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संकल्प की पूर्ति में 'नानादीप' ने दीपित संत-सतियों की एक सुदीर्घ श्रृंखला ही सर्जित कर दी—एक कड़ी दूसरी कड़ी से जुड़ती गई, सम्पूर्ण संसार को अपनी ज्योति-परिधि में आवेष्ठित कर लेने के लिये। और जगती का आँगन आचार्यश्री के नेश्राय में दीक्षित दीपकों की लम्बी श्रृंखला से सज गया। किसी एक आचार्य की प्रचण्ड ऊर्जा का यह असंदिग्ध प्रमाण था। यह चमत्कार भी था क्योंकि ज्ञान-साधना और समाज-निर्माण का यह कार्य इतने विशाल स्तर पर विगत पाँच सौ वर्षों में भी सम्पन्न नहीं हुआ था। फिर तत्कालीन परिस्थितियाँ अत्यंत विषम थीं। एक अत्यंत सीमित साधु-साध्वी वर्ग, साम्प्रदायिक आग्रहों से टकराव, विरोधों की उग्रता एवं दुर्बल संघीय व्यवस्था अपने आप में विकट समस्याएं थीं। परन्तु 'दिवा समा आयरिया पण्णता'-आचार्य उस दीपक के समान होता है जो अपनी प्रज्वलित ज्योतिशिखा से प्रत्येक कोने का तमहरण करने का सामर्थ्य रखता है। अतः भीषण झंझावात के उस काल में जब श्रमण संघों एवं श्रावक संघों की भावनाएं भीषण रूप से आलोड़ित थी, इस सद्यः प्रज्वलित दीपक ने साहसपूर्वक घोषणा की
'सघर्ष से ही नवनीत निकलता है और संघर्ष ही विपुल शक्ति का उत्पादक होता है। संघर्ष से भयभीत होने वाला व्यक्ति प्रगति के पदचिह्नों पर नहीं चल सकता।'
और प्रारम्भ हुई लड़ाई-दिये की और तूफान की, जिसमें दीया विजयी हुआ, झंझावात शांत हुआ, सद्भाव, स्नेह, सहयोग और समर्पण की मंद फुहारों में सम्पूर्ण जन-जीवन सात हो निर्मल हो उठा तथा सर्वत्र व्यवस्था और अनुशासन का सागर उमंगें भरने लगा।
यह साधना थी, तपस्या थी, सोने की आग में तपने की। संवत् २०२० के रतलाम चातुर्मास ने यह सिद्ध कर दिया कि वीतरागी संत अपने-पराये, शत्रु-मित्र, हानि-लाभ जय-पराजय आदि के भावों से मुक्त होते हैं। सोना तप कर कुन्दन बनता है और संघर्षों में स्थिरमति रहकर मनस्वी वन्दनीय बन जाता है -
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःख न च सुखं ।
तप्तं तप्तं पुनरपि पुनः कांचन कान्तवर्णम् ।। अशान्ति, विरोध और संघर्ष से आलोड़ित जन सागर से इस अनन्य योगी ने सद्भाव, त्याग, तप और धार्मिक उपलब्धियों का जो नवनीत निकाला उसे अपनी साधना से मानव मात्र के हितार्थ सहज भाव से वितरित भी कर दिया। हिंसा, आतंक, विरोध, शोषण, पीड़ा के शमन तथा लोभ, मोह, क्रोध जैसी व्याधियों के उपचार में यह नवनीत अमृत रसायन सिद्ध हुआ। अपने दिव्य संदेशों द्वारा इस संत ने वर्तमान वैज्ञानिक सभ्यता के व्यामोह के प्रति अभिनव मनुष्य को जिस प्रकार सचेत किया है उसी की सुन्दर काव्यात्मक निदर्शना राष्ट्रकवि दिनकर की इन पंक्तियों में हुई
व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय, पर न यह परिचय मनुज का, यह न उसका श्रेय। श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत श्रेय मानव का असीमित मानवों से प्रीत। एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान तोड़ दे जो, बस वही ज्ञानी, वही विद्वान।