याय की जो निर्मल धारा प्रवाहित हुई उसमें गुराड़िया, नागदा, आक्या और चीकली जैसे ग्रामों के दलित स्रान कर कृतार्थ हो गये। पारस गुण अवगुण नहिं जानत, कंचन करत खरो तब संत के संसर्ग से सरल हृदय अज्ञानीजन धर्मपाल क्यों नहीं बन सकते थे? एक राजा भगीरथ ने गंगा की पतितपावनी धारा अवतीर्ण करा कर प्राणिमात्र के लिये मुक्ति का द्वार उन्मुक्त कर दिया तो दूसरे भगीरथ ने समता समाज की पुण्यधारा में मानव मात्र के लिये अवगाहन का मार्ग प्रशस्त कर मानवता की अतुलनीय सेवा की। एक जड़ सैद्धान्तिक विचार को सहज जीवन पद्धति में रूपान्तरित कर पाना निश्चय ही चामत्कारिक उपलब्धि थी। प्रजातंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे जटिल, विवादित, बौद्धिक वाग्जाल में उलझी अवधारणाओं को, सरल, व्यावहारिक, उपयोगी जीवनचर्या बना कर प्रचलित कर पाना युगपुरुष का ही कार्य हो सकता था। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक चिन्तन को सैद्धान्तिक आग्रहों से तथा धर्म और दर्शन के तत्त्वों को पाखण्ड, अतिचार, दुराग्रह और आडम्बर से मुक्त कर तथा उन्हें अन्योन्याश्रित बना कर इस महायोगी ने आधुनिक युग की विकट समस्याओं का सहज समाधान प्रस्तुत कर दिया। समता को युगधर्म के रूप में मान्य एवं प्रतिष्ठित कर पाना छोटी बात नहीं थी। कितनी कठोर साधना, कितना गहन चिन्तन, कितनी गहरी दार्शनिक पैठ और कैसे मनोवैज्ञानिक कौशल की इस हेतु आवश्यकता थी इसका प्रमाण वह विपुल साहित्य है जिसका निर्माण मानववृत्ति के परिष्कार, पुनर्निर्माण और निर्देशन हेतु इस युगाचार्य ने स्वयं किया एवं करने की प्रेरणा दी। समीक्षण ध्यान की पद्धतियों को परमात्म समीक्षण के दर्शन से आत्मसमीक्षण तक पहुँचाने में आत्मा-परमात्मा, जीव-ब्रह्म, द्वैत-अद्वैत आदि से संबंधित विविध चिन्तन धाराओं का जिस प्रकार समता दर्शन में समन्वय किया गया, वह स्वयं में उपलब्धि है। एक धर्म विशेष की समझी जाने वाली आचरण शैली को मानव मात्र की आचार संहिता बना सकने वाली दृष्टि निश्चय ही चामत्कारिक थी। इसकी सिद्धि के लिए जन-जन के हृदय को संस्कारित कर यह विचार पुष्ट करना आवश्यक था कि माया के पांच पुत्र काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ मनुष्य के अधःपतन के मूल

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