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श्री सहजानन्द शास्त्रमाला
(७ह)
समयसार - दृष्टान्तमर्म
लेखक ---
श्रध्यात्मयोगी न्यायतीर्थ पूज्य श्री मनोहर जी वर्णी " श्रीमत्सहजानन्द " महाराज
संपादक:---
वीरप्रसाद जैन वैक्कर, सदर मेरठ
प्रकाशक
मंत्री सहजानन्द शास्त्रमाला १८५ ए. रणजीतपुरी सदर मेरठ (उ. प्र.)
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सैद्धान्तिक विविध ज्ञानके लिये इन पुस्तकोंसे लाभ लीजिये
विज्ञान सेट धर्मवोध पूर्वाद्ध
॥ सिद्धान्त गब्दार्णवसूची ) धर्मबोध उत्तरार्द 1) ष्टि 1) जीवसंदर्शन ) जीवस्थान चर्चा
m) सुवोध पत्रावलि गुणस्थान दर्पण
स्तोत्रपाठपुञ्ज ममस्थान मूत्र १ कध २) तत्यार्थ प्रथमसूत्र प्रवचन )
२ स्कन्ध १॥) तत्त्वार्थ द्वितीयप्रथमसूत्र प्र० ०} ३ स्कन्ध १) तत्त्वार्थ तृतीयप्रथममूत्र : -)
तत्त्वार्य ऋतुर्थप्रथमनूत्र प्र० ) ५ स्कन्ध ) तत्त्वार्य पञ्चमप्रथमसूत्र प्र० )
तत्यार्थ पप्ठप्रथमसूत्र प्र० ) ७ स्कन्ध १) तत्वायं सप्तमप्रथमसूत्र प्र० ३) समस्थान सूत्र विषय दर्पण 1) तत्त्वार्य अष्टमप्रथममूत्र प्र० ) सूत्र गीता पाठ
तत्त्वार्थ नवमप्रथममूत्र प्र० ) मनोहर पद्यावलि
तत्त्वायं दशमप्रथमसूत्र प्र० 'द्रव्य इष्ट प्रकाश
द्रव्यसंग्रह प्रश्नोतरी टीका ४) र पूरा विज्ञान सेट लेने पर ) प्रति रुपया कमीशन
पावन सेट श्री समयसार सं० टीका स० ) वर्णी प्रवचन फाइल प्रथम वर्ष ५) श्री प्रवचनसार मं० टीका म० ११) वर्णी प्रवचन फाइल द्वितीय ५). त्रैलोक्यतिलक विधान पूर्वार्द्ध ४) मूक्ति संग्रह (नीति, सूक्तियां) ।) त्रैलोक्यतिलक विधान उत्तराद्ध ५) श्रावक प्रतिकमण कृतिकर्म (भक्ति निया, प्रति० स्तो)३) मोक्षसन्धि सरल जैन रामायण प्रथम भाग ३) जीवन झांकी पूरा पावन सेट लेने पर) प्रतिपया कमीशन
900 अध्यात्म, विज्ञान व पावन तीनों सेट लेने पर।) प्रति रु. कमीशन -श्री सहजानन्द शास्त्रमाला, १८५ ए, रणजीतपुरी सदर मेरठ (उ. प्रा
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( सर्वाधिकार सुरक्षित)
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श्री सहजानन्द शामाला
( ७e Da Acc.vo समयसार-दृष्टान्तमम:
लेखक.
अध्यात्मयोगी न्यायतीर्थ पूज्य श्री मनोहर जी वर्णी "श्रीमत्सहजानद” महाराज
संपादकःमहावीरप्रसाद जैन बैंकर्स सदर मेरठ ।
प्रकाशक:
मंत्री, श्री सहजानन्द शास्त्रमाला १८५, ए रणजीतपुरी, सदर मेरठ ।
उ० प्र०
सद
न्योछावर
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( २). श्री सहजानन्द शात्रमाला के संरक्षक (१) श्री मान् लाला महावीरप्रसाद जी जैन बैंकर्स, सदर मेरठ (२) श्रीमती फूलमाला जी धर्मपत्नी श्री लाला महावीरप्रसाद
जी जैन बैंकर्स, सदर, मेरठ श्री सहजानन्द शास्त्रमाला के प्रवर्तक महानुभावो की नामावलिः
(१) श्री भंवरीलाल जी जैन पाण्ड्या झूमरीतिलैया (२) ,, ला० कृष्णचन्द जी जैन रईस देहरादून (३) ,सेठ जगन्नाथ जी जैन पाण्ड्या भूमरीतिलैया (४) श्रीमती सोवती देवी जी जैन गिरिडीह (५) श्री ला० मित्रसैन नाहरसिंह जी जैन मुजफ्फरनगर (६) , ला.प्रेमचन्द प्रोमप्रकाग जी जैन: प्रेमपुरी मेरठ (७) ,ला० सलेखचन्द लालचन्द जी जैन मुजफ्फरनगर (८) , ला० दीपचन्द जी जैन रईस देहरादून (8) ,ला. वारूमल प्रेमच द जी जैन मसूरी (१०) , ला० बाबूराम मुरारीलाल जी जैन ज्वालापुर (११), ला. केवलराम उग्रसैन जी जैन जगाधरी (१२) , सेठ गेंदामल दगडू शाह जी जैन सनावद (१३) , ला० मुकुन्दलाल गुलशनराय जी नई मंडी मुजफ्फरनगर (१४ श्रीमती धर्मपली वा० कैलाशचन्द जी जैन देहरादून (१५) श्रीमान ला० जयकुमार वीरमैन जी जैन सदर मेरठ (१६) ,, मंत्री जैन समाज खण्डवा (१७) , ला० बाबूराम अललकप्रसाद जी जैन तिस्सा (१८) , बा० विशालचन्द जी जैन आ०.मजि० सहारनपुर (१६), वा० हरीचन्द जी ज्योतिप्रसाद जी जैन ओवरसियर इटावा (२०) श्रीमती प्रेम देवी शाह नुपुत्री वा फत्तेलाल जी जैन संघी जयपुर
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( ३
(२०) श्रीमती धर्मपत्नी सेठ कन्हैयालाल जी जैन जियागंज
(२१) मत्राणी जैन महिला समाज गया
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(२२) श्रीमान सेठ सागरमल जी पाण्ड्या गिरिडीह
(२३) " वा० गिरनारी लाल चिरंजीलाल जी गिरिडीह (-8) ,, वा० राघेलात कालूराम जी गिरिडीह
(२५), सा फूलचन्द बैजनाथ जी जैन नई मन्डी मुजफ्फरनगर.
(२६) सेठ छदामीलाल जी जैन फिरोजाबाद
(२७) .. ला० सुखवीर सिंह हेमचन्द जी सर्राफ बडौत
( २८ ),, सेठ गजानन्द गुलाव चन्द जी जैन गया.
(३०) " वा० जीतमल शान्ति कुमार जी छावडा भूमरीतिलैया
(३१) सेठ शीतल प्रमाद जी जैन सदर मेरठ
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* (३२) सेठ मोहन लाल ताराचन्द्र जी जैन वडजात्या पुर
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* (३३) ,, बा० दयाराम जी जैन R. S. D. O सदर मेरठ
* (३४) ," ला० मुन्नालाल यादवराय जी जैन सदर मेरठ
* (३५) ल० नेजिनेश्वर प्रसाद अभिनन्दन कुमार जी जैन सहारनपुर
"
* (३६), ला०चमिचन्द जी जैन रुड़की, प्र ेस रुड़की
x (३७) " ला० जिनेश्वर लाल श्रीपाल जी जैन शिमला
*x (३८ ) .,, ला० बनवारीलाल निरंजनलाल जी जैन शिमला
नोट - जिन नामों के पहले ऐसा चिन्ह लगा है उन महानुभावो की स्वीकृत
जिनके नाम के
सदस्यता के कुछ रुपये आ गये है बाकी आने है तथा पहले x ऐसा चिन्ह लगा है उनके रुपये अभी नही श्रीमती वल्लोवाई जी ध० प० सि० रतनचन्द जी
आये, आने है ।
जैन जवलपुर ने
..
संरक्षक 'सदस्यता स्वीकार की है ।
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ॐ नमः सिद्ध भ्यः, ॐ नमः सिद्ध भ्यः, ॐ नमः सिद्ध न्यः णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं ।
णमो उवज्मायाणं, णमा लीए सव्वसाहूणं ॥ हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम । ज्ञाता द्रष्टा श्रातमराम ॥टेका।
मैं वह हूं जो हैं भगवान, जो मैं हूं वह है भगवान । अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग वितान ।।
(२) मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान । किन्तु आशवश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान ।।
सुख दुख दाता कोइ न आन, मोह राग रूप दुख की खान । निजको निज परको पर जान, फिर दुखका नहिं लेश निदान
जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध हरि जिसके नाम । राग त्यागि पहुँचू निजधाम, आकुलताका फिर क्या काम ।।
होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जगका करता क्या काम | दूर हटो परकृत परिणाम, "सहजानन्द" रहूँ "अभिराम"||
॥अहिंसा धर्म की जय ।।
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समयसार-दृष्टोक्त मर्म
१-समय या समयसार आत्माका नाम है। यह. औत्मा प्रतिक्षण अपनी परिणति करता रहता है। जगत के जीव परिणतियोंको निज सर्वरव समझते हैं किन्तु उन्हें अपने एकपनेकी खबर नहीं है जो सव परिणतियों में रहता है । सव द्रव्योका अपना अपना एकत्व (स्वभाव) टवोत्कीर्ण प्रतिविम्ववत् निश्चल है। आत्माका भी चैतन्यस्वभाव हल्द्वोत्कीर्णवत निश्चल है । जैसे टाकीसे उकेरी गई प्रतिमा मुड़ नहीं सकनी, परिवर्तित हो नहीं सकती, इसी प्रकार आत्माका स्वभाव बदल नहीं सकता; आत्मा एक चैतन्य स्वभाव है, वह सनातन है।
२-इस समयसारस्वरूप निज सहज कारणपरमात्माकी अनुभूतिके विना जगतके जीव ऐसे परिभ्रमण करते हैं जैसे कोल्हका बैल । कोल्हके वेलकी आंखोंपर पट्टी बंधी है जिससे उसे सूझना नहीं है सो वह चैल तेलीकी प्रेरणाके निमित्तसे कोल्हू के घेर फेर गोल गोल चक्कर काटता है, किन्तु वह यह नहीं समझता कि मैं वहीं के वहीं बार वार चल रहा हूं बल्कि वह मानता है कि मैं सीधा ही नया नया गमन कर रहा हूँ। वैसे जगतके प्राणियोंकी ज्ञानचक्षुपर मोह-अज्ञानको पट्टी बंधी है जिससे उसे शान्ति सत्यपथ सूझता नहीं है सो वह मोही कर्मविपाकके निमित्तसे पञ्चेन्द्रियके विषयोके घेर फेर वार वार चक्कर काटना है किन्तु वह यह नहीं समझता कि मैं उच्छिष्टको ही वार वार भोग रहा हूँ, बल्कि वह मानता है कि मैं सीधा ही नया नया विलक्षण कार्य कर रहा हूँ। यह मोहकी लीला है।
३-परमशुद्धनिश्चयनयसे परिचयमें आया हुआ आत्मा शुद्ध आत्मा है। सर्व पर, परभाष, विकल्प, भेदोसे भिन्न केवल स्वरूप वाला शुद्ध आत्मा है। इसे दाह्य (जलते हुए इंधन) में रहनेवाले अग्निकी तरह अशुद्ध न मानना अर्थात् जैसे केवल अग्नि कहाँ रह सकती है ? अग्नि तो जिसे जला रही है उस दाटके आधारमें आकारमं रहती है, इस तरह
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( २ )
सहजानन्दशास्त्रमालायां
अग्निदाह्यमें रहने के कारण अशुद्ध है, भिन्न व स्वतन्त्र नहीं है । वैसे "केवल ज्ञान निराधार कैसे होगा ? ज्ञान तो जिसे जान रहा है उस ज्ञ के आधार में, आकार में रहता है; इस तरह ज्ञान ज्ञ यमें रहनेके कारण अशुद्ध है, भिन्न व रवतन्त्र नहीं है" ऐसी श्रशुद्धता आत्मामें नहीं समझना । क्योंकि, जायकरूपसे जाना गया यह आत्मा खुद ही खुदको जानता है, वह ज्ञान में नहीं रहता, इसलिये ज्ञान या ज्ञानमय आत्मा सर्व परसे भिन्न होने से शुद्ध है ।
४ - ज्ञायक आत्माज्ञयसे भिन्न है । जैसे- दीपक खुद खुदको प्रकाशित करता है; यद्यपि स्वयं प्रकाशमान दीपकके द्वारा घट पटादि पदार्थ प्रकाश्य हो जाते हैं तथापि दीपक घट पटादि पदार्थोंमें नहीं रहना है घट पटादि पदार्थोसे दीपक भिन्न है । वैसे- श्रात्मा खुद खुदको प्रतिभासता है । यद्यपि स्वयं प्रतिभासमान ज्ञान या ज्ञायक आत्मा के द्वारा वाह्य पदार्थ ज्ञय हो जाते हैं तथापि ज्ञान या ज्ञायक श्रात्मा बाह्य ज्ञेय पदार्थों में नहीं रहता है । ज्ञय वाह्य पदार्थोंसे आत्मा भिन्न है, वह पर ज्ञेय पदार्थोंको कुछ नहीं करता । वास्तविकता यह है कि प्रत्येक पदार्थोंमें स्वयं स्वयं में ही कर्ता कर्मपना होता है ।
५-- द्रव्यदृष्टि से विज्ञान शुद्ध श्रात्मा परमार्थ है, यही ध्येय है और यही वक्तव्य है तथापि जिन्हें परमार्थका परिचय नहीं है उन्हें समझाने का उपाय व्यवहार ही है । जैसे -मात्र अंग्रेजी जाननेवाले राजाके पास जाकर कोई संस्कृतन पंडित 'स्वस्ति' ऐसा आशीर्वाद कहे तो वह राजा उस शब्दका अर्थ नहीं जाननेसे मेंढेकी तरह की टक्टको लगाकर पंडितकी ओर देखता रहता है। क्योंकि पंडितकी मुखमुद्रासे वह यह तो जान गया कि कुछ अच्छी बात जरूर कही है किन्तु क्या कही यह नहीं समझा | जब अंग्रेजी व संस्कृत दोनों भापावोंका जानकार वही पंडित या अन्य विद्वान जब 'स्वस्ति' का भाव अंग्रेजी भाषा में अनुवादित • करके कहता है कि 'may be blessed' तब वह राजा बड़ा प्रमुदिन का हुआ इस तथ्य को समझ जाता है । वैसे मात्र भेद पर्यायरूप हो
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समयसारदृष्टान्तमम अपना परिचय रखने वाले प्राणीसे कोई महात्मा गुरु 'आत्मा' इस शब्द द्वारा परमार्थको कहे नो वह प्राणी उस शब्दका भाव न जाननेसे मेढकी तरह अांखकी टकटकी लगाकर गुरुकी ओर देखता रहता है, क्योंकि गुरुकी मुद्रा व देशनाविधिसे वह यह तो समझ गया कि कोई मेरे भलेकी ही यह वात वताई जा रही है । इसीसे वह प्रेमसे गुरुकी ओर देखता रहता है किन्तु क्या कहा यह वात नहीं जानता। जव व्यवहार और परमार्थके जानकार वे गुरु व्यवहारनयसे समझाते हैं कि जो देखता है जानता है वह आत्मा है आदि, नव यह जीव वड़ा आनंदित होता हुआ निज तथ्यको समझ जाता है। इस तरह व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक होनेसे उसकी भी कभी आवश्यकता है। .
६-व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक है जैसे-परमार्थसे घटज्ञानी कौन है ? जैसा घट है उस तरहके जाननेसे परिणत जो आत्मा है वह परमार्थसे घटज्ञानी है; यहाँ आत्माने अपनेको ही जाना, यह मर्म जिनकी समझमें नहीं है उन्हें समझानेके लिये यह कहना पड़ता है कि जो घटको जानता है वह घटज्ञानी है । तथा परमार्थसे श्रुतकेवली कौन है ? जैसा द्वादशांगका सर्व विषय है उस तरहक जाननेसे परिणत जो आत्मा है वह परमार्थसे श्रुतकेवली है; यहां आत्माने अपनेको ही जाना, यह मर्म जिनकी समझमें नहीं है उन्हें समझानेके लिये यह कहना पड़ता है कि जो समस्त द्वादशांगको जानता है वह श्रुतकेवली है यह व्यवहार हुआ। व्यवहार परमार्थका संकेत करता है यह जानकर व्यवहारका प्रयोजन परमार्थकी साधनाका समझ, व्यवहार में ही न अटकें।
७-व्यवहार अभूतार्थ है निश्चय भूतार्थ है । जो भूतार्थका आश्रय करते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं । जैसे कोई अविवेकी पुरुप कीचड़ मिले हुए बरसाती पुखरियाके जलको (जिसकी कि रवच्छता तिरोहित हो गई) पीने वाले कीचड़ और पानीका विवेक न करते हुए उस मलीन जलको पी लेते हैं परन्तु विवेकी पुरुप अपने हाथसे डाले हुएं कतकफलके निमित्तसे कीचड़ और जलका विवेक हो जानेसे अपनी मूर्तिकी परछाई द्वारा
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सहजानन्दशस्त्रमालायां
स्वच्छताकी परीक्षा करके रवच्छ जलको पी लेते हैं। वैसे मोही जीव कर्मसे संयुक्त नायकस्वरूप अपनेको (जिसका कि ज्ञायफस्त्रभाव तिरोहित हो गया) अनुभव करने वाले श्रात्मा और भावकर्मा विवेक न होनेसे व्यवहारविभृढ होकर निजको नानारूप अनुभव करने लगते हैं। परन्तु वस्तुस्वभावके समझने वाले अपनी बुद्धिसे प्रयोग किये गये निश्चयनयरूप भूतार्थके आश्रय द्वारा आत्मा और भावकर्मका विवेक हो जानेसे अपने
आपके आकारमें प्रस्ट अपने स्वभावका परिचय करके एक ज्ञायकस्वरूप निजका अनुभवन कर लेते हैं।
-जिन्होने परमार्थका परिचय प्राप्त किया उन्हें व्यवहारसे प्रयोजन नहीं है। किन्तु जो अपरमार्थमे ठहरे हैं उन्हें व्यवहार प्रयोजनवान है । जैसे-जो आखिरी तावसे तचे हुए शुद्ध स्वर्णसे परिचित हैं उन्हें अशुद्ध स्वर्णमें श्रादर व प्रयोजन नहीं है किन्तु जिन्हें शुद्ध स्वर्णका परिचय नहीं है उन्हें अशुद्ध स्वर्ण में आदर व प्रयोजन है। वैसे जो निज परमपारिणामिकभावसे परिचित हैं उन्हें पर्याय, भेद श्रादि व्यवहारमें आदर व प्रयोजन नहीं है । किन्तु जो विकल्परूप अपरमार्थ भावमें ठहरे हैं परमार्थ से परिचित नहीं है उन्हें व्यवहारमें आदर व प्रयोजन भी है। परमार्थमें पहुँचनेपर व्यवहारमे आदर व प्रयोजन नहीं रहता।
-आत्मा मामान्यविशेषात्मक है । सामान्य अंश ध्र च होनेसे परमार्थ है और विशेप अंश अध्रव होनेसे अपरमार्थ है । परमार्थ दृष्टिसे आत्मा अबद्ध (किसीसे न बंधा हुआ), अस्पृष्ट (किसीसे न छुपा हुआ), अनन्य (अन्य नहीं किन्तु वही वही), अविशेष (गुण भेद रहित), नियत असंयुक्त (नैमित्तिक विभावसे रहिन) है । किन्तु अपरमार्थ दृष्टिसे आत्मा वद्ध, स्पृप्ट, अन्य, विशेप अनियत व संयुक्त भी है । ध्रुव, एकको देखना सामान्यदृष्टि है। अध्रुव, अनेकको देखना विशेषज्ञष्टि है। जैसेकमलिनीका पत्र तालाब में डूबा है उसे जल व पत्रकी संयोगदृष्टि से देखें नो पत्र जलसे बद्ध व स्पृष्ट है । यदि केवल पत्रको या पत्रके ही स्वभावकी
तसे देखें तो पत्र वद्ध नहीं है और न स्पृष्ट भी है।
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समयसारखष्टान्तमम
१०-सामान्यदृष्टिसे आत्मा अनन्य है, विशेषत्रहिसे आत्मा अन्य अन्य है । जैसे-एक मिट्टीके ही होने वाले पिण्ड कोश कुशूल घट कपाल को विशेष, पर्यायकी दृष्टिसे देखें तो सब अन्य अन्य हैं किन्तु एक मिट्टीके स्वभावको मुख्य करके देखें तो सब अनन्य हैं एक मिट्टी है। वैसे नर नारक आदि व क्रोध मान आदि पर्याय: विशेषकी दृष्टि से देखें तो सव अन्य अन्य हैं, किन्तु एक आत्मस्वभावकी मुख्यतासे देखें तो वहाँ सर्वत्र एक विशुद्ध चैतन्य है।
११-सामान्य, परमार्थ दृष्टिसे आत्मा नियत है, विशेष, अपरमार्थ दृष्टिसे आत्मा अनियत है । जैसे-समुद्रको वृद्धि हानि पर्यायकी दृष्टिसे देखा जाये तो समुद्र अनियत है, किन्तु केवल समुद्रपनेकी दृष्टि से देखा जावे तो समुद्र सदा नियत है। वैसे आत्माको वृद्धि हानि पर्यायसे देखो तो आत्मा कभी कम या अधिक मतिज्ञानी है कभी कम या अधिक श्रु तज्ञानी है कमी कम या अधिक क्रोधो है कभी कम ण शधिक शान्त है इत्यादि प्रकारसे आत्मा अनियत है किन्तु सदा व्यवस्थित आत्मस्वभाव की दृष्टि से देखा जावे तो सदा चैतन्यस्वभावरूप नियत है।
१२-अमेष्टिमें आत्मा अविशेष है, भेदद्दष्टि में आत्मा विशेषरूप है । जैसे-एक सुवर्णको भी चिकना, वजनदार, पीला आदि भेदोंसे देखा जाये तो सुवर्ण विशेष विशेषरूप है किन्तु अभेददृष्टिसे (जहां कि विशेषकी दृष्टि लुप्त हो गई है) देखा जाये तो वह सर्वत्र एक सुवर्ण ही है। वैसे एक आत्माको ज्ञान, दर्शन श्रादि भेदीसे देखा जावे तब आत्मा ज्ञानरूप, दर्शनरूप आदि विशेष विशेषरूप है किन्तुं अभेददृष्टि से (जहां कि समस्त विशेष लुप्त हो गये हैं) देखा जाये तो वह सर्वत्र एक सामान्य आत्मा ही है।
१३-परमार्थ, स्वभावदृष्टिसे आत्मा असंयुक्त, स्वभावमात्र है, अपरमार्थ, संयोगष्टिसे आत्मा संयुक्त, परभावरूप है। जैसे अग्निके संयोगके निमित्तसे होने वाली उष्णपर्यायके सम्बन्धकी दृष्टिसे देखा जावे तो जजमें संयुक्तता है, किन्तु केवल जलके शीतस्वभावकी दृष्टिसे
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सहजानन्दशास्त्रमालायां
देखा जावे तो वह संयुक्तता नहीं है स्वभावरूप है। वैसे कमविपाकके निमित्तसे होने वाले मोहके सम्बन्धकी दृष्टिसे देखा जावे आत्मामें संयुक्तता है, कुछ मिला है, किन्तु केवल परमार्थ आत्मस्वभाव चैतन्यकी दृष्टि से देखा जाये तो संयुक्तता नहीं है, आत्मा स्वभावमात्र है।
१४-श्रात्मा परमार्थसे सहज चैतन्यस्वरूप है, सहजज्ञानमात्र है। वह यद्यपि नित्य प्रकट है, तो भी सहजज्ञानकी परिणतिमें जो ज्ञय होता है उसमें लोभी हो जानेसे मुग्ध जीवोंको निज स्वभावका स्वाद नहीं रहता है । जैसे-नाना प्रकारकी शाकोंमें नमक पड़ा हुआ है, शाकके खानेके समय नमकका भी स्वाद आ रहा है, परन्तु शाकमें आसक्ति होनेसे शाक विशेषपर ही दृष्टि है सो नमकका तिरोभाव होनेसे लोभी शाकविशेषरूपसे नमकको स्वादता है किन्तु नमकका प्रक्ट स्वाद नहीं ले सकता है। वही पुरुप यदि केवल नमककी डलीका रवाद ले तो सर्व व्यजनोंकी दृष्टि न होनेसे प्रकट नमकका स्वाद लेता है। वैसे-नाना जयोंमें उपयोग
आसक्ति होनेसे यद्यपि स्वाद ज्ञानका ही है तथापि शेयकी ओर चष्टि होनेसे, विशेषका ही प्रकाश होनेसे ज्ञानका स्वाद मोही जीवको नहीं प्राप्त होता, किन्तु ज्ञयके स्वादको कल्पनामे ही वेसुध रहना है । यही जीव यदि सर्वसे भिन्न केवल ज्ञानमात्र आत्माको अनुभवे तो विशेप, विकल्पोंका 'तिरोभाव हो जानेसे अनासक्त उदासीन उस ज्ञानीको प्रकट आत्माका अनुभव, स्वाद आता है।
१५-ज्ञानीको जिसका अनुभव होता है वह दर्शन ज्ञान चारित्रात्मक एक निज आत्मा है । प्रात्माके दर्शन (श्रद्धान) ज्ञान, चारित्र भिन्न नहीं है। जैसे किसी देवदत्तनामके पुरुपका जो श्रद्धान ज्ञान आचरण है वह सव देवदत्तसे भिन्न किसी अन्य पुरुप या जड़में नहीं है क्योकि वे देवदत्तके स्वभाव हैं इसी तरह आत्माके दर्शन ज्ञान चारित्र आत्मासे भिन्न नहीं हैं । दर्शन ज्ञान चारित्रकी उपासना करो ऐसा भेदरूप उपदेश ह. है, वास्तवमे यह अखण्ड निज एक आत्मा ही उपास्प है।
१६-इस निज अखण्ड आत्माकी उपासनासे होनेवाले मोक्षकी
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समयसारदृष्टान्तमर्म
जिन्हें चाह है उनका कर्तव्य है कि पहिले इस निज सत ज्ञायक स्वरूप आत्माको जानें और श्रद्धान करें और उस ही के अनुरूप आचरण करें जैसे कि जो कोई पुरुष धनलाभकी चाह करे तो वह सबसे पहिले राजा को जानता है और उसका विश्वास करता है तथा फिर उस राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करता है इस उपायसे उसे धनलाभ हो जाता है।
१७-यह आत्मोपलब्धि तव तक नहीं हो सकती जब तक यह जीव अज्ञानी है । जैसे-घड़ेके रूप रस गंध स्पर्शमें तथा घड़ेके प्रकार यह घड़ा है और घड़ेमें रूपादि भाव व आकार है इस तरह घड़ेमें और रूपादिभाव व आकारमें उस वस्तु के अभेदरूप याने एकमेक अनुभव होता है, इस तरह यदि कोई आत्मा मोहादिक भावमे और शरीरमें यह मैं आत्मा हूं और मुझ आत्मामे मोहादि व शरीर है ऐसा आत्माके अभेदरूप अनुभव करे तो वह अज्ञानी है, क्योकि स्वभाव और परभावको एकत्वरूप अभिप्राय अज्ञान है ।
१८-जैसे-दर्पणका स्वरूप तो ऐसी स्वच्छता ही है जिसके कारण उसमें स्व परके आकारका प्रतिभास होता है और यदि उस दर्पणमे अग्निका प्रतिविम्व हो रहा है तो वहां अग्निका कुछ नहीं है अग्निका स्वरूप उष्णता व ज्वाला है सो उष्णता व ज्याला अग्निमें ही है दर्पणमें नहीं है । वैसे जब इम आत्माके ऐसा भेदविज्ञान प्रकट होता है कि "मुझ अमूर्त आत्माका रवरूप तो स्व परको जाननेवाला जाननपन ही है और कर्म नोकम पुद्गलोका स्वरूप याने पर्याय है" और इस भेद विज्ञानके अनंतर अभेद अद्वैत निज आत्माका अनुभव होता है तभी यह ज्ञानी हो जायगा।
१६-जैसे "अग्नि इधन है, इंधन अग्नि है, अग्निका इंधन है, इधनकी अग्नि है, अग्निका इंधन था, इधनकी अग्नि थी, अग्निका इधन होगा, इधनकी अग्नि होगी। इस प्रकार अग्नि व इधन जुदे होनेपर भी जब तक ईधनमें अग्निकी असदुभूनकल्पना है तब तक वह अज्ञानी है और जव "अग्नि इधन नहीं है, इंधन अग्नि नहीं है, अग्नि अग्नि
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सहजानन्दशास्त्रमालायां
है, इंधन इधन है" ऐसा अग्निमें ही अग्निका ज्ञान करे तब वह उरा विषयका ज्ञानी कहा जाता है। (इसी तरह भूत भविष्यके भी उदाहरण लगा लेना)। वैसे-"मैं यह हूं, यह मैं है, मेरा यह है, इसका मैं हूँ, मेरा यह पहिले था, इसका मैं पहिले था, मेरा यह आगे होगा, इसका मैं
आगे होऊंगा" इस प्रकार परपदार्थ और आत्मा जुदा होनेपर भी जब तक परपदार्थमें आत्माकी असद्भून कल्पना है नव तक वह अज्ञानी है
और जब तक "मैं यह नहीं हूं, यह मैं नहीं है, मैं मैं हूँ, यह यही है, मेरा यह नहीं था, इसका मैं नहीं था, मेरा मैं ही था, इसका यह ही था, मेरा यह नहीं होगा, इसका मैं नहीं होऊगा, मेरा मैं ही होऊंगा, इसका यह ही होगा ऐसा निज आत्मामे ही आत्माका यथार्थ ज्ञान करे तब वह ज्ञानी हो जावेगा । हे आत्मन् ! पर पर ही है उसका मोह छोड़ो।
२०-जैसे एक स्फटिक पापाण स्वच्छ है तथापि उसके समक्ष यदि नाना प्रकारके रंग वाले उपाधिभून पदार्थ समक्ष हों तो स्फटिकमें नाना प्रतिविम्ब हो जाते हैं। ये विचित्र प्रतिविम्ब वास्तवमें स्फटिकके. स्वभाव तो हैं नहीं, तो भी जो अविवेकी इन्हें स्फटिकके स्वभावभाव ही मान बैठे तो वह अज्ञानी है । तथैव यह आत्मा स्वभावसे तो स्वस्वरूप रवच्छ है तथापि जब तक नानाकर्मोदयकी उपाधिका निमित्त है तब तक इस आत्मामे नाना विकार होते हैं, वे विकार आत्माके स्वभाव भाव नहीं है, तो भी जो इन्हें स्वभावभाव स्वीकार करता है, पुद्गल द्रव्य मेरा है ऐसा अनुभव करता है तब तक वह अज्ञानी है।
२१-हे आत्मन् तू ज्ञानमय है ज्ञानका ही स्वाद लेता है, ज्ञयको नानकर ऐसा भ्रमसे क्यों मानन करता है कि विषयका स्वाद लेता हूं जैसे कि कोई हाथी अविवेकसे घास और हलुवाको मिलाकर ही खाता है वह हलुवाका स्वाद पृथकसे लेना समझता ही नहीं।
२२-हे आत्मन् ! जैसे नमकका जल और जलका नमक वन जाता है क्योंकि क्षारपना दोनों दशावोंमें रहता है । वैसे-यह नहीं समझ
। कि पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य बन जावे और जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य वन
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समयसारदृष्टान्तमर्म (६ ) जाय क्योंकि जीव और पुद्गल दोनोंका लक्षण भिन्न भिन्न है जीवका लक्षण उपयोग है और पुद्गल सदा उपयोगरहित ही रहता है।
२३-जैसे प्रकाश अंधकारका सदा विरोध है जहां प्रकाश है वहां अधकार नहीं है और जहां अंधकार है वहां प्रकाश नहीं। वैसे उपयोग और अनुपयोगका सदा विरोध है जहां उपयोग है वहां अनुपयोग नहीं और जहां अनुपयोग है वहां उपयोग नहीं। उपयोग जीवमे ही है पुद्गलमें अनुपयोग ही है । इसलिये हे आत्मन् विवेक करो अपनेको ही मेरा यह है ऐसा अनुभव कर।
२४ तात्त्विक वातपर आश्चर्य करके अज्ञानी प्रश्न करता है कि मैं तो यह समझता हूँ कि जो आत्मा है वही शरीर पुद्गल द्रव्य है पृथक कुछ नहीं, यदि ऐसा न हो तो ये स्तुतियां सव मिथ्या हो जावेंगी कि हे भगवन तुमने अपनी क्रांतिसे दशो दिशावोंको स्नान करा दिया, तेजके द्वारा बड़े बड़े तेजास्वियोंके तेजको रोक दिया, रूपके द्वारा मनुष्यो के मनको हर लिया, दिव्यध्वनिसे कानोमें अमृत वरसाया । इसके उत्तरमें ज्ञानी कहते हैं कि जिस प्रकार सोना और चांदी मिलकर एक पिण्ड हो जावें तो भी सोना सोनेमें है चांदी चांदीमे है एकमेक नहीं हो गये, क्योंकि सोनेका स्वभाव पीला है चाँदीका स्वभाव सफेद है लक्षण जुदे जुदे हैं। मात्र एकका व्यवहार है उसी प्रकार आत्मा और शरीरका परस्पर एकक्षेत्रावगाह है तो भी शरीर शरीरमें है आत्मा आत्मामें है दोनो एक नहीं हो जाते, क्योकि दोनोका स्वभाव जुदा है आत्माका स्वभाव उपयोग है
और पुद्गल शरीरका स्वभाव अनुपयोग है । अव रह गई स्तुतिकी बात सो मात्र यह व्ववहारकी वात है जो शरीरकी स्तुतिसे आत्माकी स्तुतिका यत्न किया।
२५-जिस प्रकार चांदीका गुण तो सफेद है और सोनेका गुण पीलापन है सोने में सफेदीका स्वभाव नहीं है फिर भी चाँदी सोनेका एक स्कन्ध होनेपर ऐसा व्यवहार किया जाता है कि यह सोना सफेद है । उसी प्रकार तीर्थकरके शरीरका गुण सफेद खून आदि है, आत्माका गुण उपयोग है
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सहजानन्दशास्त्रम लायां सफेद खून होना आत्माका स्वभाव नहीं है फिर भी इस असमानजातीयपर्यायरूप एक पिण्ड होनेपर यह व्यवहार किया जाता है कि तीर्थकरकेवलीपुरुष सफेद खून वाले हैं । यह मात्र व्यवहारकी स्तुति है। निश्चयनयसे शरीरकी स्तुतिसे आत्माकी स्तुति नहीं होती । (यहाँ गुण शब्दका अर्थ परिणाम करना)।
२६-जैसे चांदीका गुण जो सफेदीपन है वह सोनेमें नहीं है इसलिये निश्चयसे चाँदी के गुण सफेदीके द्वारा सोनेका व्यपदेश (ज्ञान) नहीं होता, सोनेके गुणसे ही सोनेका व्यपदेश होगा । वैसे शरीरका गुरा जो सफेद खून, सुन्दर रूप आदि है वह तीर्थकरकेवली पुरुपमें नहीं होना इसलिये निश्चयसे तीर्थकर भगवानके गुणोसे ही तीर्थकरकेवलोकी स्तुति होगी शरीरके गुणोंसे तीर्थकरकी स्तुति नहीं होगी।
२७-यहाँ अज्ञानी प्रश्न करता है कि जब शरीरका अधिष्ठाता आत्मा है तब शरीरकी स्तुतिसे आत्माकी स्तुति क्यों न मानी जावे । उत्तरमें ज्ञानी कहते हैं कि जैसे नगरका अधिष्ठाता राजा है तो भी नगर. का ऐसा वर्णन कर दिया जावे कि इस नगरके बगीच इतने फैले हुए हैं कि मानो इस नगरने बगीचोंसे सारी भूमि निगल ली, मकान इतने ऊंचे हैं कि मानो मकानोसे सारे आकाशको खा ढाला, खाई इतनी गहरी हैं कि मानो खाईके द्वारा पातालको पी लिया। तो क्या इस नगरके वर्णनसे राजाका वर्णन हो गया ? नहीं हुआ। वैसे शरीरका अधिष्ठाता वर्तमानमें आत्मा है तो भी शरीरका कैसा ही उत्तम वर्णन कर दिया जाये कि जिनेन्द्रका रूप महासुन्दर है अक्षोभ है आदि । तो क्या शरीरके इस वर्णनसे श्रात्माका वर्णन हो गया? नहीं हुआ। क्योंकि तीर्थकरकेवली यद्यपि इस समय शरीरके अधिष्ठाता है तो भी तीर्थकरकेवली भगवानके शरीरका कोई भी गुण नहीं है इसलिये शरीरकी स्तुतिसे आत्माकी स्तुति नहीं हुई। आत्माकी स्तुतिसे ही श्रात्माकी स्तुति होती है। जैसे-हे भगवन् आपने ज्ञानस्वभावकी भावनासे इन्द्रियोंको जीतकर जितेन्द्रियता
,आप मोहको जीतकर जितमोह हुए और क्षीणमोह हुए आदि ।
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समयसारदृष्टान्तमर्म
(११)
२८-जव यह जीव आत्मा और परके स्वरूपको यथार्थ जान जाता है सवको अपनेसे भिन्न मान लेता है तो ऐसा ज्ञान ही परपदार्थों का व परभावोंका त्याग है । जैसे दो पुरुप एक धोवोके अपने अपने चादर धोने हाल आये थे। एक पुरुष पहिले उसके यहांसे चादर उठा लाया, किन्तु वह दूसरे पुरुषकी थी उसे यह पता नहीं था सो उसको अपनी ही चादर समझकर उसे ओड़कर निर्भय सो गया । अव दूसरा पुरुप चादर उठाने को धोवीके गया तो उसे अपनी चादर न मिली-1 धोवी जो दे रहा था वह उसकी न थी। तव धोवीने वताया कि आपकी चादर अमुकके यहां पहुंच गई। दूसरा पुरुष पहिले पुरुषके घर गया वहां वह सो रहा था सो चादर का एक छोड़ पकड़कर झटककर दूसरा पुरुष कहने लगा कि भाई जागो जागो, यह चादर आपकी नहीं है मेरी है बदले में आ गई है। बार बार ऐसा कहा तब वह जागा और अपनी चादरके जो चिह्न थे, उन्हें देखने लगा । जव उसे अपनी चादरके चिह्न नहीं मिले तो वह उस चादरको उसी समय परकीय समझकर अलग कर देता है । शरीरसे हटाकर देने में चाहे विलंब हो जावे भीतरसे तो छूट ही चुकी। यहां देखलो-वास्तवमे ज्ञान ही त्याग है। वैसे ही यह आत्मा भ्रमसे कषायादिक औपाधिक भावोंको ग्रहण करके अपने मानकर अपनी आत्मामें निश्चय करके मोहनीदमे सोता हुआ स्वयं अज्ञानी वना । उसे जव श्री गुरु परभावका विवेक कराके उसे स्वयंके एक रूपका मान कराते हैं, जगाते हैं, हे
आत्मन् ! जल्दी जागो प्रतिवोध करो यह आत्मा एक चैतन्यमात्र है ये परभाव रे स्वभाव नहीं हैं । वार वार हितमय गुरुवाक्य सुनकर उसने समस्त चिन्होंसे भलीभांति परीक्षा की और निश्चित कर लिया कि मैं चैतन्य मात्र हूँ औपाधिकभाव में नहीं हूँ ऐसा ज्ञान व श्रद्धान हुआ कि उन सब परभावोंका त्याग हो गया । अव चाहे आत्मभूमिसे उनके हटने में चाहे कुछ विलंव भी लगे तो भी भीतरसे तो छूट ही गया। इसलिये ज्ञान ही प्रत्याख्यान याने त्याग है।
२६-मैं चैतन्यमात्र हूँ, मोह परभाव है। चैतन्यका और मोहका
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(१२) सहजानन्दशास्त्रमालायां स्वाद भिन्न भिन्न है । जैसे दही और शक्कर दोनोंको मिलाकर एक श्रीखंड वना हो उसमे भी स्वादभेदके पहिचानने वाले.दही और शक्करके स्वाद भेदको पहिचान जाते हैं। शक्कर दही नहीं है क्योंकि स्वादभेद है। चैतन्यमात्र मैं मोह नहीं हूँ. क्योंकि मोहमें और चैतन्यमें रवादभेद है। इसी प्रकार पुद्गलादि पर द्रव्यरूप और उनके विकल्परूप भी मैं नहीं हूँ।
३०-जिस प्रकार अपने हाथमें कोई सोनेकी चीज लिये हो और भूल जावे तो उसे व्यग्रता होती है, किन्तु उसे ही किसी प्रकार जब ख्याल आ जाता है तब उसे उसका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है प्योर व्यग्रता भी नष्ट हो जाती है । उसी प्रकार आत्मा अनादिकालसे मोहमें उन्मत्त हुआ अपने आपको भूल रहा था उसको जव किसी ज्ञानी गुरुने वार वार समझाया तो जव प्रतिबोधको प्राप्त हुआ तव ही वह अपने आपको परमेश्वरस्वरूप जानकर विश्वास करके और उसके अनुकूल उपयोग रूप आचरण करके अपने आपको चिन्मात्र ज्योतिरूप प्रत्यक्ष प्रतिभासने. लगता है। ___३१-जिस प्रकार समुद्र के किसी हिस्सेपर पतली चादर आड़े पड़ी हो तो उसमे स्नान करना कठिन है। उसी प्रकार ज्ञानसमुद्रपर भ्रम की चादर पड़ी है तो उस झोनसमुद्र में मग्न होना कठिन है। जैसे चादर को हटाकर समुद्र में खूब स्नान किया जा सकता है । वैसे भ्रमको हटाकर जानसमुद्र में स्नान किया जा सकता है । हे प्रात्मन् भ्रमकी चादर हटावो और निःशंक निर्भर ज्ञान्समुद्र में स्नान करो, ज्ञानमें मग्न होओ।
इनि पूर्वरंग समाप्त
अथ जीवाजीवाधिकार ३२-जिस प्रकार नाटकमें कोई मृत्युका पार कर रहा हो तो विवेकी देखने वाले दुखी हो जाते हैं कि हाय देखो यह उत्तम पात्र . गया । परन्तु जिसे यह नाटकरूप दीखता है "कि कोई श्रादमी पात्र
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अथ जीवाजीवाधिकार (१३) बना है, वह तो मरा नहीं केवल यह वेश और प्रदर्शन किया जा रहा है" वह दुखी नहीं होता । इसी प्रकार जिसे निज अचल चैतन्य ज्योतिका परिज्ञान हो गया है, वह इन संसारके क्लेशोंको देखकर अधीर व कुल नहीं हो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि आत्मा चैतन्यमात्र है, यह , परिणमन इसका अध्रुव वेश है।
३३-प्रश्न-जैसे अंगार-कोयलासे कालिमा अलग नहीं है, इसी प्रकार प्राकृतिक राग द्वेषसे मलिन अध्यवसान परिणामसे मिन्न आत्मा नहीं है या कमसे जीव अलग नहीं है या अध्यवसानकी संतविसे जीव अलग नहीं है या पुण्य पाप या साता असातासे या शरीरसे जीव अलग नहीं है । उत्तर-राग, द्वेष, कर्म, कर्मोदय आदि जिन जिन बातोंको जीव । मान लिया है वे सव पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं व औपाधिक हैं, वे सब चैतन्यशून्य हैं । ज्ञानी जीवाने पुद्गलद्रव्यके व उनके उन सव परिणमनों से भिन्न चैतन्यमात्र जीवद्रव्यको पाया है; अनुभवा है। उक्त बातोंमे आगम युक्ति स्वानुभव तीनोंसे वाधा आती है। पुद्गलके परिणमनोंसे आत्मा ऐसे भिन्न है जैसे कि किट्ट कालिमासे सुवर्ण भिन्न है।।
- ३४-अज्ञानी पुनः प्रश्न करता है कि जैसे शिखरिणी दही शक्करकी मिलकर एक है, इसी तरह आत्मा.और कर्म मिलकर ही जीव है, हमें तो यही समझमें आना है। उत्तर-जैसे सुवर्ण विट्ट कालिमासे अलग है। वैसे जीव पुद्गल कर्मसे अत्यन्त अलग है, त्रिकालमें भी आत्मा और कर्म एकरूप नहीं हो सकते।
३५-अज्ञानी पुनः प्रश्न करता है कि जैसे पाया ४ सीरा २ पाटी २ इस प्रकार ८ काठसे अतिरिक्त अन्य कोई खाट नहीं है, वैसे ही ८ कर्मोसे अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं है, आठ कर्मोंका संयोग ही जीव है । उत्तर-जैसे खाटपर सोने वाला पुरुष खाटसे भिन्न है, वैसे आठ कर्मोंके संयोगसे भिन्न चैतन्यस्वभाव जीव द्रव्य अलग है, ऐसा भेद ज्ञानियोंने स्वयं प्राप्त किया है।
३६-सिद्धान्त अन्थोंमें जो त्रस स्थावर आदिको जीव कहा है,
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(१४) सहजानन्दशारत्रमालायां वह व्यवहारनयसे कहा है। जैसे म्लेच्छ पुरुपोंको किसी संस्कृत शब्दमें आशीर्वाद दिया, तो जव तक म्लेच्छ भाषामे उल्था करके उसे समझाया न जावे वह समझ नहीं सकता, वैसे जो नीवके सहजस्वभावसे अनभिज्ञ हैं, ऐसे व्यवहारी जनोंको "चैतन्य” इतने शब्दसे न समझ सकनेके कारण जीवकी विकारी पर्यायों, असमानजातीय पर्यायोंका आश्रय लेकर समझाना पड़ता है, सो यद्यपि यह अभूनार्थ है, तथापि अभूतार्थ व्यवहारनयके आश्रयसे दिखाना उचित ही है।
३७-जिस प्रकार सेनासहित राजा कहीं जा रहा हो और कोई पूछे यह कौन जा रहा है ? नो यह उत्तर मिलता है कि यह राना ना रहा है । वास्तवमें देखो तो राजा पांच योजनमें फैलकर तो नहीं जा रहा है, वह तो एक पुरुषमात्र है फिर भी सेनासमुदायमें राजाका व्यवहार किया जाता है। उसी प्रकार एक सहज शुद्ध आत्मा समस्त रागादि पर्यायोंमें व्याप्त नहीं होता, तथापि उन समस्त पर्यायों में सम्बन्ध या परिणमनके कारण यह जीव है, ऐसा व्यवहार किया जाता। वास्तवमें तो आत्मा एकरूप है, उसके न वर्ण हैं न गंध हैं और न गुणस्थान जीव स्थान आदि है, वह तो सदा एकरूप है।
३८-जीव रूपरसगंधस्पर्शशब्दसे रहित अनुभवगम्य चेतन गुणात्मक है, जीवमें वर्ण श्रादिक राग आदिक गुणस्थान आदिक नहीं है, क्योंकि ये पुद्गलके उपादान या पुद्गलके निमित्तसे होते हैं और स्वानुभवसे भिन्न तत्व हैं । तथापि अनेक ग्रन्थों में इन्हें जीवके कहे गये हैं, वह सब निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धमात्रके कारण व्यवहारसे जीवके समझना । निश्चयनयसे ये कोई भाव जीवके नहीं है। जैसे-फुसुभ (कौसुमी) रंगमें रंगे हुए सूती वस्त्रको देखकर लोग यह कहते हैं कि यह कपड़ेका रंग है। निश्चयसे वह रंगका रंग है, कपड़ा तो केवल वही है, जैसा कि पहले था, किन्तु रंगके सम्बन्धसे हुए कपड़ेकी व्यक्त शकलको - कर लोग यही कहते हुए पाये जाते हैं कि रंग वस्त्रका है, यह व्यवहार । इसी प्रकार निश्चयसे तो आत्मा आत्मद्रव्यस्वरूप है, परन्तु औपाधिक
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अथ नीवानीवाधिकार
(१५)
भावोंकी दृप्टिसे देखा जाय तो रागादिक सब नीवके कहे जाते हैं, यह सब व्यवहारनयसे है।
३६-जैसे पानी मिले हुए दूधका पानीके साथ यद्यपि परस्पर अवगाह रूप सम्बन्ध है. तथापि लक्षणोंसे दग्बी-क्षीरत्व गुण दूधमें ही रहता है लो कि पानी में नहीं है, तब दूधका पानीके साथ नादात्म्य सम्बन्ध नो नहीं कहा जा सकता, जैसे कि अग्निका तादात्म्य उष्णताके साथ है; यही कारण है कि निश्चयमे दूधका पानी कुछ नहीं है। हमी प्रकार वर्णादिक व रागादिक पुद्गलदव्यक परिणामोंसे मिले हुए श्रात्मा का यद्यपि पुद्गलद्रव्य के साथ परस्पर अवगाह रूप सम्बन्ध है, तथापि लक्षणोंसे देखो उपयोग (नान दर्शन) गुण श्रात्मामें ही रहता है, अन्य किसी द्रव्यमें नहीं रहता, तब आत्माका अन्य सब द्रव्य व पुद्गलपरिणामों के साथ नादात्म्य सम्बन्ध तो नहीं कहा जा सकता, जैसे कि अग्निका उटण गुणके साथ तादाम्य है, यही कारण है कि निश्चयसे आत्माके वर्गादिक व रागादिक कोई भी पुद्गल परिणाम नहीं है।
४०-जैसे जिस रास्ते में स्थिन धनीको चौर लूट लेते हैं, उस रास्तेमें स्थित होनेके कारण लोग ऐसा कहने लगते हैं कि यह रास्ता लुटना है, यह उपचारसे कहा गया है, किन्तु निश्चयसे देखो तो रास्ता तो उस जगह श्राकाशके प्रदेश हैं सो रास्ता कसे लुट समता, नहीं लुटता। इसी प्रकार जिस जीवमें बन्धपर्यायसे अवस्थित कर्म नोकर्म रागादिक देखे जाते हैं। उम जीवमं रहने के कारण यान सम्बन्ध होने के कारण लोग ऐसा कह देते हैं कि ये वर्णादि रागादि जीवके हैं, यह उपचारसे कहा जाता है, किन्तु निश्चयसे देखो तो नीव तो ज्ञानदर्शन म्यमाव वाला है। अमूर्न है सो जीवके रागादिक वर्णादिक कैसे हो सकते हैं, नहीं होते। क्याकि जीवका ननके साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है । क्योंकि लो जिस स्वरूपसे सदा रहे, जिस स्वरूप विना कभी रहता ही नहीं, उसका उससे नादात्म्य सम्बन्ध होना है । सो यद्यपि संसारावस्थामें रागादि वर्णादिका कथंचित् सम्बन्ध है तो भी मोक्षावस्थामें तो नहीं है। इससे सिद्ध है कि
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सहजानन्दशास्त्रमालायां
वर्णादिक व रागादिक भाव जीव नहीं है।
४१-जैसे सुवर्णक द्वारा रचा गया बाभूषण सोना ही है, वैसे ही पुद्गल नामकर्म द्वारा रचे गये वादर सूक्ष्म उस स्थावर श्रादि जीवस्थान पुद्गलं ही हैं, जीव नहीं हैं।
४२-सिद्धान्त शास्त्रोंमें ये सब जीवके भेदरूपसे कहे गये हैं, वे कुछ प्रयोजनवश कहे गये हैं। जैसे कोई पुरुप जन्मसे ही एक घीके घड़ेको समझता है । उसके सिवाय दुसरे घड़ेको जानता नहीं, नो उसे यथार्थ यात सममानेके लिये यही तो कहना पड़ता है कि "जो यह घोका घड़ा है सो मिट्टोमय है घृतमय नहीं है । इस तरह समझाने वाले उस घड़ेमें घोके घड़ेका व्यवहार करते हैं, क्योकि समझाया तो उन्हें जा रहा है जिसे 'घोका घड़ा" ही ज्ञान है । वैसे ही अज्ञानी जीयोंको अनादिसे ही अशुद्ध जीवका परिचय है । वे शुद्ध जीवस्वरूपको जानते ही नहीं हैं, सो उन्हें समझाने के लिये इस व्यवहारका आश्रय करना पड़ता है, कि देखो जो यह वर्णादिमान जीव है सो ज्ञानमय है. वर्णादिमय नहीं। चूंकि अज्ञानी जीवको वर्णादिमान नीव ही ज्ञात है । अतः इसके प्रतिबोधके प्रयोजनके लिये वादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त आदि संक्षावोंको जीवसंज्ञारूपसे सिद्धान्त शास्त्रोंमें कहा गया है। निश्चयसे वणोदिक जीव नहीं है।
४३-~-तथा यह भी सही है कि रागादिक भाव भी जीव नहीं है। जैसे यवपूर्वक होने वाले यव (जौ) यव ही कहलाते हैं, इसी प्रकार पौद्गलिक माहनीयकमके विपाकपूर्वकपना होनेपर होने वाले ये अचेतन रागादिक पुद्गल ही समझना, ये जीव नहीं है। भेदज्ञानियोने चैतन्य स्वभावसे भिन्नरूप ही उनका निर्णय किया है, सो रागादिक गुणस्थानादिक सब अचेतन हैं, अचेतन पुद्गल कर्मके उदयके निमित्तसे होते हैं, अतः रागादिक जीव नहीं है । जीवका लक्षण अनादि अनंत अचल चैतन्य ही है। रागादिक नीवमे अव्याप्त है, अमूर्तत्व जीवके अतिरिक्त आकाशादिक •ाम अतिव्याप्त है, सो ये दोनों लीवक लक्षण नहीं। जीवका निदोष ४ चैतन्य है।
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' अथ कर्तकर्माधिकारः (१७) ४४-जैसे अनेक अवयवों पाले काठको विभागयोग्य जानकर कुशल कारीगर उस संधिपर नहांसे विभाग होना है, करौंतको वार वार चलाता है, उसके फलस्वरूप उन भागोंका विघटन हो जाता है, फिर करौंत चलानेकी आवश्यकता नहीं और वहां कौंत जगमगाती स्वतन्त्र अपनी शोभा रखने लगती है। वैसे ही जीव अजीव इन अनेक द्रव्योंके इस पिण्डको विभागयोग्य जानकर ज्ञानी भेद विज्ञानका वार वार अभ्यास करता है और प्रयोग करता है, उस संधि पर जहाँसे जीव अजीवका विभांग होना है । इसके फलस्वरूप जीव अजीवका स्पष्ट विघटन हो जाता है, फिर भेदविज्ञानके अभ्यासकी आवश्यकता नहीं, वहां नो अव अभेदस्वभाव आत्माके निर्विकल्प अनुभवसे यह आत्मद्रव्य बड़े वेगसे उत्कृष्टरूपसे प्रकाशमान चकासमान हो जाता है। इस तरह जीव और अजीव जो रंगभूमिमें वेश धर कर नांच रहे थे वे पृथक् होकर निकल जाते हैं, स्वतन्त्र अनुभव में आ जाते हैं।
इति जीवाजीवाधिकार समाप्त
अथ कर्तृकर्माधिकारः . ४५-जीव परिणमनशील है, वह परिणमता रहता है परन्तु उपाधिके निमित्तसे तो विभावरूप (क्रोधादिरूप) परिणम जाता है और उपाधिका निमित्त न बनने पर स्वभावको अनुरूप परिणम जाता है। • जीव जव विभाव परिणामोंमें कतृत्वबुद्धि करता है अथवा उनमें आत्मबुद्धि करता है, तब वह कर्मोके महान् बन्धन बना लेता है। वही जीव अन्तरात्मा होकर जब निज ध्र व स्वभावमें और विभावमें अन्तर जान लेता है और कर्तत्वबुद्धि दूर कर लेता है, तव कर्मोका बन्धन दूर होता है । यह भेदविज्ञान किस प्रकार होता है ?
जैसे-जलमें काई है वह जलका तो स्वभाव है नहीं, जलमें केवल वह गन्दगीरूप है सो गन्दी काई है, जल गन्दा नहीं हैं । इसी प्रकार जीव
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(१८) सहजानन्दशास्त्रमालायां में परमाव विभाव (रागादि) हैं, सो अशुचि विभाव है, जीवद्रव्य अशुचि नहीं । इस प्रकार आत्मद्रव्यमें और रागादिमें अन्तर ज्ञान होता है।
जैसे काई स्वयं ऐसी प्रसपित नहीं है, जल स्वयं प्रसर्पित है, इसी प्रकार विभाव स्वयं चेतक नहीं वह जीव द्वारा चेत्य है, परन्तु जीव स्वयं चेतक है । ऐसा आत्म द्रव्यमें और रागादिमें अन्तर ज्ञान होता है।
जैसे-काई अन्यकी गन्दगीका भी कारण है, परन्तु जल गन्दगीका कारण नहीं । इसी प्रकार विभाव आकुलताका कारण है, परन्तु आत्मा आकुलताका कारण नहीं है । ऐसे आत्मद्रव्यमें और रागादिमें अन्तर ज्ञान होता है।
४६-जव आत्मद्रव्यमें व विभावमें भेदविज्ञान होता है, उसी समय विभावकी निवृत्ति होने लगती है। इसका काल प्रवल भेदविज्ञान है। जैसे वृक्ष लाख लग जावे तो लाख तो घातक होता है और वृक्ष वध्य होता है । इसी प्रकार जीवमें विभाव लग जाता है तो विभाव तो घातक है और जीव वध्य है । ऐसा महान् अन्तर तत्त्वज्ञानीको निश्चिन हो जाता है।
४७-जैसे मृगी रोगका वेग कभी घटता है, कभी बढ़ता है। इसी प्रकारके ये विभाव हैं, कभी घटते हैं, कभी बढ़ते हैं अर्थात् अध्रुव हैं। इस तरह आत्मद्रव्य अध्र व नहीं है, वह चैतन्यमात्र है और इस रवरूपसे सदा अचल है । इस प्रकार तत्त्वज्ञानी जीवको आत्मद्रव्य और विभावमै अन्तर निश्चिन हो जाता है।
४८-जैसे शीतज्वरका दाह एक स्थिति पर नहीं रहता है। वह क्रमसे बढ़ता घटता है अतएव अनित्य है । वैसे ही-ये विभाव एक स्थिति पर नहीं रहते, ये भी बढ़ते घटते रहते हैं अतएव रागादि विभाव भी अनित्य हैं। किन्तु, मात्र चैतन्यस्वभावी जीव स्वभावमें-अपरिवर्तित होने से नित्य है । इस प्रकार तत्त्वज्ञानीको स्वद्रव्य और विभावमें अन्तर निश्चित हो जाता है।
४६-जैसे कामों पुरुषके देहवीर्यके अलग होते ही कामविकार
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अथ क कर्माधिकारः (१६) संस्कारको रखने में कोई समर्थ नहीं है, सो जैसा यह कामसंस्कार अशरण है । इसी तरह ससारी जीवके बद्ध कर्मके उदय होते ही औदयिक विभाव होकर नष्ट होते हैं, उन्हें फिर कोई एक पल भी रखने में याने बचाने में समर्थ नहीं है । किन्तु, यह आत्मतत्त्व स्वयं त्रिकाल सुरक्षित है, शरणभूत है। ऐसा अन्तरबोध तत्त्वज्ञानीके हो जाता है।
यहां इतनी विशेषता जानना कि जैसे वीर्य निर्मोक्षसे कामसंस्कार सर्वथा समाप्त नहीं होता है, किन्तु कुछ क्षण बाद फिर कामविकार जागृत हो जाता है । यह कुभाव तो ज्ञान भावसे समाप्त होता है। इसी तरह कर्मोदय हो लेने पर विभावसंस्कार सर्वथा समाप्त नहीं होता है, किन्तु द्वितीय क्षणमें ही कर्मोदय निमित्तक विभाव फिर जागृत हो जाता है। विभाव तो ज्ञानभावनासे ही समाप्त होता है।।
___ इतने पर भी बात कहीं समाप्त नहीं होती, ये विभाव अपने काल में आकुलतास्वभावी होनेसे साक्षात् दुःखरूप हैं और इस निमित्तमे बंधे हुए.कर्मों का भविष्यकालमें जव उदय अथवा उदीरणा होगी उस कालमें भी दुःख भोगना पड़ेगा। अतः इनका दुःख ही फल है। किन्तु आत्मा अनाकुलस्वभावी है, अतः दुःखरूप नहीं है और न आत्मतत्त्व भविष्यकाल में किसी द्विविधाका कारण है, अतः इसका फल भी अनाकुलता ही है। ऐसा अन्तरज्ञान तत्त्वज्ञानीके हो जाता है।
५०-ऐसा अन्तरज्ञान होते ही कर्मोदय शिथिल हो जाता है याने विभाव शिथिल हो जाता है और आत्माका सहज चैतन्य शुद्ध विकास बढ़ जाता है । जैसे कि जब मेघपटल विघटित होते हैं तब दिशायें स्वच्छ हो जाती हैं और प्रकाश सर्वत्र बढ़ जाता है।
__ इस प्रकार तत्त्वज्ञानी जीवके जैसे जैसे ज्ञानस्वभाव विशेष स्वच्छ व्यक्त होता जाता है, वैसे वैसे आस्रवोसे निवृत्ति होती जाती है और जैसे जैसे आस्रवोंसे निवृत्ति होती जाती है, वैसे वैसे विज्ञान घनस्वभाव व्यक्त होता जाता है।
विज्ञान घनस्वभाव तव तक उन्नम्भमाण होता रहता है जब तक
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(२०) सहजानन्दशास्त्रमालायां कि आस्रवोंसे संपूर्णतया निवृत्ति हो जाती है और पासवोंसे तब तक निवृत्ति होती रहती है जब तक कि विज्ञान धनस्वभाव पूर्ण प्रकट हो जाता
५१इस प्रकार संपूर्ण आस्रवनिवृत्तिका व सर्वथा सम्पूर्ण ज्ञानविकासका समय एक है और तत्त्वज्ञानके अनन्तर व केवलज्ञानसे पहिले भी प्रत्येक क्षण यथायोग्य आत्रवानिवृत्ति व ज्ञानविकास है, उसका भी क्षण एक है । जैसे कि मेघपटलकी निवृत्ति व प्रकाशका विकास दोनों का एक क्षण है।
५२-आस्रवकी निवृत्तिका साधकतम भेदविज्ञान है । भेदविज्ञान में यह प्रकाश रहता है, कि आत्मा कर्मके परिणमनको व नोकर्म (शारीरादि) के परिणमनको करता नहीं है। कर्म व नोकर्मके परिणमनको आत्मा क्यों नहीं करता ? इस कारण कि फर्म व नोकर्म जुदा पदार्थ हैं और आत्मा उन दोनोंसे जुदा पदार्थ है । जैसे घट और कुम्हार ये दो जुद चीज है इस कारण घटके परिणमनको कुम्हार नहीं करता है।
५३-फिर कर्म, नोकर्मके परिणमनको कौन करता है ? कर्म पुद्गलकी पर्याय है व नोकर्म भी पुद्गलकी पर्याय है। कर्म परिणमनका पुद्गलसे व्याप्यव्यापकभाव है । शारीरादि नोकर्म परिणमनका भी पुद्गल से व्याप्यव्यापक भाव है । जिन पुद्गल स्कन्धों का कर्म परिणमन है, वे पुद्गल स्कन्ध कर्मको करते हैं। जिन पुद्गल स्कन्धोंका शारोरादि परिणमन है, वे पुद्गल स्कन्ध शरीरादि नोकर्मको करते हैं। जैसे घट परिणमनको कौन करता है ? घट मिट्टीसे बना हुआ है, जिस मिट्टी पिएड का घट परिणमन हुआ है, वह मिट्टी पिण्ड घट परिणमनको करता है।
५४-कमके परिणाम क्या है ? परिणाम शब्दसे दो ध्वनि निकलती हैं। (१) फल, (२) परिणमन । वस्तुतः कर्मका फल भी कर्मका परिणमन है, फिर भी कर्मके उदयको निमित्त पाकर आत्मामें जो मोह, राग, द्वाप, सुख, दुःख आदि विभाव होते हैं, वे भी कर्मके परिणाम कहे ते हैं । सो इनका कर्मके साथ अन्वय व्यतिरेक है, याने कर्मोदय होने
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अथ कर्तकर्माधिकारः (२१) पर ही होते हैं, कर्मोदय विना नहीं होते, अतः ये कर्मके परिणाम हैं। जैसे कि दर्पणके सासने कोई रंग विरंगा खिलौना रख दिया जावे तो दर्पणमें उस खिलौनेके अनुरूप प्रतिविम्ब बन जाता है । वह प्रतिबिम्ब खिलौनेका परिणाम है, क्योंकि उस छायाश खिलौनेके साथ अन्वय व्यतिरेक है, याने उस खिलौनेके समक्ष होनेपर ही होता है। खिलौनेके हट जाने पर निवृत्त हो जाता है । इस ही को स्फटिक व डाफ परसे घटा
लिया जावे।
५५-कर्म परिणमनका कर्ता कर्म है । यह तो अत्यन्त स्पष्ट ही है । नोकमके परिणाम क्या हैं ? शरीरका किसी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णरूप परिणमना, मोटा पतला आदि रूप परिणमना शरीरका (नोकर्मका) परिणाम है अर्थात् जिन पुद्गल स्कन्धोंका वह परिणमन है, उनका परिणाम है । इनका कर्ता ये पुद्गल स्कन्ध है। जैसे घट परिणमनका अर्थात् कम्वुग्रीवादि आकार व उन उन स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णका कर्ता मिट्टी है । जिनका व्याप्यव्यापक सम्बन्ध होता है, उनमें कर्म व कर्ताका व्यवहार होता।
५६-प्रश्न-यदि पुद्गल परिणाम व जीवमें कुछ भी सम्बन्ध नहीं, तो फिर इन्हीं में क्यों सन्देह हुआ ? उत्तर-पुद्गल परिणाममें व जीवमें ज्ञय ज्ञायक सम्वन्ध है, कर्ताकर्म सम्बन्ध नहीं। जीव पुद्गल परिणामका कर्ता नहीं, किन्तु ज्ञाता है । जैसे कि कुम्हार घट परिणमनका • कर्ता नहीं, किन्तु ज्ञाता है।
५७-प्रश्न-जीव पुद्गल परिणमनका ज्ञाता ही सही, इस प्रकार भी तो ज्ञाता जीव व्यापक हो गया व पुद्गल परिणाम व्याप्य हो गया ? उत्तर-नहीं, पुद्गल व आत्माके ज्ञ यज्ञायक सम्बन्ध होनेपर भी जीवमें पुद्गले परिणाम व्याप्य नहीं है, किन्तु पुद्गल परिणामको विषय करके जो पुद्गल परिणाम विषयक ज्ञान हो रहा है, उस ज्ञानके साथ उस समय जीवका व्याप्यव्यापक भाव हो रहा है। जैसे-कुम्हारका घट परिण'मनके साथ व्यापकव्याप्य सम्बन्ध नहीं है, किन्तु घट परिणामको विषय
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(२२)
सहजानन्दशास्त्रमालायां
करके जो घट विषयक ज्ञान हो रहा है, उस ज्ञानके साथ उस नीवका (कुम्हारका) उस समय व्याप्यव्यापक सम्बन्ध हो रहा है।
५८-व्याप्यन्यापक भावके बिना कर्ताकर्मकी सिद्धि नहीं होती। व्याप्यव्यापक भाव भिन्न भिन्न द्रव्योमें नहीं होता क्योंकि सर्व द्रव्य स्वयं स्वतन्त्र हैं। इस प्रकारके ज्ञान प्रकाशसे ज्यों ही अज्ञानान्धकार नष्ट होता है, त्यौं ही यह आत्म तत्व ज्ञानियोंको कर्तृत्वशून्य दृष्टिगोचर होता है; जैसे सूर्यके प्रखर तेजसे ज्यौं ही अन्धकार नष्ट होता है, त्यौं ही दर्शकों को यह सूर्य प्रभाव विशद दृष्टिगोचर होता है।
५६-प्रश्न-ज्ञानी जीव पुद्गल कर्मको जानता है, फिर जीवका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव क्यों नहीं है ? उत्तर-जैसे मन्दिरको जाते हुए किसी भक्तको कोई पुरुष जान रहा है, (देख रहा है), तो क्या दर्शक पुरुष उस भक्तका या भक्तके गमनका कर्ता हो जायगा ? कभी नहीं, इसी प्रकार पौद्ल क स्कन्ध खुद अपने में कर्मत्व पर्यायको ग्रहण कर रहा है, उसे कोई आत्मा जाने तब क्या वह आत्मा पुद्गलकमका कर्ता हो जायगा? कभी नहीं।
६०-जैसे डाले गये योग्य दही आदिके सम्बन्धसे दूध दूध अवस्थाको दहीरूप परिणम जाता है, इसे जानने वाला वह जामन डालने वाला पुरुष क्या दही परिणमनका कर्ता हो जाता है ? कभी नहीं, इसी प्रकार योग्य जीव परिणामोका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणा अकर्मत्व अवस्थाको त्यागकर कर्मरूप परिणम जाता है, इसे जानने वाला वह जीव क्या पुद्गल कर्मका कर्ता हो जायगा? कभी नहीं।
६१-जैसे अपने ज्ञान, इच्छा, प्रयत्नको करते हुए लुहारके पास लोहा तलवाररूप वन रहा है, तलवाररूप अवस्थामें लोहा परिणम रहा है, इसे जानने वाला वह लुहार क्या लोहेका अथवा तलवारका कर्ता हो जायगा याने क्या लुहार तलवार पर्यायमें परिणम जायगा? कभी नहीं; इसी प्रकार अपने ज्ञान, इच्छा, प्रयत्नको करते हुए जीवके पास थाने
· कर्मरूप बन रही है, कर्मत्व अवस्थामें परिणम रही है,
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अथ कर्तृकर्माधिकारः (२३ ) इसे जानने वाला वह जीव क्या पुद्गलकमका कर्ता हो जावेगा याने क्या जीव पुद्गल कर्मपर्यायमें परिणम नावेगा? कभी नहीं।
६२-प्रत्येक पदार्थ मात्र अपनी ही वर्तमान पर्यायको व्यापकर ग्रहण करता है, व्यापकर उस ही पर्यायरूप परिणमता है, व्यापकर उस हो पर्यायरूपसे उत्पन्न होग है । जैसे कि मिट्टी ही व्यापकर मृण्मय घट अवस्थाको ग्रहण कर रही है, मिट्टी ही व्यापकर घट अवस्थारूप परिणम रही है, मिट्टी ही व्यापकर उस पर्यायरूपमे उत्पन्न है, उसको जानने वाला कुम्हार या अन्य पुरुष हो तो क्या उस पुरुपके साथ घटका कर्ताकर्मभाव बन जायगा ? कभी नहीं; इसी प्रकार प्रौद्गलिक कार्माणवर्गणायें ही व्यापकर कर्मरूप अवस्थाको ग्रहण करती हैं, म पर्यायरूपसे परिणमती हैं, कर्म पर्यायरूपमे उत्पन्न होती हैं, उसको जानने वाला वह नीव जिसके एक क्षेत्रावगाहमें पुद्गल कर्म भी है, क्या उस ज्ञाता जीवके साथ पुद्गल कर्मका कर्ताकर्मभाव हो जायगा ? कभी नहीं।।
६३-प्रश्न-आत्मा ज्ञानावरणके क्षयोपशमके अनुकूल अपने परिणामको जानता है, ऐसे इस श्रात्माका पुद्गलकर्मके साथ कर्ताकर्म भाव क्यों नहीं है ? उत्तर-आत्माका परिणाम आत्मामें ही व्याप्य है। आत्मपरिणामको आत्मा ही अन्तर्व्यापक होकर ग्रहण करता है, उस ही को परिणमाता है, उसही रूपसे उत्पन्न होता है। अत: आत्मा बाहर रहने वाले पुद्गल द्रव्यके परिणामका कैसे का हो जायगा। जैसे कलशको मिट्टी ही अन्तयापक होकर ग्रहण करती है, कलशको ही परिणमाती है, क्लशरूपसे ही उत्पन्न होती है, अतः मिट्टीसे बाहर रहने वाले कुम्हार आदि कलशके कर्ता कैसे हो जायेंगे | कुम्हार तो मात्र अपने परिणामको ही अन्तर्व्यापक होकर ग्रहण करता है। ।
ज्ञानीके परिणामको निमित्त पाकर ज्ञानावरणका क्षयोपशम हो जाता है और उस क्षयोपशमके अनुकूल आत्मा अपने परिणामको जानता भी है तो भी पुद्गल द्रव्यके परिणामको नहीं करने वाले आत्मा का पुद्गलके साथ क कर्मभाव कैसे वन जावेगा।
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( २४) सहजानन्दशास्त्रमालायां
६४-आत्मा पुद्गलकमके फल, सुख दुःख आदिको भी जानता है, फिर भी इसका पुद्गलके साथ कत कर्मभाव नहीं है । जैसे कि कलशनिर्माणके कालमें कलश विषयक निमित्त पाकर होने वाले श्रमको कुम्हार जानता है, तो भी वास्तव में कुम्हार कलशका कर्ता नहीं और न कलश कुम्हारके श्रमका कर्ता है, वैसे ही पुद्गलकर्मके उदयको निमित्त पाकर हुए सुख, दुःख आदि परिणामको आत्मा जानता है। फिर भी न तो आत्मा पुद्गलकर्मका कर्ता है और न पुद्गलकर्म आत्मपरिणामका कर्ता
६५-पुद्गलकर्म तो अचेतन ही है, वह न तो जीवके परिणाम को करता है और न अपने परिणामको वह जानता है। उसकी तो मोटे रूपमें भी आत्म परिणामके कर्तापनेकी कल्पना करना अटपटी वात है। पुद्गल द्रव्यका कर्मपरिणाम पुद्गल द्रव्यमें ही व्याप्य है; जीवका परिणाम जीवमें ही व्याप्य है । जैसे कि मिट्टीका कलश परिणाम मिट्टीमें ही व्याप्य है, कुम्हारका परिणाम कुम्हारमें ही व्याप्य है। कोई किसीको न जाने इमसे भी कोई एक दूसरेका कर्ता नहीं हो जाता। कोई किसीको जाने इससे भी कोई एक दूसरेका कती नहीं हो जाता।
६६-आत्माका पुद्गल के साथ व्याप्यव्यापक सम्बन्ध नहीं है। अतः इनमेंसे कोई किसी अन्यका कर्ता नहीं, फिर भी जो कर्ताकर्म जैसी वांत बुद्धिमें जिनके है वह सव अज्ञानसे प्रतिभात होता है । सो जव ही भेदविज्ञानकी किरणें पड़ती हैं, तव ही उनमें प्रकटं भेद नजर आता है
और कर्ताकर्म सम्बन्धका भ्रम समाप्त हो जाता है । जैसे कि अनेक भाग वाले काठपर ज्यौं ही करोती पड़ती है कि दो भेद हो जाते हैं। ..
६७-यद्यपि जीव परिणाममें और पुद्गलकर्ममें निमित्तनैमित्तिक भाव है अर्थात् जीव परिणामको निमित्तमात्र पाकर पुद्गल कर्मरूपसे परिणमता है और पुद्गलकर्मको निमित्तमात्र पाकर जीव उस अनुरूप . त है, तो भी नोव कर्मके गुणको नहीं करता है और न करें प गुणको करता है तथा न तो जीव पुद्गलकमके गुणमें कुछ
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अथ क कर्माधिकारः
(२५)
करता है और न कर्म जीवके गुणमें कुछ करता है। जैसे कि कुम्हारके व्यापारको निमित्त (आश्रय) पाकर मृत्कलश परिणमन होता है और उस मुत्पिण्डको निमित्त (आश्रय) पाकर कुम्हारका व्यापार होना है, फिर भी मृत्पिण्ड कुम्हारके गुणको नहीं करता है और न कुम्हार मृरिपिएडके गुण को करता है तथा न तो मृत्पिण्ड कुम्हारके गुणमे कुछ करता है और न कुम्हार मृत्पिण्डके गुणमें कुछ करता है ।
६८-जैसे मिट्टीके द्वारा कलशका करना होता है, वैसे ही जीवके द्वारा उस जीवका भाव ही करनेमे आता है। इस कारण जीव अपने भावका कर्ता कहा जा सकता है, अन्य द्रव्यके भावका को नहीं।
६६-जैसे कि मिट्टी द्वारा वस्त्रका करना नहीं हो सकता, अतः मिट्टी वस्त्रका कर्ता किसी भी प्रकार नहीं है वैसे ही जीवके द्वारा पुद्गल का करना किसी भी प्रकार नहीं होता, अतः जीव पुद्गलका कर्ता कभी नहीं होता, क्योकि अपने भावसे परका भाव किया ही नहीं ना सकता।
७०-वस्तुकी प्रकृतिके कारण प्रत्येक वस्तु मात्र अपने ही परिणमनका कर्ता होता और भोक्ता होता है । जैसे कि किसी भी व्यापार में रहने वाला कुम्हार मात्र अपने ही परिणमनका कर्ता होता और भोक्ता होता है।
७१-जैसे कि हवाके चलने के निमित्तसे समुद्र तरङ्गित हो जाता है और हवा न चलनेके निमित्तसे समुद्र निस्तरङ्ग हो जाता है। ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध होनेपर भी हवा व समुद्र में व्याप्यव्यापक भाव नहीं है, याने समुद्र में न हत्रा व्याप्य है और न हवामें समुद्र व्याप्य है अथवा समुद्र हवाके स्वरूपको ग्रहण नहीं करता और न हवा समुद्रके स्वरूपको ग्रहण करती है। फिर हवा व समुद्र में कर्ताकर्म भाव कैसे हो सकता है । इस प्रकार कर्मके उदयके सद्भावको निमित्त पाकर जीव संसारी होता है और कर्मके उदयके असद्भावको अर्थात् कर्मके अभावको निमित्त पाकर जीव मुक्त होता है, तो भी जीवका कर्मके साथ व्याप्य
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सहजानन्दशास्त्रमालायां
व्यापक सम्बन्ध नहीं है याने जीव में न कर्म व्याप्य है और कर्म में न जीव व्याप्य है । फिर जीव व कर्ममें कर्नाकर्मभाव कैसे हो सकता है।
७२ - जैसे समुद्र की तरङ्गवाली अवस्था में समुद्र ही अन्तर्व्यापक है, वहां समुद्र ही निश्चयसे अपने आपको तरङ्गवाला कर रहा है। उसी प्रकार जीव की संसार अवस्था में जीव ही अन्तर्व्यापक है, वहां जीव ही निश्चयसे अपने आपको संसारी कर रहा है ।
७३ - तथैव जैसे समुद्र और हवा जुदे जुदे पदार्थ होनेसे इनमें भाव्यभावक भाव सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का अनुभवन नहीं कर सकता । अतएव समुद्रको सतरङ्ग अवस्थाका हवा भोक्ता नहीं है अथवा हवाकी अवस्थाका समुद्र भोक्ता नहीं है । इसी प्रकार जीव और पुद्गलकर्म जुदे जुदे पदार्थ होने से इनमें भाव्यभावक भाव सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थका अनुभवन नहीं कर सकता | अतएव जीव की संसारावस्थाका कर्म भोक्ता नहीं है व कर्मी उदयादि अवस्थाका जीव भोक्ता नहीं है ।
७४ - जैसे समुद्रकी सतरङ्ग व निस्तन अवस्थाका अनुभवन समुद्र में ही है, अतः समुद्र ही अपने आपको वहां सतरङ्ग श्रथवा निस्तरङ्ग 'अवस्थामय अनुभवता हुआ याने वर्तना हुआ अपने को ही भोगता है, अनुभवता है । ऐसा भी भेद दृष्टि में प्रतीत होता है। वैसे ही जीवकी ससंसार व निःसंसार अवस्थाका अनुभवन जीवमे ही है, अतः जीव ही अपने आपको वहां ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थामय अनुभवता हुआ, वर्तना हुआ अपनेको भोक्ता है। ऐसा भी भेददृष्टि में प्रतीत होता है । अन्यको तो कोई अनुभवता ही नहीं है ।
७५ - प्रश्न - यदि एक द्रव्यकी दूसरे द्रव्यके साथ कुछ भी बात नहीं है तो समुद्रकी चर्चा हवाके साथ क्यों दिखाई अथवा जीव की चर्चा कर्मके साथ क्यों दिखाई ? उत्तर- जैसे मिट्टी ही कलशमें व्यापक है, अतः निश्चयतः कलश मिट्टी के द्वारा ही किया गया है और मिट्टीके ही द्वारा गया है। तो भी इनमें निमित्तनैमित्तिकभाव भी तो है अथवा
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थक कर्माधिकारः
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हा व्याप्यव्यापकभाव भी तो है याने कलशकी उत्पत्ति के अनुकूल व्यापारका करने वाला कुम्हार है और क्लशके उपयोगसे संतोषको अनुभवने वाला कुम्हार है। इस व्यावहारिक वातको देखकर यह प्रसिद्ध हुआ है कि कुम्हार कलशको करता है व भोगता है । इसी प्रकार जीव ही अपने विकल्प आदि परिणाममे व्यापक है, अतः निश्चयतः जीवका परिणाम जीवके द्वारा किया गया है और जीवके द्वारा ही अनुभवा गया है । तो भी इनमें निमित्तनैमित्तिक भाव भी तो है अथवा वाह्य व्याप्यव्यापक भाव भी तो है याने पुद्गल कर्मकी उत्पत्ति के अनुकूल परिणाम का करने वाला जीव है और पुद्गल कर्मके विपाकसे हुए सुख दुःख परिणामको भोगने वाला जीव है । इस व्यावहारिक वातको देखकर यह प्रसिद्ध हुआ कि जीव पुद्गल कर्मको करता है व भोगता है ।
७६ - अथवा, जैसे मिट्टी के आश्रय विना कुम्हारका व्यापार वहां नहीं है और कुम्हारकी तृप्ति में भी वह निमित्त आश्रय अथवा विषय पड़ा है, अतः व्यवहार से कहा जाता है कि मिट्टी कलशने कुम्हारका व्यापार कराया व कुम्हारको तृप्त कराया। वैसे ही कर्मके विपाक विना जीवमें विभाव नहीं हुआ और सुख दुःखका अनुभव भी नहीं हुआ, अतः व्यवहारसे कहा जाता है कि कर्मने जीवका भाव बनाया और सुख दुःख को भुगाया । किन्तु, वास्तव में (वस्तुत्वमे) वात ऐसी नहीं है । -यदि जीव पुद्गल कर्मको करे अथवा भोगे तो यह आपत्ति बन जावेगी कि एक द्रव्यने दो द्रव्यकी क्रिया कर दी। किन्तु ऐसा कभी भी नहीं होता और न ऐसा भगवानने निर्दिष्ट किया है । जैसे कुम्हार तो अपना ही व्यापार करता है और अपना ही परिणाम भोगता है, क्यों ! कुम्हारका परिगमन कुम्हारके परिणामसे अभिन्न है और कुम्हारका परिणाम कुम्हारसे अभिन्न है, अतः कुम्हार मात्र अपने परिणमनको ही कर सकता है व भोग सकता है, कलशके परिणमनको नहीं, क्योंकि वह अन्य द्रव्य है । इसी प्रकार आत्माकी क्रिया आत्मा के परिणामसे अभिन्न है और आत्माका परिणाम आत्मासे अभिन्न है, अतः आत्मा मात्र
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(२८) सहजानन्दशास्त्रमालायां अपना ही परिणमन कर सकता है व भोग सकता है। यदि कोई ऐसा देखे कि अन्य द्रव्यने अपनी भी क्रिया की व और अन्य द्रव्यकी क्रिया कर दी, तो वह मिथ्याहाष्ट है अर्थात् परस्पर सम्बन्ध माननेकी दृष्टि वाला है । मिथका अर्थ एक दूसरेका सम्बन्ध हैं।
-प्रत्येक द्रव्यको क्रिया केवल उस एकमें ही समवेन है। कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्यकी क्रिया कर देता है । यदि ऐसा माना जावे तो उमका रहस्य यह वन जायगा कि एक द्रव्य अपनी क्रियामें भी समवेत है और दूसरे की क्रियामें भी समवेत है। इस तरह तो स्व व परका भेद भी खतम हो जायगा। जैसे कुम्हार अपनी क्रिया (परिणमन) करे और मिट्टीकी क्रिया (परिणमन) करे तो दो क्रिया समवेत होनेसे अव क्या निश्चय है कि यह कुम्हार है कि मिट्टी है । परिणाम यह होगा कि दोनों का अभाव हो जावेगा । इमी नरह श्रात्मासे देखो-आत्मा अपनी क्रिया तो करता ही है, यदि पुद्गलकी भी क्रिया करे तो आत्मा अपनी क्रियामें भी समवेत हुआ और परकी क्रियामें भी समवेत हुआ, अव यह क्या निश्चय हो कि यह आत्मा है या पुद्गल है । परिणाम यह होगा कि दोनों का अभाव हो जायगा।
७६-अनेक पर्दार्थोको सम्बन्ध रूपमें देखनेकी दृष्टि अभृतार्थ है व अहितकर है । इसलिये एक द्रव्यके द्वारा दो या अनेक द्रव्योंका परिणमन किया जाता है। ऐसा कभी मत प्रतीतिमें आवे । जैसे जो कि कलशकी उत्पत्तिके अनुकूल अपनी क्रिया कर रहा है, वह कुम्हार अपनेसे अभिन्न क्रिया (परिणनि) द्वारा अपनेसे अभिन्न परिणाम (व्यापार) को करता है, ऐसा ही प्रतीत होता है, किन्तु वह कुम्हार मिट्टीसे अभिन्न परिणतिके द्वारा मिट्टीसे अभिन्न परिणामको कर रहा है, यह प्रतीत नहीं होना । इसी प्रकार जैसे परिणामको निमित्तमात्र पाकर पुद्गल कर्म बंधता है, वैसे अपने परिणामको करता हुश्रा जीव अपनेसे अभिन्न
तके द्वारा अपनेसे अभिन्न परिणामको करता है, यही प्रतीत होओ मात्मा पुद्गलसे अभिन्न क्रियाके द्वारा पुद्गलसे अभिन्न
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श्रय तु कर्माविकारः
परिणाम करना है, यह प्रतीत मन हो ।
- जैसे कुन्दारके व्यापाररूप कुन्दार ही परिणानना है, छः इस व्यापारका कुन्दार ही कर्ता है और वही तो परिणाम है वह कुम्हार का कर्म है और वृन्दारकी जो परिणानि है वह कुम्हारकी क्रिया है। इस कारण कुम्हार विषयक कर्ता, कर्मः क्रिया ये तीनों वास्तव में मिन्न नहीं है | वैसे ही आत्मा अपने पर्याय परिणमना है, अतः उस पर्यायका काही कर्ता है और वही जो परियान वह आत्माका कर्म है और श्रात्माकी जो परिशनि है वह आत्माकी क्रिया है । आत्म विषयक यह व क्रिया ये तीनों वास्तवमें मिन्न नहीं हैं ।
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( २ )
=१-प्रत्येक पदार्थ केवल ला ही तो उस रूप परिणमना है, वह परिणाम उस एकका ही होना है. वह परिणति उस एककी ही होती है, सो ये तीनों प्रतीति मेदमें तो जुड़े हों तो भी एक ही हैं । जैसे कुम्हार के व्यापार रूप कुन्दार ही वो अकेला परिणमना है, वह उस केले कुन्दार काही तो है व वह क्रिया भी इस अकेले इन्दारकी ही तो है । कहनेको कर्तृत्वादि अनेक हैं, किन्तु वास्तवमें एक ही हैं। वैसे ही आत्मा के पर्याय रूप केवल वह आत्मा ही तो परिणमना है, वह परिणाम भी उस आत्मा कालेका होटो है, वह परिणति भी इस अकेले आत्माकी हो तो है । प्रनीनि भेइसे यद्यपि कर्तृत्व, कर्म व क्रिया चे अनेक हैं तो मी वास्तव में एक ही तो हैं |
1
२- किसी एक पर्यायरूप हो या अनेक द्रव्य नहीं परिणमते, एक परिणाम दो या अनेक द्रव्योंका नहीं होता, एक परिणति दो या अनेक द्रव्योंत्री नहीं होती । द्रव्य तत्र अनेक हैं तो वे सब भी अनेक दी हैं। जैसे घट पर्यायरूप कुन्दार व मिट्टी दोनों नहीं परिणमवी, घट पर्यायरूप कर्म उन दोनोंका नहीं है, वह परिणति रूप क्रिया इन दोनों क्योंकी नहीं है। वैसे ही यहां भी देखो, ज्ञानावरणादि कर्म पर्यायरूप आत्मा व पुद्गल दोनों नहीं परिणमते, वह पर्यायरूप कर्म दोनोंका नहीं है, कर्मपरिणति दोनोंकी नहीं है । श्रथवा इस ओर देखो, जीवके विभाव पर्याय
„
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(३०)
सहजानन्दशास्त्रमालायां रूप जीव व कर्म ये दो पदार्थ नहीं परिणमते हैं, वह परिणाम दो का नहीं है, वह परिणति दो की नहीं है।
३-एक पर्यायके दो द्रव्य कर्ता नहीं होते, एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते, एक दून्यकी दो क्रियायें नहीं होती, क्योंकि एक अनेक नहीं हो सकता। जैसे घट पर्यायके कुम्हार व मिट्टी दो कर्ता नहीं हैं, कुम्हारके या मिट्टीके दो कर्म नहीं हैं, कुम्हार या मिट्टीकी दो क्रियायें नहीं हैं। वैसे ही जीव परिणाम के जीव व पुद्गल कर्म दो कर्ता नहीं हैं, जीव या पुद्गल कर्मके दो कर्म नहीं हैं, जीव या पुद्गल कर्मको दो क्रियायें नहीं हैं। फिर एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य के साथ कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । तो फिर प्रात्मा व पुद्गलकर्म इन दोनों में भी कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है।
८४-"परद्रव्यको मैं कर्ता हूँ" यह अहङ्कार जीवपर अनादिसे छाया है यही महान् अन्धकार है यह मिटे नो इस ज्ञानधन मात्माका पन्धन न हो। जैसे कि अन्धकार मिटे तो चोरोंके द्वारा उपद्रवका भय नहीं होता।
वास्तविक वान तो यह है कि आत्मा तो आत्माके भावको करता है, अन्य परद्रव्य उस ही परके भावोंको करता है । श्रात्माके भाव आत्मा ही हैं, परके भाव पर ही है, इस प्रतीतिको दृढ़ करो।
८५-प्रश्न-निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध होनेसे जीव व फर्ममें परस्पर कुछ नो अपनायत होती ही होगी? उत्तर-नहीं, क्योंकि वस्तुस्वभाव ही ऐसा है कि कोई द्रव्य किसी द्रव्यका गुण, पर्याय, प्रभाव आदि प्रहण नहीं करता । हा निमित्तनैमित्तिक सम्वन्ध अवश्य है । सो यह उपादानकी योग्यतापर निर्भर है, कि वह कैसे शक्ति पर्याय वाले पदार्थको निमित्तमात्र पाकर अनुरूप किस परिणमनसे परिणम जाय । जैसे एक दर्पण है, उसमें प्रतिविम्ब रूपसे परिणमनेकी योग्यता है, वह जव सामने मयूरकी सन्निधि पाता है, तो उसके अनुरूप नीला, हरा, काला, पीला आदि रूपसे रेशम जाता है । जो यह परिणमन है, उसे मयूरप्रतिविम्ब वोलते हैं।
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अथ कर्तृकर्माधिकारः (३१) मयूरप्रतिविम्ब दर्पणकी स्वच्छताका विकार मात्र है । वह तो दर्पण है, दर्पणकी ही अध्रुव, औपाधिक परिणति है और मयूर मयूर ही है, उसका परिणमन मात्र मयूर में ही है। मयूरका न तो दर्पण या दर्पण परिणमन है और दर्पणका न मयूर या मयूर परिणमन है। इसी प्रकार जीव है, उसमें रागद्वेषादि विभावरूपसे परिणमनेकी शक्ति है, सो इस योग्य पर्याय शक्ति वाला जीव रागप्रकृतिक द्वेषप्रकृतिक कर्मक उदयको निमित्तमात्र पाता है, तब राग द्वेपादि विभावरूपसे परिणम जाता है। जो यह विभाव परिणमन है, वह चैतन्यका विकारमात्र है, वह तो जीव है, जीवकी ही अध्रुव, औपाधिक परिणति है और कर्म अजीव (पुद्गल) ही है, उसका परिणमन मात्र उस कार्माणवर्गणामें ही है । जीवका न तो कार्माणवर्गणा या कर्म परिणमन है और कर्मका न नीव या जीव परिणमन है।
ई-जैसे दर्पण प्रतिविम्बके प्रसङ्गमें मयूरको तो मयूर कहते ही हैं, मयूर प्रतिविम्वको भी मयूर कहते हैं, सो वह तो मयूर मयूर है, यह दर्पणमयूर है, इसी तरह मिथ्यात्व क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप मोह रागद्वेषादि परिणमनके प्रसङ्गमे जीव परिणमनके नाम भी मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि हैं और जिन कर्म प्रकृतियोंको निमित्त पाकर वह राग द्वेप आदि हुआ, उन कर्मप्रकृतियों के नाम भी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि हैं । सो कर्म क्रोध है, वह तो अजीव क्रोध आदि है
और जो जीव परिणमनमें क्रोध आदि है वह जीव क्रोध आदि है। ये दोनों पृथक् पृथक् हैं, इनमें वर्तकर्मभाव नहीं है।
८७-जैसे जो दर्पणमयूर है वह चलने फिरने खाने वाले तिर्यश्च मयूरसे जुदा ही है और यह तिर्थञ्च मयूर दर्पणमयूरसे जुदा ही है, इसी प्रकार मिथ्यात्व, राग, द्वेष, आदि जो विभाव है वह मूर्त पुद्गल कर्म परिणामसे जुदा ही है और जो मोह, क्रोध आदि नामक पुद्गल कर्म है, वह अमूर्त चैतन्य परिणामसे जुदा ही है। इनमेंसे कोई किसी अन्यके स्वरूपमें प्रविष्ट नहीं है । फिर कर्तकर्मभाव इनमें परस्पर कैसे हो सकता
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(३२) सहजानन्दशास्त्रमालायां है। वास्तवमें ककर्मभाव एक ही पदार्थमें प्रतीतिवश सिद्ध होता है।
-जैसे दर्पण निमित्त सन्निधि मिटने पर अपने स्वच्छता रूप है और निमित्त मिलने पर फिर दर्पण प्रतिविम्ब रूपसे परिणम नाता है, ऐसा जीवमें मूलसे नहीं है। याने जीव एक वार विलकुल स्वच्छ परिणमनसे परिणम कर पुनः विभावरूप नहीं परिणमता। हाँ नब तक विभान पर्याय योग्यता है, तब तक यह होता है कि क्रोध प्रकृति निमित्त न होनेपर क्रोधरूप न परिणमा किसी अन्यरूप परिगामा और क्रोध प्रकृति निमित्त मिलने पर फिर क्रोध प्रतिविम्वरूप परिणम गया।
E-प्रश्न-चैतन्य परिणाममें मिथ्यादर्शनादि विकार कैसे हो गया ? उत्तर-प्रत्येक वस्तुमें यह स्वभाव पड़ा है कि उसमें जितनी शक्तियाँ हैं, उन सब शक्तियोंरूप परिणम सके । जीवमे भी यही बात है। जीवकी अनन्त शक्तियोमे एक शक्ति वैभाविकी भी है और अनादिकालसे जीवके साथ अन्य पदार्थ कर्म भी साथ है, अतः मिथ्यात्व, क्रोध आदि नामक कर्मप्रकृतियों के उदय काल में यह मलिन जीव भी मिथ्यात्व, क्रोध आदि विकार रूप परिणम जाता है। जैसे स्फटिकमें अन्य योग्य पदार्थको निमित्त पाकर उस अनुरूप रूपसे परिणमनेकी शक्ति है, सो पीला, हरा
आदि रूप सुवर्ण, पत्ता आदिके आश्रय सहित होनेपर स्फटिकमें भी हरा, पीला श्रादि विकार हो जाता है।
६०-ऐसा होनेपर भी कहीं अन्य पदार्थ अन्य पदार्थके परिणाम का कर्ता नहीं हो जाता । जैसे पत्ताकी डाक होनेपर भी स्फटिकमें नो हरी छायामें रूप है उसका कर्ता हाक नहीं, क्योंकि वह परिणमन स्फटिककी अर्थनियासे है, पत्ताकी अर्थक्रियासे नहीं। इसी प्रकार फर्मोदय होनेपर जीवमें जो मिथ्यात्व, क्रोध आदि विभाव है, उसका कर्ता कर्म नहीं है, क्योंकि वह परिणमन जीवकी अर्थक्रिया है, कर्मकी अर्थक्रियासे नहीं।
____६१-जिज्ञासा-मालूम तो ऐसा होता है कि जीवमें क्रोध आदि विकार नहीं है, कर्मके हैं अथवा किसीके नहीं हैं, केवल भ्रमवश ऐसा मालूम पड़ता है कि जीवके हैं, जैसे कि स्वच्छ सफेद स्फटिक हरा नहीं
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अथ कत कर्माधिकारः
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हो जाता है, किन्तु डाकके सन्वन्धसे ऐसा लगता है कि स्फटिक हरा हो गया है। समाधान-स्फटिक डाकके अनुरूप छाया रूपमें परिणम जाता है । उस समय, जैसे कि दर्पण छाया रूपमं परिणम जाता है। इसी प्रकार जीव भी क्रोध आदि रूपमें परिणम जाता है । उस समय, भ्रम तो ,इसलिये जचता कि वह औपाधिक है, आत्माका सहज स्वभाव नहीं।
१२-प्रश्न-स्फटिकमे तो स्वच्छता ही है, उसमें से देखते तव रंगवाला डाक दीखता है; स्फटिकमे उस रंगरूप परिणमन तो नहीं है? उत्तर-स्फटिकमें दर्पणकी तरह मसाला लिया हुआ नहीं है। इसलिये विना मसाला लिये हुए कांच में जैसा विम्ब रूप परिणमन होता है, प्रायः उसी भांति स्फटिकमें विम्वरूप परिणमन होता है । जैसे कांच पारदर्शी है, वैसे स्फटिक भी पारदर्शी है, अत: जो विशेष गहरा रंगवाला, कुछ दीखता है, वह डाक है । इसी प्रकार क्रोध प्रकृतिके उदयको निमित्तमात्र पाकर जीव क्रोधरूप परिणमन करता है । भेदविवक्षासे देखो तो चारित्र - गुणके विकाररूप परिणमन होना है। जैसे कि स्फटिकमे भेद विवक्षासे देखो तो रूप गुणके परिणमनसे यह परिणमन है छाया विम्बरूप । चैनन्य भाव उभयतः पारदर्शी है, याने निमित्तभूत जिस प्रकृतिके साथ क्रोधादि विकारका अन्वयन्यांतरेक है, उस और देखे अपने में से पार होकर तो जचता है कि कर्मका विकार है और विभावमें रहकर भी विभावके पार चैतन्य स्वभावको देखे तो जचता है यहाँ विकार ही नहीं। फिर विकारकी चर्चा करे तो वहां वह भ्रम प्रतीत होता है अथवा कर्मका विकार प्रतीत होता है।
___१३-निश्चयतः जीव जिम जिस विकारसे परिणम कर जिस जिस भावको करता है, वह उस उस परिणामका कर्ता है। यद्यपि यह जीव स्वभावतः शुद्ध और निर्लेप है अतएव एक ही प्रकारका है, फिर भी पस्त्वन्तर भूत कर्मसे युक्त होनेके कारण अशुद्ध, सलेप है अतएव च नाना प्रकार परिणम कर नानारूप हो जाता है। जैसे स्फटिक जिस जिस रंगसे परिणम कर जिस जिस स्वरूपको करता है, वह स्फटिक निश्चयतः
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(३४) सहजानन्दशास्त्रमालायां उस उस परिणमनका कर्ता है। यद्यपि स्फटिक स्वभावतः स्वच्छ है, शुद्ध है, निलेप है अतएव एक ही प्रकारका है, फिर भी वस्त्वन्तरभूत डाकसे युक्त होनेके कारण अस्वच्छ, अशुद्ध, सलेप है अतएव च नानाप्रकार परिणम कर नानारूप हो जाना है।
१४-इस प्रकार यह आत्मा नाना विभावरूप अपने परिणाम विकारको करता है, तभी कार्माणवर्गणारूप पुद्गल द्रव्य स्वयं मोहनीय
आदि कर्मरूपसे स्वतः ही परिणम जाता है। जैसे कि कोई मन्त्रप्रयोगी पुरुष सर्पविष दूर करता है, उस जगह होता क्या है कि विपापहार मन्त्रप्रयोगी पुरुष तो उस प्रकारके ध्यान भावसे परिणमता है, सो वास्तवमें वह तो ध्यानका ही कर्ता है । उस समय ध्यान भावको निमित्तमात्र पाकर मन्त्रवादीकी परिणति ग्रहण किये बिना ही सर्पविप स्वयं दूर हो जाता है।
६५-तथा जैसे विडम्बक मन्त्रप्रयोगी पुरुष तो उस प्रकारके ध्यान भावसे परिणमता है, सो वह तो वास्तत्रमे ध्यान भावका ही फर्ना है। उस समय ध्यान भावको निमित्तमात्र पाकर मन्त्रवादीकी परिणति ग्रहण किये बिना ही स्वयं स्त्रियाँ विडम्बनाको प्राप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार कपायित जीव तो कपाय भावसे परिणमता है, मो वह तो पास्तवमें कषाय परिणामका ही कर्ता है। उस समय कपायभावको निमित्तमात्र पाकर जीवकी परिणति ग्रहण किये बिना ही कार्माणवर्गणामय पुद्गल द्रव्य मोहनीयादि कर्मरूपसे स्वयं परिणम जाते हैं। ___ -तथा जैसे साधक तो उस प्रकारका ध्यानभाव ही करता है, उसके ध्यान भावको निमित्त पाकर बन्धन साधकको परिणति लिये विना ही स्वयं ही ध्वस्त हो जाते हैं, इसी प्रकार जीव तो अज्ञानसे. मिथ्यादर्शनादि भावरूपसे परिणमता हुआ, मिथ्यादर्शनादिभावका ही कर्ता है, उसके मिथ्यादर्शनादिभावको निमित्तमात्र पाकर पुद्गल द्रव्य कर्मरूपसे रवयं ही परिणम जाता है अथवा साधक तो मात्र अपने शुद्ध रवभाव । करता है उसको निमित्तमात्र पाकर मोहनीयादि कर्म बन्धन
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अथ कर्तृकर्माधिकारः (३५ ) स्वयं ही ध्वस्त हो जाते हैं । वस्तुतः कोई भी द्रव्य किसी भी अन्य द्रव्यके . सुध र अथवा विनाशका कर्ता नहीं है।
१७-कर्मवन्धन होनेका मूल निमित्त कारण अज्ञान ही है। जैसे कोई प्राणी ठंडे पानीके स्पर्शसे अज्ञानसे अपनेको ठंडा अनुभव करता है । यद्यपि वह ठंडापन पुद्गलमे ही है, जीवसे वह अत्यन्त भिन्न है, जीव शीतरूप कभी हो हो नहीं सकता. तो भी अज्ञानसे परमें व निजमें भेदविज्ञान न करनेसे मैं ठंडा हो गया हूँ, ऐसा अनुभव करने लगता है। इसी प्रकार अज्ञानी जीव राग द्वाप आदि प्रकृतिरूप पुद्गलके परिणमनको अनानसे आत्मरूप अनुभव करता है । यद्यपि वह प्रकृतिपना पुद्गलमें ही है, जीवसे वह अत्यन्त भिन्न है, जीव प्रकृतिरूप कभी हो ही नहीं सकता, तो भी अज्ञानसे परमें व निजमें भेद विज्ञान न करनेसे में इस रागद्वे पादि प्रकृतिरूप हो गया हूँ, ऐसा अनुभव करने लगता है अथवा राग पादि विभाव जो कि पुद्गलके परिणामस्वरूप (फलस्वरूप) अवस्था है, उसको अज्ञानसे यह अज्ञानी जीव आत्मरूप अनुभव करता है। यद्यपि ये रागद्वेषादि विभाव औपाधिक है, पुद्गल कर्मारोपित विकार हैं, जीवके शुद्ध (निरपेक्ष) स्वरूपसे अत्यन्त भिन्न हैं, जीवका निरपेक्ष स्वभाव परारापित विकाररूप कमी नहीं हो सकता है, तो भी अज्ञानसे परभाव व निज स्वभावमे भेदविज्ञान न होनेसे अज्ञानी जीव अपने स्वभावको रागद्वपादि विकाररूप ही अनुभव करता है । तब ऐसे अज्ञान भावका निमित्त पाकर कर्मवन्धन हो जाता है । इस प्रकार कर्मवन्धनका मूल निमित्त कारण अज्ञान ही है । अज्ञानसे जीव कर्मका कर्ता प्रतिभात होता है।
-ज्ञानसे नीव कर्मका अकर्ता होता है, ज्ञान होनेपर कर्मका बन्ध रुक जाता है । जैसे कि कोई प्राणी ठंडे पानीके संयोगमें भी अपना विवेकवल सही रखे और जाने कि यहां शीत स्पर्श तो पानी में ही है, वह तो पुद्गल परिणामको अवस्था है, सो वह उस पुद्गल स्कन्ध (पानी) से अभिन्न है, आत्मासे तो अत्यन्त भिन्न है। हां उस स्कन्ध संयोगको
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(३६) सहजानन्दशास्त्रमालायां निमित्तमात्र करके आत्मा ठंडेपनका अनुभव करे सो यहाँ यह ज्ञान तो उस कालमें आत्मासे अभिन्न है, सो यह अनुभव पुद्गलसे अत्यन्त भिन्न है । ऐसा विवेकवल होनेसे वह प्राणी अपनेको शीतरूप अनुभव नहीं करता है । इसी प्रकार ज्ञानी आत्मा देह व पुद्गल कर्मके संयोग कालमें भी अपना विवेकवल सही रखता और जानता है कि यह तो पुद्गलकी अवस्था है, सो पुद्गलमें ही है, आत्मासे तो अत्यन्न भिन्न है। हां उस स्कन्धकी विशिष्ट अवस्थाको निमित्तमात्र पाकर आत्मामें जो विभावका अनुभव हुआ है, वह उस कालसे आत्मासे अभिन्न है और पुद्गलसे तो अत्यन्त भिन्न ही है। ऐसा विवेकवल होनेसे आत्मा किञ्चित् भी अज्ञान रूपसे नहीं परिणमता है, ज्ञानमय निज आत्माके ज्ञानपनेको ही प्रक्ट करता है । इस प्रकार वह ज्ञानी जीव समस्त पर पदार्थोका अकर्ता तो है ही; साथ ही रागादि विभावको भी परभाव जानता है, अपनेको ज्ञानरूप. अनुभव करता है, अतः रागादि कर्मका भी अकर्ता हो जाता है।
___EE-अज्ञानसे कर्म किस प्रकार आते हैं ? इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे लाल मसालेका जिसमें संयोग है, ऐसा मलिन काच (दर्पण) सम्मुख हुए डाकके अनुरूप अपना परिणमन कर लेता है, उस परिणमनको विशेष व्यक्त करता है, उसको अपना लेता. है याने ऐसा अपना लेता है कि अन्य पदार्थ जो इस ढाकके पीछे हो, उनके छायारूप भी अपनेको नहीं बना पाता है और न अपना स्वच्छ भाव भी उस समय प्रकट कर पाता है । इसी प्रकार यह लोब जो कि अज्ञानरूप है, परपदार्थ व निज आत्माको एक रूपसे श्रद्धामें लेता है, याने इन्हें जुदे जुदं सत्तावानके रूपमें विश्वास नहीं कर पाता है, पर पदार्थ व निज आत्माको अविशेष रूपसे जानता है व इनमें अविशेष रूपसे वृत्ति करता है। इसी कारण अपनेको "मैं राग हूँ, मैं क्रोध हूँ" इत्यादि रूपसे अनुभव करता है । तब इस परिणामसे परिणमना हुआ जीव इस विकारका कर्ता हुआ। इस विभावको निमित्तमान पाकर पुद्गल कर्म स्वयं बन्ध अवस्थाको प्राप्त
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थक कर्माधिकारः
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इसी प्रकार जो ज्ञेयविकल्प होते हैं, उनमें व निज ध्रुव स्वरूपमें अन्तर न समझने से उन ज्ञयविकल्पों को भी कर्ता हो जाता है ।
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१००- -जैसे कि मुझमें भूत प्रावष्ट हो गया है, इस ध्यानसे जो बिड़ा हुआ है, वह पुरुष अज्ञानसे भून और श्रात्माको (अपनेको) एकमेक # मान्यता में कर देता है । अतः जो मनुष्यको अनुचित है, ऐसे अमानुषव्यवहारका कर्ता हो जाता है । इसी प्रकार मैं क्रोध हूँ, इस प्रकार परभाव को जो अपना लेना है व मैं पर ज्ञयरूप हूँ. इस प्रकार पर पदार्थको अपना लेना है, वह अज्ञान से विकार रूप परिणामसे परिणमकर विकारभावका : कर्ना होता है ।
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१०१ - जैसे किसी अज्ञानी गुरुके आदेश से किसी शिष्यने ऐसा · ध्यान जमा लिया कि मैं महिपा (भैंसा) हूं और ऐसा भैंसा हूँ, जिसके सींग एक एक गनके हैं। बस इस वासनासे भैंमा व आत्माको (अपनेको) एकमेक मान्यता में करता हुआ वह "अब इस दरवाजेसे कैसे निकलू" इत्यादि संक्लिष्ट भावोंका कर्ता हो जाता है। इसी प्रकार ज्ञेय पदार्थ व निज आत्म तत्त्वको एकमेक करता हुआ अज्ञानी जीव भी इन्द्रियजविषयसम्बन्धिविकल्पोंसे तिरस्कृत होकर ज्ञयविकल्प ही मैं हूँ, ऐसे भावका कर्ता हो जाता है । यह सब कर्तृत्वबुद्धि अज्ञानी की महिमा है ।
१०२ - यदि इस ही प्रकारका तथ्य ज्ञात हो जाय तो वह जीव अकर्ता हो जाता है । कर्ता तो जीव अज्ञान भावमें ही होता है । जैसे कि हाथी तृण और मिठाई दोनों भोजन रक्खे हों, तो भी मिलित स्वादुके स्वादन की प्रकृति से उनमें भेद विज्ञान न कर दोनों को एक साथ खा लेता है । इसी प्रकार अज्ञानी नीव भी स्वभाव व परभाव में भेदविज्ञान न करके दोनोंको एकमेक करता हुआ मिलित स्वादका स्वादन करता है, अच भेदविज्ञानकी शक्ति मुद्र जानेके कारण विभावमात्र अपनेको अनुभव करता है ।
१०३ -- यह जीव अज्ञानवश ज्ञान व ज्ञेयमें भेद नहीं कर पाता अतः ज्ञयज्ञायक सम्वन्धवश होने वाले प्रवाह में वह कर ऩयकी और
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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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आकर्षित होता है । जैसे कि कोई शिखरिन (दही मीठा मिला हुआ पेय) को पीकर उस स्वादकी गृद्धता से स्वादभेद न करके गायोंको दुहने लगता अथवा दूध पीने लगता है ।
१०४ - जैसे कि कोई प्यासा हरिण रेतीली नदीमें दूरकी रेवको पानी समझकर दौड़ लगाता है, उसके समीप पहुंचने पर प्यास चुकनेका तो काम कोई है नहीं, सो आगे फिर देखता है, सो दूरकी रेनका पानी सममकर फिर दौड़ लगाता है, इस पद्धतिमे वह दुःखी हो रहता है । यह क्लेश तभी तक रहता है, जब तक कि वह रेनको रेत नहीं समझ पाता है । इसी प्रकार अज्ञानी प्राणी इन्द्रियविषयभूत ज्ञेय पदार्थोंको अथवा विकल्पों को हितकारी समझकर उनकी ओर श्रार्पित होता है । उसके समी, पहुँचने पर आकुलता दूर होनेका तो काम कोई है ही नहीं, सो भावी विषयोंकी आशा करके फिर उनकी ओर आकर्षित होता । इस पद्धति में यह अज्ञानी जीव दुःखी ही रहता है। यह क्लेश तब तक रहना है जब तव यथार्थ वस्तुज्ञान नहीं कर पाता ।
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१०५ - जैसे कोई मनुष्य अज्ञानसे रस्सीमें सांपका भ्रम कर लेवे तो वह इस भ्रमके कारण उस साधारण अन्धेरीमें ही दौड़ भाग व भय करता है । इसी प्रकार अज्ञानी जन भी ज्ञमपदार्थोंको आत्मा मान अथवा विकल्पोंको आत्मा मानकर नाना सकल्पविकल्प बढ़ाता रहता है ।
१०६-- यद्यपि यह धात्मा शुद्ध ज्ञानमय है, तो भी जैसे वायुसे प्रेरित होकर समुद्र उछलती हुई तरंगो वाला हो जाता है, इसी प्रकार कर्मविपाकवश हुए अज्ञान से प्रेरित होकर यह अज्ञानी जीव नाना विकल्पों वाला होता है, प्राकुलिन होता है। इस प्रकार यह अज्ञानी जीव उन कर्मो का कर्ता होता है ।
१०७-- यह कर्तृत्व तब तक ही रहता है जब तक निन व परमें भेदज्ञान नहीं कर पाता है । और, जब जैसे कि हंस पानी व दूधके विवेक कर देता है, इसी भांति यह आत्मा निज व पर पदार्थके विशेषको
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जान लेता है; उसी समय वह परकी उन्मुखतासे हटकर स्वरसतः निज चैतन्यमात्र वस्तुका अवलम्वन कर लेता है और वह तन मात्र जानता ही है, करता कुछ नहीं है । अथवा वह ज्ञानक्रियाका ही कर्ता होना है ।
१०८ - जैसे कि आग गर्म है, पानी ठंढा है, ऐसी व्यवस्था करने वाला कौन है ? ज्ञान | इसी प्रकार देह व कर्म अचेतन हैं, आत्मा चेतन है, ऐसी व्यवस्था करने वाला कौन ? ज्ञान । अथवा जैसे अग्नि सम्बन्ध को निमित्त पाकर गर्म हुए जल में यह समझकर लेना कि यह गर्मी तो है औपाधिक, संयागज और यह शीतस्वभाव पानीका स्वरस है, ऐसी व्यवस्था करने वाला कौन ? ज्ञान । इसी प्रकार औपाधिक भाव क्रोधादिक स्वभावानुरूप विकास ज्ञान इन दोनोंमें भेद है, इस प्रकारकी व्यवस्था करने वाला कौन है ? ज्ञान । इस ज्ञानभावका करने वाला क्रोधादिका कर्ता नहीं होता । यह इस ज्ञानीके बड़े ही चमत्कारकी बात है कि वह होते हुए क्रोधादिको भी जानता और निज ज्ञान विकासको जानता है और दोनोंको भिन्न भिन्न रूपसे ।
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१०६ - तथा जैसे नमक मिले हुए पकोड़ी आदि व्यञ्जनों में साधातथा ऐसा स्वाद आता है कि मानों व्यञ्जन ही खारा है, किन्तु उसमें |ह समझ वन जाय कि केवल व्यञ्जन तो जैसा है तैसा ही है और यह वारा नमक है, ऐसी व्यवस्था करने वाला कौन ? ज्ञान । इसी प्रकार इस प्रात्मामें कभी क्रोधादिक व ज्ञानविकास दोनों का उदय होता तो वहां नीजन तो भिन्न भिन्न स्वाद जानते हैं कि यह तो क्रोधादिक है और यह भाव है। इसकी व्यवस्था करने वाला कौन ? ज्ञान । श्रज्ञानसे ही यह जीव परको व परभावको अपनाता था। वहां भी परका तो कर्ता था ही हीं, उस विकल्पका ही कर्ता था । ज्ञानके उदित होनेपर अब उस विकल्प का भी कर्ता नहीं रहता । वास्तव में आत्मा स्वयं ज्ञानमय है, वह ज्ञानके अतिरिक्त क्या कर सकता । पर द्रव्यका या परभावका कर्ता आत्मा है, यह सोचना या कहना तो व्यवहारीजनोंका व्यामोहमात्र है ।
११० - जैसे कि कोई पुरुष अपने विचार व व्यापार से घटादि पर
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द्रव्यको कर देता है, यह प्रतिभास व्यामोह है। इसी प्रकार कोई आत्मा अपनी परिणतिसे कर्मको वदेहको कर देती है, ऐसा प्रतिमास : अपने स्वभावसे ही क्रोधादिको कर देता है, ऐसा प्रतिभास केवल व्यामो
१११-किन्तु उक्त वार्ता सत्य नहीं है, क्योंकि यदि आत्मा ... परिणतिसे क्रम नोकर्मको कर देता तो वह कर्म व नोकर्म चैतन्यमय माता । जैसे कि पुरुष अपने विचार व व्यापारसे मिट्टीको घटरूप देता तो वह घट पुरुष व्यापारमय हो जाता।
११२-कर्म व नोकर्मका कर्ता तो श्रात्मा निमित्तरूपसे भी नहीं। है । जैसे कि पुरुष घटका निमित्त रूपसे भी कर्ता नहीं है। पुरुरके उपयोग व व्यापारको तो घट निष्पत्निमें निमित्तं कह सकते हैं, किन्तु पुरुषको निमित्त नहीं कह सकते । इसी प्रकार कर्म, नोकर्मका पारा निमित्तरूपसे भी कर्ता नहीं है । श्रात्माके योग, उपयोगको कर्मवन्धादिमें निमित्त कह सकते हैं, किन्तु आत्मद्रव्यको निमित्त नहीं कह सकते। ये योग और उपयोग अनित्य हैं।
११३-ज्ञानी अपनेको ज्ञानमात्र अनुभव करता है। अतः ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता होता है । जैसे कि कोई डेरी फार्मका मालिक जहां दूध निकल रहा हो, दही जम रहा हो आदि कुछ व्यापार हो वहां वह अध्यक्ष उनमें कुछ करता नहीं है, क्योंकि दूध दही आदि पर्याय तो उस गोरसमें ही व्याप्त हैं । अध्यक्ष तो मात्र अपने आपमें अपना परिणमन करता हुआ देख रहा है । इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म होते हैं तो वे उन पौगलिक कार्माणवर्गणा स्कन्धोमें ही व्याप कर होते हैं, ज्ञानी तो अपने आपमें अपना परिणमन करता हुआ मात्र जानता ही है।
११३-तथा वह डेरी फार्मका अध्यक्ष किसी विरुद्ध हो रहे काम को भी जान लेता है, वह करता नहीं है । इसी तरह ज्ञानी भी राग, द्वेष आदि विरुद्ध कार्योको भी जानता ही है, करता नहीं है, क्योंकि उसे
व विकारका प्रखर भेदविज्ञान हो गया है।
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११५-जैसे कि कुम्हार मिट्टीमय घट में अपना कोई द्रव्य या गुण नहीं रख पाना ! उस घटमें तो मिट्टीका द्रव्य व मिट्टीका गुण ही स्वयं वर्नता है। अतः वह कुन्हार घटका कर्ता वास्तवमें है ही नहीं। इसी प्रकार आत्मा पुद्गलमय कर्ममें अपना कोई गुण या द्रव्य रख ही नहीं पाठा । कर्ममें तो पुद्गलका ही द्रव्य व पुद्गलका गुण ही स्वयं वर्तता है । अतः आत्मा ज्ञानावरणादिक कर्मका का वास्तवमें है ही नहीं। इसका कारण यह है कि नो पदार्थ अनादिसे जिस जिस द्रव्य व गुणमें बन रहा है, वह उसीमें ही बनता है, अन्य द्रव्य या अन्य गुण रूपमें से क्रान्त (परिवर्तित) कभी नहीं हो सकता । वस्तुतः न तो अज्ञानी परभावका का है और न ज्ञानी परभावका का है । अज्ञानी कर्तापनेके विकल्पको करता है, ज्ञानी कापनेके विकल्पको नहीं करता।
११६-फिर भी आत्मविभाव व पुद्गल कर्ममें निमित्तनैमित्तिक भाव है। इस आधारपर यदि यह कह दिया नावे कि आत्मा पुद्गल कर्मका कर्ता है, तो यह मान उपचार है । जैसे कि युद्ध में युद्ध तो योद्धा (सिपाही) लोग करते हैं, वे ही युद्ध परिणमनसे परिणम रहे हैं, किन्तु राजाके प्रसङ्गसे यह कह दिया जाता है कि राजा युद्ध कर रहा है, राजा तो युद्ध परिणमनसे परिणम ही नहीं रहा । तो यह कहना जैसे उपचार है। इसी प्रकार कर्मरूपसे तो पोद्गलिक कार्माणवर्गणायें परिणम रही हैं, किन्तु श्रात्मविभावके प्रसङ्गासे यह कह दिया जाता है कि श्रात्मा कर्म कर रहा है, आत्मा तो कर्मपरिणमनसे परिणम ही नहीं रहा । तो आत्मा ने कर्म किया, आत्मा कर्म करता है आदि कहना सब उपचार है।
११७-जैसे कि राजा उस लड़ाईके मुकाविलेको न ग्रहण करता है, न युद्धव्यापार-रूपसे परिणमता है, न युद्धको उत्पन्न करता है, न नया ही आदमी हथियार वगैरह कुल वना देता है और न योद्धावोंको हथियारों को बांध देता है फिर भी "राना मुकाबिला ग्रहण करता है, युद्धव्यापार परिणमाता है, युद्ध उत्पन्न करता है, योद्धावॉको करता है, योद्धावीको हथियारोंको वांधता है" श्रादि कहना उपचार है । इसी प्रकार आत्मा न
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कर्मो को ग्रहण करता है, न कर्मीको परिणमाता है, न कर्मोंको उत्पन्न करता है, न कर्मों को करता है और न कमको वांधता है, फिर भी < 'आत्मा कर्मोंको ग्रहण करता है, कर्मको परिणमाता है, कमोंको उत्पन्न करता है, कमोंको करता है, कर्मोको बांधता है" आदि कहना उपचार है ।
११८-- और भी देखो प्रजाजन यदि दोपोंमें लगे तो कह दिया जाता है कि इन दोषों का उत्पादक राजा है और प्रजाजन गुणों में लगे तो कह दिया जाता है कि इन गुणों का उत्पादक राजा है । यद्यपि प्रजा के दोष गुण प्रजामें ही व्याप कर रहते हैं, राजामें व्याप कर नहीं रहते हैं, तो भी मात्र राज्य के प्रसङ्गका आधार पाकर लोक ऐसा कह देते हैं। वह सब उपचार से कहना है । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्यमें गुण दोष आवे तो पुद्गल के व्याप्यव्यापक भावसे ही आते हैं, किन्तु नीव भाव वहां निमित्तमात्र है, इस प्रसङ्गका आधार पाकर लोक ऐसा कह देते हैं कि पुद्गल द्रव्य गुण दोषोंका अथवा पुद्गल द्रव्यका व उसके गुणका उत्पादक आत्मा है । यह सब उपचार मात्र कथन है ।
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११६ - यहां प्रश्न होता है कि पुद्गल कर्मका उत्पादक आत्मा नहीं है तो कौन है ? उत्तर - पुद्गल भी द्रव्य है, अतः उसमें भी परिणमन शक्ति है, सो जीवभावका निमित्त पाकर योग्य पुद्गल द्रव्य स्वयं पुद्गल कर्मरूप परिणम जाता है। जैसे कि कलशरूपसे परिणत होने वाली मिट्टी स्वयं कलशरूप परिणम जाती है । इस तरह पुद्गल कर्मका कर्ता निश्चयसे वही पुद्गल द्रव्य हुआ ।
१२०-- इसी प्रसङ्ग में यह भी प्रश्न उठ सकता है कि जीवविभाव ( रागादि) का कर्ता कौन है ? उत्तर- जीव भी द्रव्य है, वह भी परिणमन स्वभावी है | अतः कर्मोदयको निमित्तमात्र पाकर जीव स्वयं रागादि विभावरूप परिणम जाता है। सो यह जीव जब क्रोधमें उपयुक्त होता है, तब यह क्रोधरूप होता है. जब मानादिमें उपयुक्त होता है, तब मानादिरूप
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जाता है । जैसे कि गरुडके ध्यान में परिणत हुआ मनुष्य रचयं गरुड
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१२१-यदि जीव ज्ञानी है तो वह ज्ञानमयभावका कर्ता होता है, दि अज्ञानी जीव है तो अज्ञानमय भावका कर्ता होना है, क्योंकि ज्ञानी आत्मासे ज्ञानमय ही भाव होते, अज्ञानी आत्मासे अज्ञानमय ही भाव होते हैं । जैसे कि सुवर्णसे बनने वाले आभूषण सुवर्णमय ही होते हैं मौर लोहेसे बनने वाले कड़े आदि लोहेमय ही होते हैं।
१२२-जीवका परिणमन पुद्गल द्रव्यसे पृथक् है और पुद्गल द्रव्यका परिणमन जीवसे पृथक है। यदि निमित्तभूत उदय-प्राप्त पुद्गल कर्मके साथ ही जीवका रागादि परिणाम हो जावे तो जीव व पुद्गल कर्म इन दोनों में ही रागादि अज्ञानका परिणमन होना चाहिये । जैसे कि मिलाये गये चूना और हल्दी इन दोनोंमे ललाईका परिणमन हो जाता है । किन्तु, यहां तो अकेले जीवमे ही रागादि अज्ञानका परिणमन होता है, इससे यह वात सिद्ध ही है कि जीवका रागादि परिणमन निमित्तभूत , पुद्गलकर्मसे पृथक ही है।
१२३-इसी तरह यदि निमित्तभूत रागादि अज्ञान परिणत जीव के साथ ही पुद्गल द्रव्यका कर्म परिणमन हो जाय तो पुद्गल द्रव्य
और जीव इन दोनोंका कर्मपरिणमन होना पड़ेगा । जैसे कि मिलाये गये हल्दी व चूना इन दोनोंका एक साथ ललाईका परिणमन हो जाता है। किन्तु कर्मत्र परिणमन अकेले पुद्गल द्रव्यका ही होता है, अतः पुद्गल द्रव्यका कर्मपरिणमन निमित्तभूत जीवविभावसे पृथक ही है।
१२४-अथवा अभिन्न क कर्मताका विकल्प भी व्यवहारनय है और अकर्ताका अभिप्राय निश्चयनय है । तिस पर भी कर्ताका विकल्प करना या अकर्ताका विकल्प करना ये दोनों नयपक्ष हैं, दोनों विकल्प इन्द्रजालवत् असार हैं । जैसे इन्द्रजालका रूप रंग आदि सब दिखनेमात्र को है, अध्र व है, इसी प्रकार ये भी समस्त विकल्प कल्पनामात्र हैं, अध्रुव हैं। जो इन दोनों (समस्त) प्रकारके विकल्पोसे थानेसमस्त नयपक्षोंसे परे हो
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जाता है, वही समयसारका अनुभव करता है ।
१२५ - जिसके निष्पक्ष तत्त्वज्ञानका विकास ही समस्त इन्द्रजाल ( विकल्पजाल) को नष्ट कर देता है, वह चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ । इस परमपारिणामिक भावका परिचय पा लेने वाले ज्ञानीके परपदार्थ के परिग्रहण करने में उत्सुकता नहीं रहती है, अतः वह वस्तुरत्ररूप व विकल्पोंका स्वरूप ही जानता है, किन्तु नित्य उदित चिन्मय स्त्रभाव में उपयुक्त होने से उस समय वह स्वयं विज्ञानघनभूत है, अतः वह किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करना । जैसे कि भगवान् केवल ज्ञानी देव विश्व ज्ञाता होने से वस्तुस्वरूप व विकल्पादि पर्यायोंका स्वरूप ही जानते हैं, किन्तु स्वयं विज्ञानघनभूत होनेके कारण किसी भी नयपक्ष के परिग्रहका अत्यन्त अभाव है, अतः किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते ।
१२६ - इस जीवके अनादिसे अब तक मतिज्ञान श्रुतज्ञानके परिणाम व प्रवाह रूपसे चले आये । सो ये उठे तो स्वभावमें से परन्तु मिथ्यात्व के उदयवश अपने स्रोतका विलास छोड़कर इन्द्रिय व मन द्वारसे परके विलासकी बुद्धिमें उपयुक्त रहे, विकल्प जाल में भ्रमण करते रहे । जब प्रज्ञावलसे आत्माको ज्ञानानन्दस्वभावी निश्चित कर लेता है, तब परसे लौट कर आत्मा अभिमुख होकर ये ज्ञान आत्मविलास करते हैं व निर्विकल्प होकर समयसार (स्व) का संवेदन करते हैं । जैसे कि समुद्र का जल समुद्र में शोभा देता है, वही जल रविके प्रखर किरणोंके संयोगवश अपने स्थानसे च्युत होकर व सघन होकर यत्र तत्र वादलोंके रूपमें घूमता रहता है | जब वही जल तरल स्वभाव में आता है, तव वरसकर व समुद्र के अनुकूल निम्न पथ से वह कर समुद्र में मिल जाता है ।
इति कर्तृकर्माधिकार समाप्त
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'पुण्यपापाधिकार
१२७ -- इस तरह निमित्तनैमित्तिक भाव होनेपर भी केवल एक
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पुण्यपापाधिकार
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किसी भी वस्तुपर दृष्टि रहनेसे आत्मा वस्तु-स्वरूपपर पहुँचता है। जीव केवल अपने परिणामका कर्ता होता है । जीवके विभाव परिणामको निमित्त पाकर पुद्गल कार्माणवर्गणायें स्वयं कर्मरूप परिणम जाते हैं। पुद्गल द्रव्य जो कर्मरूप परिएम जाते हैं, वे कर्म सभी आत्मस्वभावके विरुद्ध हैं, तो भी उनमें जो प्रकृति पड़ी है, उसकी संक्षिप्त अपेक्षासे वे दो प्रकारके हैं, १-शुभ कर्म, २-अशुभ कर्म। शुभ कर्मका अपर नाम है पुण्य कर्म, अशुभ कर्मका अपर नाम है पाप कर्म । देखो हैं ये दोनों कर्म ही, किन्तु जैसे एक शूद्रीके उदरसे उत्पन्न हुए दो वालक हैं, वे किसी कारण जन्मते ही, घरसे बिछुड़ जाय, उनमें से एक तो ब्राह्मणीके हाथ लगे और उसके यहाँ पले और दूसरा शूद्रीके हाथ लगे और उसके यहां पले, तो कुल संस्कारवश दोनों की प्रवृत्ति भिन्न भिन्न हो जाती है । एक तो "मैं ब्राह्मण हूँ मुझे मदिरासे दूर ही रहना चाहिये" इस तरह ब्राह्मणत्वके अभिमानसे मदिराको दूरसे ही छोड़ देता है और दूसरा "मै शुद्र हूँ" इस प्रकार शूद्रत्वके अध्यवसानसे मदिरासे नित्य स्नान करता है, मदिरा को पीता रहता है। हैं वास्तवमें दोनों शूद्रसे जाये व शूद्र । पुण्य कर्मकी प्रकृति साताविकल्पमें निमित्त होने की पड़ जाती है व पाप कर्मकी प्रकृति असाताविकल्पमें निमित्त पड़ जाती है । वस्तुतः दोनों कुशील ही हैं।
१२८-जैसे चाहे सोनेकी वेडी हो और चाहे लोहेकी बेड़ी हो, कैदीके लिये दोनों एकसे ही वन्धन हैं। इसी प्रकार चाहे पुण्यकर्म हो
और चाहे पाप कर्म हो संसारी जीवके लिये दोनों वन्धन हैं। कोई फर्म कुशील है व कोई कर्म सुशोल है, ऐसा विपाककी अपेक्षा कहा जाता है, किन्तु जब दोनों कर्मोंका कार्य संसारभाव है, तब कोई कुशील व कोई सुशील ऐसा भेद क्यों ? सभी कर्म कुशील ही हैं। सभी कर्मोका हेतु अज्ञानभाव है, सभी कर्मों का स्वभाव जड़पना है, सभी कर्माका अनुभव पौद्गलिक है, सभी कर्म वन्धमार्ग हैं।
१२६-शुभ व अशुभ (पुण्य, पाप) दोनों ही कर्म कुशील हैं, इनका व इनके कारणरूप विभावोंका राग व संसर्ग छोड़ देना चाहिये ।
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(४६) सहजानन्दशास्त्रमालायां जैसे कि करेणु कुट्टिनी चाहे सुन्दर वनी हो, चाहे असुन्दर बनी हो, कुशील है याने धोखा देकर गिराने वाली है, अतः बुद्धिमान बनहरतीको उसका राग व संसर्ग छोड़ देना चाहिये । वनहस्तीको हथयानेके तिये शिकारी लोग बनमें एक गढ़ा खोदकर उस पर वांसोंकी पंचे विछाकर जमीन जैसे रगवाले कागजसे मढते हैं और उसपर एक वांस व कागजोंकी सुन्दर रचनामें झूठी हस्तिनी तैयार कर देते हैं। यह झूठी हस्तिनी सुन्दर भी बने तो भी कुशील है याने गढ़ में गिरानेकी कारण है। बुद्धिमान वनहस्तीको चाहिये इस कुशील करेणुकुट्टिनीका न तो मन से राग करे और न वचनसे व कायसे संसर्ग करे । इसी प्रकार पुण्य कर्म भी धोखा देकर गड़े मे गिराने वाली है व पापकर्म तो दुःख देनेकी प्रकृति वाला है ही, सो दोनों कर्म कुशील हैं। इनका राग व संसर्ग नहीं करना चाहिये।
१३०-जैसे कि वह करेणु कुहिनी सुन्दर भी हो व चटुलमुखी भी हो तो भी हस्तीको बंधके लिये खींचने वाली है। इसी प्रकार कोई कर्म (पुण्य कम) इष्टभोग समागम देने वाला हो व सुखकारी भी हो तो भी जीवको वन्धके लिये खींचने वाला है। अतः उसका भी राग संसर्ग छोड़ देना चाहिये । पाप कर्म भी जीवको बन्धके लिये खींचने वाला है, उसका भी राग न ससर्ग छोड़ देना चाहिये ।
१३१-सभी प्रकारका राग ही नीवका बन्धन है । जो रागरहित होता है, वही कोंसे मुक्त होता है । रागरहित अवस्था ज्ञानमय अवस्था है । अतः ज्ञान ही मोक्षका हेतु है । इस परमार्थभूत ज्ञानके विना व्रत व तप बालवत व चालतप कहलाते हैं । परमार्थभूत ज्ञानकी दृष्टिसे रहित पुरुष ही पुण्यकी चाह करते हैं व पापमें प्रवृत्त होते हैं। ये सभी कर्म मोक्षके कारणका आवरण करते हैं। ज्ञानका सम्यक्त्व मोक्षका कारण है। यह स्वभाव परभावभूत मिथ्यात्व कमके उदयसे प्रकट नहीं हो पाता। जैसे कि यद्यपि श्वेत वस्त्रका स्वभाव श्वेतपना है, तो भी परभावभूत मलके आनेसे प्रकट नहीं हो पाता।
१३२-ज्ञानका ज्ञान मोक्षका कारण है । यह स्वभाव भी परभाव
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वाधिकार
(80)
भूत ज्ञानावरण कर्मके उदयसे प्रकट नहीं हो पाता । जैसे कि श्व ेत वस्त्र का स्वच्छत्व स्वभाव है तो भी परभावभूत मलके आने से वह प्रकट नही हो पाता ।
१३३ - ज्ञानका चारित्र भी मोक्षका हेतु है । यह स्वभाव भी चारित्र मोह कर्मके उदयसे प्रकट नहीं हो पाता । जैसे कि श्व ेत वस्त्रका स्वभाव स्वच्छता है, किन्तु परभावभूत मलके से प्रकट नहीं हो पाते । ये तीनों तत्त्व याने सम्यग्दर्शन, (ज्ञानका सम्यक्त्व), सम्यग्ज्ञान ( ज्ञानका ज्ञान), सम्यक्चारित्र ( ज्ञानका चारित्र) भिन्न भिन्न रूपमें मोक्षके कारण नहीं है, किन्तु एक रूप में मोक्षके कारण हैं । अतः अभेदविवक्षा में ज्ञान ही मोक्षका कारण है । इस ज्ञानके विकास के बाधक निमित्त सभी कर्म हैं । तः सभी कर्मोंका त्याग कर देना चाहिये । कर्मोंका त्याग यही है कि कर्म के हेतुभून जीवकर्म (विभाव) में व कर्म के फलभूत परिणाम में व इष्ट समागममे राग व संसर्ग न करे ।
इति पुण्यपापाधिकार समाप्त
3.
श्राखवाधिकार
१३४ -- पुण्य पापके आस्रव (आने) का कारण राग, द्वेष, मोह, भाव है । इन दोनो प्रकारके याने कर्मास्रव व जीवास्रव (रागादिभाव ) का निरोध ज्ञानभाव से होता है | ज्ञानभाव के अभाव में अज्ञानमय भाव होता है, जो राग, द्वेष, मोह, भावके सम्पर्क में भाव होता है, वह सब अज्ञानम भाव है । यह अज्ञानमय भाव श्रात्माको कर्म करनेके लिये प्रेरित करता है । जैसे कि चुम्बक पत्थरके सम्पर्क में जायमान प्रभाव लोहेकी सूचीको कपित होने को प्रेरित करता है ।
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१३४ - और, जैसे चुम्बक पत्थर हट जाय तो उस वियोगसे होने वाली स्थिति लोहेकी सूचीको स्थित रहने देती है । इसी प्रकार रागादि व से भिन्न स्वभावी चैतन्यमात्र आत्मा के विवेकसे होने वाला ज्ञानमय
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(४८)
सहजानन्दशास्त्रमालायां भाव आत्माको स्वभावसे ही कर्म करनेकी उत्सुकताके अभावकी स्थितिको स्थापित करता है । सो रागादिसंकीर्ण भाव आत्माको कर्तुत्वमें प्रेरक होनेसे वन्धक है व रागादिसे असंकीर्णभाव याने ज्ञानमय भाव रवभावका उद्भासक होनेसे केवल ज्ञायक है, बन्धक नहीं होना।
१३६-जैसे पका फल पेड़के हेठलसे गिर जाय तो फिर ]ठलके सम्बन्धको प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार नो कर्मभाव अथवा कर्मोदयज भाव स्थानसे वियुक्त हुआ, वह फिर जीवमें सम्बन्धको प्राप्त नहीं होता। इस तरह ज्ञानमय भाव रागादिसे असंकीर्ण हो जाता है।
१३७-अज्ञान अवस्थामें जो कर्म बद्ध हो गये थे, वे ज्ञानी जीवके आत्माके साथ वादमें भी कुछ समय तक रहते हैं, किन्तु वे अब ऐसे हैं जैसे कि पड़ा हुआ मिट्टीका पिण्ड । पड़ा हुआ मिट्टीका पिण्ड कुछ विभावका कारण नहीं होना । इसी तरह वे कर्म कर्माणशरीरसे ही वधे हैं याने कार्माणपिण्ड है, वह उपयोगसे या ज्ञानी आत्मासे नहीं बंधा है। तात्पर्य यह है कि जहां वास्त्रव दूर हुआ कि द्रव्यास्रव तो स्वत: हो भिन्न था, अब आत्मा निरासव हा गया, शुद्ध ज्ञायक हो गया।
१३८-यद्यपि किसी अवस्था (गुणस्थान) तक ज्ञानी जीवके भी कर्म-वन्ध होता है, परन्तु वह ज्ञानीकी दशाके कारण नहीं, किन्तु उस जीवके जो राग विभाव शेष है, उसके कारण | वह राग बुद्धिपूर्वक नहीं है, इसलिये आसवका निपेध है, किन्तु वह ज्ञान-दशा जघन्य है, इससे अनुमान होता है कि अबुद्धिपूर्वक विभाव कलङ्क अवश्य है, यही आस्रव का वहां हेतु है । अतः तब तक अपनेको ज्ञानभावना होना चाहिये जव तव कि पूर्ण ज्ञानघन हो जाय । यहां पर आशंका होती है कि जव उसके अवृद्धिपूर्वक विपाक है, वद्ध कर्मोका सत्त्व है, उसका भी तो उदय होगा, तब उस ज्ञानीको निरास्रव क्यों कहा गया ? समाधान यह है कि जैसे किसी पुरुषका वाला स्त्रीसे विवाह हुआ तो इस अवस्थामें तो वह उपभोग के योग्य होती ही नहीं । जव यह वाला तरुण अवस्था पावेगी तव पुरुषके रागानुसार उपभोगने योग्य होगी। इस अवस्थामें यदि पुरुपके वैराग्यभाव
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भास्रवाधिकार
(४६) वे तब वह निरुपभोग ही रह गई । इसी प्रकार जिन कर्मों का बन्ध मज्ञान अवस्थामें हुआ उन कोंका सत्त्व तो इस समय है, किन्तु वे कर्म पानानुभवके योग्य तो तव होगे जव उनका उदयकाल आवेगा। जब नका उदयकाल आवेगा उस समय आत्माके रागभावके अनुसार विपाअनुभवके योग्य होगे। यदि उस समय आत्मा तत्व-ज्ञानके बलसे वेरागभावके उन्मुख रहा, तब वे कर्म निरुपभोग होकर ही खिर जांयगे। प्रथवा जो उदयमें आवेंगे वे जीविभाव राग, द्वष, मोहका निमित्त ही पावेंगे, तो वे नवीन आस्रवके कैसे कारण होगे? अथवा जो नीव चौथे व चौथेसे ऊपर १० वे गुणस्थान तक जिस गुणस्थानमें है उसके ज्ञान वैराग्यके अनुसार अनन्तानुवन्धी आदि कोका बन्ध होता ही नहीं।
१३६-रागादिभावासबके विना नवीन कर्मोका बन्ध नहीं होता। हो तत्त्वज्ञ आत्मा ही कदाचित् तत्त्वज्ञतासे च्युत हो जाय तो रागादिभाव का निमित्त पाकर पूर्वबद्ध कर्मोदय आनर वन्धका कारण हो जायगा। अथवा जो जीव शुद्ध तत्त्वक परिचयसे दूर हैं, उन बहिमुख नावोंके पूर्वबद्ध कर्मोदय नवीन कर्मवन्धोंको करते हैं। सो जैसे किसी पुरुषने भोजन किया तब वह पेट में गया भोजन उदराग्निका निमित्त पाकर माँस, वसा, रुधिर आदि अनेक रूप परिणम जाता है। इसी प्रकार अज्ञानी जीवके अथवा तत्त्वज्ञानसे, च्युत हुए जीवके कमविपाकमें नो कर्म बंधते हैं वे रागादि भावके अनुसार ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारमें परिणम जावे हैं। जिस तत्त्वज्ञानके अभावमे कर्मवन्ध होता है वह तत्त्वज्ञान शुद्धनयके आशयसे प्रकट होता है, अतः मुमुक्षवोंको निज शुद्ध आत्माको अभेदरूप में ग्रहण करने वाले शुद्धनयसे च्युत नहीं होना चाहिये । निर्विकल्प समाधिमें शुद्धनयका आशय स्वयं छूट जाता है, वह तो शुद्धनयका फल
इति पानवाधिकार समाप्त
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(५०) समयसारदृष्टान्तमम
संवराधिकार १४०-पासबके निरोधको संवर कहते हैं । संघरका मूल विपरीतआशय रहित न है । भेदविज्ञानके प्रसङ्गामें जो वातें आती है वे ४४आत्मा, भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म (शारीरादि)। यहां यह जिस दृष्टिमें दिखे कि आत्मामें (उपयोगमें) ही आत्मा है, इसमें क्रोधादि भावकर्म, शानावरणादि द्रव्यकर्म व शरीरादि नोकर्म नहीं हैं और न इनमें शुद्ध आत्मा है। खुद ही आहार है व खुद ही आधेय है। जैसे कि आकाश द्रव्य आकाशमें ही प्रतिष्ठित है, उसमें परकी न अधारता है और न आधेयता है । इसी प्रकार ज्ञानमें कहो या अभेदनयसे आत्मामें कहो, खुदमें खुदकी उठाधारता है व खुदकी आधेयता है । यहां मुख्यरूपसे यह भेदविज्ञान दृष्टि में लेना है कि क्रोध आदिमें उपयोग नहीं, उपयोगमें क्रोधादि नहीं, क्रोधादि ऋध्यतादिस्वरूपमें है, ज्ञान जानतास्वरूपमें है। इस भेदविज्ञान वलसे क्रोधादिको हेय व ज्ञानको उपादेय देखा जाना है। इसके प्रसादसे उपादेयताका भी विकल्प छूटकर शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होती है, शुद्धात्माकी उपलब्धिसे राग, द्वेष, मोहका प्रभाव होता है, यही अवस्था संवर तत्त्व है।
__१४१-जिस आत्माके उक्त प्रकारसे भेदविज्ञान हो जाता है, उसके ऐसा दृढ़नम अववोध रहता है कि जैसे तीव्र संतप्त अग्निमें तपाया गया भी सोना अपने सुवर्णपनेको नहीं त्यागता इसी प्रकार तीव्र कमविपाकसे युक्त होनेपर भी ज्ञान अपने ज्ञानस्वभावको नहीं त्यागता । यदि त्याग दे तो वस्तु तो स्वभावमात्र है स्वभावके त्यागते ही वस्तुका नाश हो जायगा। ऐसा नानता हुमा कर्मसे आक्रान्त होनेपर भी ज्ञानी राग, द्वेष, मोहको प्राप्त नहीं होता अपितु शुद्ध मात्माको ही प्राप्त होता है।
१४२-यहां आशंका हो सकती है कि आत्मा तो इस समय परोक्ष है, उसका ध्यान कैसे किया जा सकता है ? समाधान यह है कि परोक्ष भी कोई रूपी पदार्थ परके उपदेशसे लिखे गये रूपको देखकर जैसे
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निजराधिकारा
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长
कोई पुरुष जान लेता है, वैसे ही उपदेशादिसे "मैंने जीव देखा लाजा
इत्यादि रूपसे अवधारित कर लिया जाता है। तथा स्वसंवेदन रूप भावज्ञान यद्यपि केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्षे है तो भी इन्द्रियजभ्य सविकल्प ज्ञानकी अपेक्षा ता प्रत्यक्ष है ही । अथवा पहिले समय में भी तो इसी प्रक्रिया से आत्माको ग्रहण करते थे । दिव्य ध्वनिके द्वारा अथवा अन्य उपदेशादिसे तो केवल कुछ कहा हो तो जाता था, ग्रहण करना तो स्वसंवेदन ज्ञानसे ही होता था ।
इस शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिसे मिध्यात्वादि भावोंका अभाव है । उसका अभाव होने पर रागादिका अभाव होता है। उसके अभाव होने पर कर्मका अभाव हो जाता है । उसक अभाव होने पर शरीरका अभाव हो जाता है | शरीरका अभाव होने पर संसारका अभाव होता है । संसार ही दुःख है संसार के अभाव मे सर्व दुःखों का अभाव है । यहाँ शुद्धात्मतत्वकी उपलब्धिका मूल कारण भेदविज्ञान है । अतः सर्वयत्न से भेदविज्ञानकी भावना करना चाहिये ।
इति संवराधिकार समाप्त
निर्जराधिकार
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१४३ - विकार के झड़नेको निर्जरा कहते हैं । निर्जरा दो प्रकार की है (१) भाव निर्जरा, (२) द्रव्य निर्जरा । ज्ञानी नीवके निर्जरा तो संवर पूर्वक होती है और अज्ञानी जीवके निर्जरा बन्धपूर्वक होती है अर्थात् ज्ञानी जीवके कर्मनिर्जरा व भावनिर्जरा (विभावका होकर व्यय होना) अन्य बन्धको नहीं बढ़ाती किन्तु मिध्यादृष्टि के कर्मनिर्जरा (उदय या उदीरणा) व भावनिर्जरा (विभावका उन्मग्न होकर निमग्न होना) अन्य कर्म बन्धका कारण बन जाती है । जैसे कि हाथीका स्नान और धूल चिपटनेका कारण ही बन जाता है और हाथी सूढ़ोंसे धूल ग्रहण कर कर सारे शरीरको धूसरित कर देता है ।
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सारदृष्टान्तमर्म
१४४-तथा, जैसे कोई तस्कर (चोर) कोतवालके द्वारा गिरफ्तार हो जाय अन्तमें मरणादिका क्लेश सुना दिया नाय तो यद्यपि यह तस्कर मरणादिक नहीं चाहता है तो भी मरणादिका अनुभव करता ही है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि नीव यद्यपि आत्मीय सुखको उपादेय व विषय सुखको हेय.जानता है तो भी कर्मविपाकरूपी कोतवाल द्वारा गिरफ्तार हुश्रा यह विना रतिके विषय सुखादिका अनुभव करता है। इसी कारण ज्ञानीकी यह निर्जरा अथवा उपभोग बन्धके लिये नहीं होता, प्रत्युत निर्जराके निमित्त ही होता है।
१४५-जैसे कि विषका पान जनरली मरणका कारण होता है, लेकिन विषवैद्य विषका पान करता हुआ भी मंत्र औषधि आदिकी सामर्थ्यसे मरणको प्राप्त नहीं होता । इसी प्रकार पुद्गल कर्मका उदय अज्ञानी जीवके रागका सद्भाव होनेसे वन्धका कारण होता है, लेकिन ज्ञानी जीवके रागादि अज्ञानमय भाव न होनेसे ज्ञानके सामर्थ्यस पुद्गल कर्मका उदय भोगता हुआ भी वन्धको प्राप्त नहीं होता।
१४६-तथा जैसे कोई पुरुष रोगके प्रतीकारके निमित्त मद्यमें मद्यकी विरोधी कुछ औषधि डालकर पीता है तो वह मद्यपानके रागके अभावके कारण मतवाला नहीं होता। इसी प्रकार कर्मविपाकन वेदनाके प्रतीकारके निमित्त तत्त्वप्रतीतिसहित वर्तकर पञ्चन्द्रियके विषयभूत भोजनादि पुद्गल द्रव्यके उपभोग होनेपर भी तत्त्वज्ञानी उपभोगमै प्रतीतिमें तो सर्वथा रागका अभाव होनेसे व चर्या में यथायोग्य रागका अभाव होनेसे मतवाला नहीं होता।
१४७-तथा, जैसे किसीके घर विवाहादि प्रकरण (function) में दूसरे घरसे आये हुए पुरुपके भी विवाहादि प्रकरणमें करने योग्य चेष्टा होती है तो भी उस प्रकरणका राग न होनेसे वह अप्राकरणिक है। इसी प्रकार निर्विकार निज शुद्धात्म तत्त्वका प्रत्यय करने वाला ज्ञानी अपने गणस्थानके योग्य पन्चेन्द्रियके विषयोंको सेवता हुआ भी उस वृत्तिका
न होनेसे असेवक है । और, विवाहके घर वाला पुरुष कार्यव्यासद्गासे
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निर्जराधिकार
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गीतादि विवाह चेष्टा को नहीं कर रहा है तो भी विवाह प्रकरणका राग होनेसे वह प्राकरणिक है । इसी प्रकार अज्ञानी जीव उपभोग न मिलने से या अन्य कार्यव्यासङ्गसे विषयको न भी सेवता हो तो भी वह सेवक है ।
१४८ - सम्यग्दृष्टि जीवके पूर्ववद्ध कर्मविपाकसे राग विभाव आता है तो भी वह यही जानना है कि यह कर्मोदयनिमित्तक भाव है, मेरा स्वभाव नहीं, मैं तो शुद्ध ज्ञायक भावमात्र हूँ । जैसे कि स्फटिक पापारण में पर डाककी उपाधिसे उत्पन्न जो लालिमादि है वह श्रीपाधिकभाव है, स्फटिकका स्वभाव भाव नहीं है, वह तो निजस्वच्छतामय है ।
१४६- आत्माका विशुद्ध स्वभाव ही आत्माका उत्कृष्ट पद है । समस्त स्थिर (विनाशिक) भावोंको याने द्रव्यकर्म व भावकर्म (विभाव) को छोड़ करके एक इस ही एक ज्ञानभावका अवलम्बन करना चाहिये । यद्यपि इस ज्ञानभावके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान व केवलज्ञान ये सब परिणमन हैं, किन्तु वह सब निश्चयसे एक ही पद है । जैसे मेघपटलका कम अधिक श्रावरण होनेके कारण सूर्यको भी प्रकाशभेद होते हैं, प्रकाशभेदोंके कारण सूर्य में भेद नहीं हो जाता, सूर्य तो एक ही है, बल्कि वे प्रकाशमेद भी सूर्यकी एकता का ही सकेत कराते हैं। इसी प्रकार कर्मपटलका कम अधिक आवरण होनेके कारण ज्ञानके भी जाननभेद होते हैं किन्तु उन ज्ञानातिशय भेदोंके कारण ज्ञानस्वभावमें भेद नहीं हो जाता, ज्ञानस्वभाव तो वही एक है। बल्कि वे ज्ञानातिशयभेद भी ज्ञानस्वभावकी एकताका संकेत करते हैं ।
१५० - जैसे एक रत्नाकर समुद्रमें छोटी बड़ी अनेक लहरें उठती हैं वे सब एक जलरूप ही हैं। इसी तरह यह चैतन्य रत्नाकर एक ही है, इसमें कर्मके निमित्तसे ज्ञानके अनेक भेद अपने आप व्यक्तिरूप होकर प्रकट होते हैं, वे व्यक्तियां एक ज्ञानरूप ही हैं ।
१५१-- जिस श्रात्माने इस निज ज्ञायक स्वभावका परिचय किया
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(५४) समयसारदृष्टान्तमर्म उसके इच्छाभावरूप अज्ञानमयभाव नहीं रहता और इसी कारण वद्द अन्य पदार्थोंका व परभावोंका ज्ञाता तो रहता है किन्तु ज्ञय पदार्थमें सन्मय नहीं होता अतः वह निष्परिग्रह होता है। जैसे कि दर्पणमें जो प्रतिविम्ब है उसका देखने वाला ज्ञाता तो रहता किन्तु उस प्रतिविम्बसे तन्मय नहीं हो जाता । इस तरह यह ज्ञानी पुण्य (शुभोपयोगरूप धर्म) का, पाप (विषय कपाय रूप अधर्म) का, अशनपानका, उपभोगका ज्ञायक रहता है, परिग्रही नहीं होता है।
१५२-ज्ञानी जीव न बंधके निमित्तभूत रागादिभावोमें राग करता है और न उपभोगके निमित्तभून सुख दुःखादिक भावों में राग करता है। यहां यह विशेष ध्यान देनेकी बात है कि बन्धके निमित्तभून भाव तो ज्ञानीके होता ही नहीं, उपभोगका निमित्तभूत भाव कदाचित् होता है। मात्पर्य यह है कि भोगनिमित्त थोड़ा पाप तो ज्ञानीके कदाचित हो जाता है सो वहां भी ज्ञान व वैराग्यके सामथ्येसे अवन्ध रहता है, वन्धनिमित्तभून मिथ्यात्वादि भाव तो होते ही नहीं हैं । निष्प्रयोजन अपध्यान वन्ध निमित्तभून भाव है । ज्ञानी यह पाप नहीं बांधता, जैसे कि इस अपध्यानसे शालिमत्स्य बहुत पाप बांधता है।
१५३-ज्ञानी जीवके उपभोग कर्ममे राग रस नहीं आता अतः ज्ञानी परिग्रह भावको प्राप्त नहीं होता। जैसे कि जो वस्त्र लोध फिटकरीसे नहीं भिगोया है उसपर रंगका मेल वाहर ही लोटता है, वस्त्रमें दृढ़ जमता नहीं है।
१५४-ज्ञानी जीव समस्त राग रससे दूर रहनेके स्वभाव वाला है अतः उपभोग अथवा कर्मके मध्य पड़ा हुआ भी उपभोग अथवा कर्मसे , लिप्त नहीं होता है। जैसे कि सुवर्ण कीचड़ अथवा संगसे छुटे रहने के स्वभाव वाला है अतः वह कीचड़ अथवा संगसे लिप्त नहीं होता है।
१५५-अज्ञानी नीव रागरससे लिप्त होनेकी प्रकृति वाला है अतः उपभोग अथवा कमके मध्य पड़ा हुआ कमसे लिप्त हो जाता है।
कि लोहा कीचड़ अथवा जंगसे लिप्त हो लेनेके स्वभाव वाला है
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' निर्जराधिकार
(५५) अतः वह कीचड़ अथवा नंगसे लिप्त हो जाता है।
१५६-जैसे धौंकनी द्वारा आगसे धौंक गये सिदूर व शीसा सहित लोहा पुण्योदय होनेपर किट्ट कालिका मैलसे रहित होकर सुवर्ण हो जाता है। इसी प्रकार तपस्या रूपी धौंकनी द्वारा ध्यानरूपी अग्निसे घौंका गया याने तपाया गया रत्नत्रयकी औषधि सहित यह लोहास्थानीय यह जीव किदृस्थानीय कर्म व कालिकास्थानीय रागादिभावसे रहित होकर मुक्त हो जाता है।
१५७-परद्रव्यका उपभोग ज्ञानीके अज्ञानमय भावको उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि परपदार्थ अन्य परके भाव बनानेमें कारण नहीं है । ज्ञानी हो यदि ज्ञानभावसे च्युन होकर अज्ञानी रूपसे परिणमने लगे वो चाहे परद्रव्य भोगे या न भोगे स्वयं अज्ञानरूप हो गया। इस कारण यह बात सुसिद्ध है कि ज्ञानी जीवके परके अपराधसे याने उपभोगके कारण बन्ध नहीं होता किन्तु जब वन्ध होगा तब स्वके अपराधसे होगा। जैसे कि शख जीवका शरीर श्वत है वह कैसे ही पर द्रव्य (कालो, पाली मिट्टी आदि) को भोगे उससे वह काला नहीं हो सक्ता। हां वही शंख शरीर यदि वनपनेको छोड़ कर काले रूप में परिणम जावे तो वह पर द्रव्य को भोगे या न भोगे स्वयं काला हो जायगा।
१५८- अज्ञानी जीव आगामी पुण्य सुख चाहनेके लिये व्रत, तप आदि करता है तो उससे उपार्जित पापानुवन्धी पुण्य भविष्यमें भोगोंको देता है । जैसे कि कोई पुरुप आजीविकाके लिये राजाकी सेवा करता है तो राजा उसे आजीविका देता है।
१५६-प्रथया कोई ज्ञानी जीव निर्विकल्प समाधिके अभावमें विषय कपायकी आपदासे बचने के लिये व्रत, शील, उपवास, तप आदि करता है। वह पुण्यसुखकी चाहसे नहीं करता है। सो उसके यद्यपि पुण्यवन्ध होता है किन्तु आगामी भवमें उसके उदयकालमें भी वह ज्ञानी होता हुआ रागादि फलको नहीं पाता और मिले हुए पुण्य समागमसे विरक्त हो मोक्षमार्गका सेवन करता है। जैसे कि भरत चक्रवर्ती, आदि
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समयसारदृष्टान्तमर्म
महापुरुषोंने किया है।
१६०-ज्ञानी जीव कर्मका फल ही नहीं चाहते, इसलिये कदाचित् ज्ञानीको पूर्वार्जित कर्मविपाकको भोगना भी पड़े तो उस समय होने वाली चेष्टाका कोई फल नहीं चाहता और 'ऐसी चेष्टा हो यह भी नहीं चाहता, यही कारण है कि वह कर्म या क्रियाफलको नहीं देनी है। अथवा, नो कर्मका फल नहीं चाहता उसे फर्म फल नहीं देते । जैसे कोई पुरुष नौकरीके लिये राजाकी सेवा करता है तो राजा उसे नौकरी (वेतन) देता है और जो नौकरीकी चाइसे राजाकी सेवा नहीं करता है उसे राजा नौकरी नहीं देता है।
१६१-ज्ञानी नीव सर्व भयोंसे रहित होते हैं, क्योंकि उनके पात्मा व पर द्रव्योंके स्वरूपसत्त्वकी दृढ़ प्रतीति होती है। यही कारण है कि वे सदा निःशङ्क रहते हैं और कदाचित् घोर उपसर्ग व परीषह भी पा जाय वो भी ज्ञानी ज्ञानोपासनासे चिगते नहीं। जैसे कि पाण्डव भादि महापुरुष कठिन उपसर्ग आने पर भी नहीं चिगे।
१६२-ज्ञानी नीव कर्मफलोंकी (सुखोंकी) वाञ्छा नहीं करते हैं, क्योंकि उन्हें स्वरूपसत्त्वकी दृढ़ प्रतीति है, आनन्दमय आत्मा है उसके अवलम्बनसे ही शुद्ध आनन्दविकासके होनेका उनके विशद अनुभव है। उपसर्ग या पाराम सुविधा होने पर भी ज्ञानोपासनासे नहीं चिगते हैं। जैसे कि अनन्तमती कितने ही फुसलाये नाने अथवा नाड़े नाने पर भी विषय सुखकी ओर नहीं गई।
१६३-प्रमत्त ज्ञानी जीवकी रुचि रत्नत्रय भावकी ओर रहती है, जिससे वे रत्नत्रयसे विरुद्ध भावो (वेदनाओं) मे खेद मानकर अधीर नहीं होते और न रलत्रयधारी अन्तरात्मावोंकी सेवामें ग्लानि करते । जैसे कि उहायन राजाने साधुकी रुचिसे, ग्लानिरहित होकर सेवा की।
१६४-ज्ञानी जीवकी निज शुद्ध पात्मतत्त्वमें प्रतीति, ज्ञाप्ति व चर्याकी भावना होती है जिसके वलसे वह शुभाशुभ भावों में व कुदेव,
, कुगुरुवों में संमोहित नहीं होता, जैसे कि ब्रह्मा आदिके व
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'निजेराधिकार
(५७) पच्चीसवें तीर्थङ्करके दृश्य दिखानेपर भी रेवती रानी संमोहित नहीं हुई।
____१६५-ज्ञानी जीव शुद्धात्मभक्तिके कारण रागादि भावोंको दूर करता है व व्यवहार में किसी अज्ञानी पुरुष द्वारा होने वाले धर्मापवादको प्रचलित नहीं होने देता। यह धर्मापवाद कई तरीकोंसे दूर किया जाता है, जैसे कि जिनेन्द्रभक्त सेठने व्रतीभेषमें रहने वाले ठगके द्वारा होने वाले धर्मापवादको उसको निष्कलङ्क सावित करके दूर किया, जैसे कई प्राचार्योन भ्रष्ट साधुवोंको संघ-बाह्य करके धर्मापवादको दूर किया इत्यादि।
१६६-सम्यग्दृष्टि पुरुष कर्मविपाकवश कदाचित् स्वयं उन्मार्गमें जावे तो भेदविज्ञानके वलसे शुद्धात्मतत्त्वकी भावनामें चित्त स्थिर करके स्वयंको सन्मार्गमें लगाता है और अन्य कोई उन्मार्गमें (विषयकषायादिवृत्तिमें) पतित होता हो तो उसे तत्त्वोपदेश आदि द्वारा सन्मार्गमें लगाते हैं । जैसे वारिषेण मुनिने त्यक्त परिग्रहके दिखानेकी घटना बताकर पुष्पहाल मुनिको सन्मार्गमें स्थित किया।
१६७-ज्ञानी जीवके शुद्ध स्वरूपके प्रति अपूर्व वात्सल्य होता है और इसी कारण व्यवहारमें आत्मसाधनाके प्रवर्तक धर्मात्माजनोंमें भी वात्सल्य रहता है, जिस भावके कारण तत्त्वभावना द्वारा अपने विभाव रूप उपसर्गों को दूर करता है और प्रयत्नपूर्वक अन्य धमिजनोंके उपसर्ग व क्लेशको दूर करता है। जैसे श्री विष्णुकुमार मुनिवरने अपनाचार्य आदि ७०१ मुनियोंके उपसर्गको दूर कराया था।
१६८-ज्ञानी अन्तःक्रिया व वहिःक्रिया द्वारा आत्माका व निज शासनका प्रभावक ही होता है। वह शुद्धात्म-भावनाके बलसे राग द्वेषादि परिणतियोंको दूर करके अपना प्रभावक तो होता ही है साथ ही उसकी मुद्रा व शुभ चेष्टाओंसे लोकमें भी धर्मप्रभावनाका निमित्त होता है। जैसे मुनिवर वनकुमारने अपने योगमें स्थिरता की जिसके प्रसादसे रानकृत खङ्गका आक्रमण भी फूल बन गया, तथा जैसे मुनिवर मानतुंग
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(५८) समयसारदृष्टान्तमर्म आदिके अनेक अतिशयोंने जिनशासनकी प्रभावना की ।रलत्रयकी प्राप्ति अतीव दुर्लभ है । इसके ही प्रसादसे कर्मोकी निर्जरा होती है। संवर पूर्वक निर्जरा मोक्षतत्त्वका कारण है। रत्नत्रयके विपरीत भावमें याने मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रकी वर्तनामें कर्मवन्ध है, यह संसारका कारण है। अतः संसारके कारणोंसे हटकर मोक्षमार्गके लगनेके परिणाममें यत्ल करना चाहिये याने शुद्धात्माका आश्रय करना चाहिये।
इति निर्जराधिकार समाप्त
वन्धाधिकार १६६-कर्मबन्धका कारण क्या है और वह कैसे मिटे ? यह रहस्य नानना बहुन आवश्यक चीज है। यहां कर्मवन्धके कारणको एक दृष्टान्त द्वारा प्रकट किया जाता है। जैसे एक मल्ल अपने शरीरमें तेल लगाकर हाथमें तलवार लेकर शस्त्राभ्यासके लिये धूलवाले अखाड़े में कूदता है
और वहां कदली आदि पेड़ोंका तलवारमे घात करता है। कुछ समय इस व्यायाम कर लेनेपर उसके देहमें धूल बहुतसी चिपट जाती है। यहां विचार करें कि उस मल्लके देहमें धूल असनमें किस कारणमे चिपट गई । इसी प्रकार विचार करने के लिये शान्तिका दृष्टिकोण लेवे। यह मंसारी जीव रागादिमें उपयोग लगाकर मन, वचन. कायका योग करके बाह्य माधनोंक आश्रयसे कार्माणवर्गणाओंकरि व्याप संसारमें सचित्त अचित्त परिग्रहका संग्रह, संहार करता है और परिणाम स्वरूप कर्ममे बंध जाना है। अब यहां विचार करें कि क्या (१) सचित्तादि पदार्थोका संहारादि किया इससे कर्म बंधा ? (0) क्या बाह्य साधनोंके कारण कर्म बंधा ? (३) क्या मन वचन कायके योगसे कर्म बंधा (४) क्या कार्माणवर्गणाओंसे भरे संसारमें रहने के कारण कर्म बंधा ? जैसे कि दृष्टान्त में पचा हो सकता है कि (१) क्या कदली आदि वृक्षोंका पात होनेसे देहमें
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बन्धाधिकार
(५६) धूल चिपकी ? (२) क्या तलवार हाथमें होनेके कारण धूल चिपकी ? (३) क्या व्यायाम व्यापार करनेसे धूल चिपकी ? (४) क्या धूल भरे अखाड़े में रहनेसे धूल चिपकी ?
१७०-उक्त प्रश्नोंपर विचार करनेसे यह समाधान होता है कि सचित्त पदार्थ (प्राणी) के घातसे कर्म नहीं बंधता, क्योंकि यदि प्राणिघातसे कर्म बंधता हो तो ईर्या समिति (प्राणिरक्षा करते हुए) से चलते हुए साधुके पद-तलमें कोई सूक्ष्म जन्तु आ जाय व उसका घात हो जाय नो वहां भी उस कारणसे वन्ध होना चाहिये किन्तु साधुके तो तत्कृत बन्ध होता नहीं । जैसे कि यदि कदली आदि वृक्षके घातसे यदि धूल चिपटती हो तो दूसरा मल्ल भी सो जो कि जरा भी तैल देहमें नहीं लगाये हुए है, उसी प्रकार व्यायाममे कदली आदि वृक्षका घात कर रहा है । उसक देहमें क्यों नहीं धूल चिपटती ? इससे सिद्ध है कि जैसे कदली 'घातके कारण धूल नहीं चिपटती इसी प्रकार चित्त-घातसे कर्मबन्ध नहीं होता।
१७१-बाह्य साधन (मकान आदि) के कारण भी कर्मवन्ध नहीं होता, क्योकि यहि वाह्य उपकरण, साधन आदिके कारण कर्मवन्ध होता तो सयोगी जिन अथवा तीर्थकर भगवानके समवसरणमें तो गन्धकुटी आदि किसने वैभव रहते हैं, फिर उनके कर्मबन्ध क्यों नहीं होता? जैसे कि तलवार आदि शस्त्र हाथमे होनेसे यदि धूल चिपटी होती तो दूसरा मल्ल भी तो जो देहमें तेल नहीं लगाये हुए है उसी प्रकार तलवार हाथमे लेकर व्यायाम करता है उसके धूल क्यो नहीं चिपटती ? इससे सिद्ध है कि जैसे तलवार आदि उपकरणोके कारण धूल नहीं चिपटती इसी प्रकार . बाह्य साधनोके कारण जीवके कमवन्ध नहीं होता।
१७२-मन वचन कायके हलन चलनसे भी कमवन्ध नहीं होता, क्योंकि यदि योगसे कर्मवन्ध हो जाता होता तो सयोगिजिन भगवानके भी वो विहार, दिव्यध्वनि आदिके निमित्त योग होता है, उनके कर्मबन्ध क्यों न होता? जैसे कि यदि व्यायामके व्यापारसे यदि धूल चिपटती
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(६०) समयसारदृष्टान्तमर्म होती तो दूसरा मल्ल भी तो जो देहमें तैल नहीं लगाये हुए है, उसी प्रकार व्यायामकी चेष्टा करता है उसके धूल क्यों नहीं चिपटती? इससे सिद्ध है कि जैसे व्यायाम चेष्टाके कारण धूल नहीं चिपटती इसी प्रकार मन, वचन, कायके योग (हलन चलन) के कारण कर्म-बन्ध नहीं होता।
१७३-कार्माणवर्गणाओंसे व्याप्त लोकमें रहनेके कारण भी कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि यदि कार्माणवर्गगणाव्याप्त लोकमें रहनेके कारण कर्मवन्ध हुआ करता तो सिद्ध भगवान भी तो लोकमें हैं उनके कर्मवन्ध क्यों नहीं हो जाता । जैसे कि धूल भरे अखाड़ेमें जानेसे धूल चिपटती होती तो दूसरा मल्ल भी नो जिसके कि देहमें तैल नहीं लगा है, उसी धूल भरे अखाड़ेमें व्यायाम करता है, उसके धूल क्यों नहीं चिपटती ? इससे सिद्ध है कि जैसे धूल भरे अखाड़ेमें जानेसे धूल नहीं चिपटती इसी प्रकार कार्माणवर्गणाव्याप्त लोकमें रहनेसे कर्म नहीं बंधता।
१७४-अब केवल जिज्ञासा एक यही रह जाती है कि आखिर कर्मवन्ध किस कारणसे होता? जैसे कि दृष्टान्तमें अवशिष्ट जिज्ञासा यही रह जाती कि आखिर उस मल्लके धूल किस कारणसे चिपटी ? समाधान यह है कि जैसे देहमें स्नेह (तेल) लगनेके कारण उस मल्लके वहां धूल चिपट गई, इसी प्रकार स्नेह (रागादिविभाव) होनेके कारण जीवके कर्मवन्ध हो जाता है । यहो इतना विशेष नानना कि मात्र रागसे कर्मवन्ध साधारण होता है, किन्तु रागमें राग होनेसे अथवा रागादिको उपयोग भूमिमें ले जानेसे कर्मबन्ध विशेष होता है। कर्मवन्धकी विशेषता संसारका मूल है । उक्त साधारण कर्मवन्ध संसारवृद्धिका कारण नहीं, किन्तु अल्पकालमें उसकी भी निर्जरा होकर निर्जरा हो ही जायगी।
१७५-रागादि परिणामको उपयोग भूमिमें ले आना ही अज्ञान परिणाम है ! अज्ञान परिणाम कर्मवन्धका कारण है। जैसे कि कोई • यह मानता है कि मैं पर जीवोंको मारता हूँ या पर नीवाँसे मैं मारा
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बन्धाधिकार
( ६१ )
जाता हूँ, ऐसा विकल्प करना अज्ञान है । यह अज्ञान जिनके है वे मिध्यादृष्टि हैं, जिनके यह अज्ञान नहीं वे सम्यग्दृष्टि हैं ।
१७६ - यह विकल्प अज्ञान क्यों है ? समाधान - चूंकि अन्य द्रव्य किसी अन्य द्रव्यकी परिणति नहीं कर सकता, सो कोई जीव किसी जीवको न मार सकता न कोई किसीसे मारा जाता, इस कारण उक्त विकल्प ज्ञान है । जैसे कोई जीव मरता है तो वह अपने भावकी आयुक्षयसे ही तो मरता है, यदि उसके आयुका क्षय न हो तो मरा संभव ही नहीं है | किसीकी आयुको न तो तुम हर सकते हो और न तुम्हारी आयुको अन्य कोई हर सकता है । फिर जो वात की नहीं जा सकती उस बातका अध्यवसाय करना अज्ञान नहीं तो और क्या है ? अज्ञान ही है।
१७७ - इसी प्रकार जीवके कर्तृत्वका श्रध्यवसाय भी अज्ञान हैं। जैसे कि किसीने यह प्रतीति की कि "मैं दूसरोंको जिलाता हॅू या मैं दूसरों के द्वारा जिलाया जाता हूँ" यह भी अज्ञान भाव है । अज्ञान ही वन्धका कारण है ।
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१७८ -- यह विकल्प श्रज्ञान क्यों है ? उत्तर - अन्य द्रव्य किसी अन्य द्रव्यकी परिणति नहीं करता सो कोई जीव किसी जीवको न जीवन' दे सकता और न किसी जीवसे जीवन ले सकता । जैसे कोई जींव जीता' है तो वह अपनी ही आयुके उदयसे जीता है, यदि उसके आयुका उदय न हो तो कोई जिला नहीं सकता | आयुकर्म किसीका न तुम दे सकते और न तुम्हारी आयुकर्म अन्य कोई तुम्हें दे सकता। फिर, जो वात की नहीं जा सकती उसका अध्यवसाय करना अज्ञान नहीं तो और क्या है ? अज्ञान ही है ।
१७६- इसी प्रकार “मैं अमुकको दुःखी करता हूँ, अमुकको सुखी करता हूँ" ये अध्यवसाय भी अज्ञान' है, क्योंकि दुःखी सुखी होना जीव के अपने अपने कर्मोदयसे ही संभव है । जैसे कोई जीव सुखी होता है। तो वह अपने पूर्वार्जित सातावेदनीयके उदयसे सुखी होता है ।
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समयसार दृष्टान्तमम
सातावेदनीय कोई उसे दे नहीं सकता, यही दुःखकी बात है । असातावेदनीय भी कोई अन्यको दे नहीं सकता ।
१८० - चाहे कोई जीव परके प्रति पाप परिणाम करे या कोई पुण्य परिणाम करे उससे परका परिणमन हो नहीं जाना, केवल वे परिणाम पाप या पुण्यबन्धके कारण होते हैं । बन्धका कारण अध्यवसाय भाव (मोह, राग, द्वेषादि) है, बाह्य वस्तु बन्धका कारण नहीं है। हां बन्धके कारणभूत रागादि परिणामका आश्रयभूत बाह्य वस्तु होता है । चरणानुयोगमें जो वाह्य वस्तुका त्याग बताया गया है वह रागके श्राश्रयभूत पदार्थ से दूर रहनेको बताया जिससे रागके आविर्भाव की सुगमता न रहे, क्योंकि बाह्य वस्तुके प्राश्रय विना अध्यवसाय भाव उत्पन्न नहीं होता । जैसे कि युद्ध में यह तो भाव हो सकता है कि मैं वीरजननीके पुत्रका घात करूं, किन्तु यह भाव नहीं हो सकता कि 'मैं बन्ध्या के पुत्रका घात करू । तात्पर्य यह है कि रागादिक वाह्य वस्तुके आश्रय बिना नहीं होते, अतः वाह्य वस्तुका प्रतिपेध कराया जाता है ।
१८१ -- कभी ऐसा भी होता है बन्धके कारणका आश्रयभूत जैसी बाह्य वात होती है वह वाह्य बात भी हो जाय तो भी वन्ध नहीं होता इससे और भी सुसिद्ध बात हुई कि वाह्य वस्तु वन्धका कारण नहीं है। जैसे कोई मुनिराज ईर्या समितिसे बिहार कर रहे हैं, उस समय पद तल अचानक कोई सूक्ष्म जीव उड़कर या किसी तरह मर जावे तो उन मुनिराजको उस हिंसाका बन्ध नहीं होता है। इस कारण जीवके परिणाम अध्यवसानरूप न हो तो वाह्य वस्तु बन्धके हेतुका हेतु भी नहीं होता ।
१८२ -- "मैं अन्य जीवको दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ” यह व अध्यवसान मिथ्या है क्योंकि किसी जीवने परिणाम तो किया कि मैं मुकको दुःखी करता हूं और उस अमुक साताका उदय नहीं है तो वह दुःखी तो नहीं होता । तथा, किसी जीवने परिणाम किया कि
अमुकको सुःखी करता हूँ और उस अमुकके साखाका उदय नहीं है तो
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वन्धाधिकार
( ६३ )
सुखी तो नहीं होता । तात्पर्य यह है कि परके विचारनेसे अन्य में स्वार्थक्रिया तो नहीं हुई। जहां स्वार्थक्रिया नहीं है। वह झूठ है । जैसे कोई ऐसा अध्यवसान करे कि मैं काशके फूल तोड़ना हूँ तो वह झूठा ही भाव तो है ।
१८३ - इसी प्रकार कोई जीव सोच कि मैं, पर जीवको वांधता हूँ या छुटाता हूं तो यह भाव भी मिथ्या है। जैसे किसीने (सीताके जीव प्रतीन्द्र ) यह भाव किया कि मैं अमुकको (रामचन्द्र जीको) बांधता हूँ तो मुका (रामचन्द्र जीका ) सराग परिणाम नहीं है तो वह बंध तो नहीं सका | इसी तरह छुड़ाने की भी बात समझना । कोई जीव सोचे कि मैं श्रमुकको मुक्त वनादू और अमुकके वीतराग परिणाम न हो तो श्रमुक मुक्त तो नहीं हो जायगा । श्रतः सभी श्रध्यवसान मिथ्या हैं ।
१८४ - अज्ञानी जीव निष्फल रागादिभावसे मोहित होकर किसी भी परभाव को अपने रूप करता रहता है। जैसे नारकादिभाव होते हैं, नरकगत्यादिकर्मके उदयसे और अज्ञानी जीव मैं नारकी हूं आदि प्रतीति से अपनेको नरकादिरूप करता है । अथवा जैसे हिंसारूप भावके द्वारा अपनेको हिंसक करता है इत्यादि ।
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१८५ - इतना ही नहीं, किन्तु अज्ञानी जीव ज्ञेय पदार्थों को भी अपरूप किया करता है। जैसे कि धर्मास्तिकायको जानता हुआ मानता है कि मैं धर्मास्तिकाय हूँ । पुद्गलको जानता हुआ मानता "मैं पुद्गल हूं", अन्य प्राणीको जानना हुआ मानता है कि मैं यह प्राणी हूँ। यहां यह प्रश्न होना प्राकृतिक है कि ऐसा तो कोई विकल्प नहीं करता । समाधान यह है कि जैसे घटाकारपरिगत ज्ञान उपचारसे घट कहा जाता है इसी प्रकार से धर्मास्तिकाय आदिकी परिच्छित्तिरूप जो विकल्प है वह भी उपचार से धर्मास्तिकायादि रूप कहा जाता है। जब जीव "यह धर्मास्तिकाय है" ऐसा विकल्प करता है तब धर्मास्तिकाय भी उपचार से किया हुआ होता है । तात्पर्य यह है कि मोही जीव ज्ञयाकार विकल्प से विलक्षण स्वरूप वाले निज तत्त्वकी प्रतीति नहीं कर सकता ।
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(६४)
समयसारखष्टान्तमम
१८६-जो जीव सर्व परभावोंसे भिन्न शुद्ध चैतन्यमात्र समयसार की प्रतीति नहीं कर सकता वह वाह्य दुर्धर तप, व्रतके अनुष्ठान करके भी निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि आत्मविकास वाह्यक्रियापर निर्भर नहीं है । अज्ञान भावके होनेपर अध्यवसान होते ही हैं। वह सब अध्यवसान बन्धका ही कारण है । अब यहां प्रश्न यह हो सकता है कि इन रागादि अध्यवसानोंके होनेमें निमित्त क्या है, क्या आत्मा निमित्त है अथवा परपदार्थ ? उत्तर-जैसे स्फटिक मणि अपने आप स्वच्छ है वह ललाई आदि रंग रूप यों ही आप नहीं परिणम जाता है, किन्तु लाल
आदि पर द्रव्योंके सम्बन्धके निमित्तसे लाल आदि रंग रूप परिणमता है। इसी प्रकार ज्ञायक आत्मा अपने आप शुद्ध है वह रागादिरूप यों ही आप नहीं परिणम जाता है, किन्तु रागादि प्रकृति वाले कर्मरूप परद्रन्यके उदयके निमित्तसे रागादिरूप परिणमता है।
१८७-तथा जैसे लोकमें अनेक बातें निमित्तनैमित्तिकताको सिद्ध करती हैं वैसे यहां शगादिभावमें निमित्तनैमित्तिकता जाननी । यदि परद्रव्य निमित्त नहीं होता तो द्रव्य-प्रत्याख्यान व भाव-प्रत्याख्यान ये दो भेद ही कैसे बनते । द्रव्यका (वाह्य वस्तुका) जो त्याग नहीं करता वह तद्विषयक भावका भी त्याग नहीं कर सकता । इससे निमित्तनैमित्तिकता तो परके साथ बन गई । जैसा खावे अन्न तैसा होवे मन इसमें भी तो परद्रव्यका निमित्तपना आया । जैसे पापनिष्पन्न अथवा उद्दिष्ट आहारको जब कोई नहीं छोड़ता तो वह बन्ध साधक भावको भी नहीं छोड़ता। इसी प्रकार आत्माके रागादि भाव होनेमें कर्म परद्रव्य निमित्त है। कर्म परद्रव्य संयोग छूटे रागादि भी छूट जाते हैं।
१८-कर्म पर द्रव्य कैसे छूटते हैं यह आखिरी एक समस्या है ? उसका हल यह है कि कर्मवन्ध होता है परके कर्ता या कराने वाले या अनुमोदना करने वाले बननेके आशयसे, सो सर्व पर द्रव्योंका मात्र ज्ञाता रहे, न आशयमें कर्ता बने न कारयिता बने न अनुमोदयिता बने तो कर्मवन्ध हट जाता है । जेसे आहारका न कर्ता बने न कारयिता बने
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मोक्ष अधिकार
(६५) और न अनुमोदयिता वने याने मन वचनकाय कृत कारित अनुमोदनारूप नव विकल्पोसे जो साधु आहारके विषयमे शुद्ध है तो परकृत आहारके विषयमे वन्ध नहीं है । यदि परके परिणामसे बन्ध होने लगे तो कभी भी निर्वाण नही हो सकता । इस तरह रागादिकी उत्पत्तिमे निमित्तभूत पर द्रव्य है तो भी स्वतन्त्र सत्तात्मक यथार्थ स्वरूपके ज्ञानसे निमित्त, संयोग भी स्वयं हट जाता और आत्मा रागादिरहित हो जाता है।
इति बन्धाधिकार समाप्त
मोक्ष अधिकार १८६ - अव मोक्ष तत्त्वके सम्बन्धमे प्रथम यह विचार किया जाता है कि कर्मसे मुक्त होने का उपाय क्या है ? कोई पुरुप ऐसा मानते हैं कि कर्मवन्धके स्वरूपक परिज्ञानमानसे जीव कर्मसे मुक्त हो जाता है सो यह बात नहीं है । जैसे कोई कैदी यह जाना करे कि ये वेड़ियां इस तरह पड़ी है, अमुक दिन पड़ी हैं, ऐसी कठोर है, तो क्या इतने ज्ञानसे केदीकी वेड़ियां खुल जायेंगी ? नहीं। वेड़ियां तो वेड़ियोंके वन्धके छेदनसे ही दूर होगी । इसी प्रकार कोई जीव यह जाना करे कि अमुक कर्म इस प्रकृतिका है, इतनी स्थिति है, ऐसा अनुभाग है, इस परिणामके निमित्तसे बन्धा है, तो क्या मात्र इतने जाननेके कारणसे वह बन्धसे मुक्त हो जायगा' नहीं । वन्धसे मुक्ति तो वन्धके छेदनसे ही होगी याने मोह, राग, द्वेपरूप परिणमन व अनंतज्ञानादि गुणमय आत्मस्वरूपमें प्रज्ञा द्वारा भेद करके निजपरमात्मस्वरूपमें स्थित होनेसे ही बन्धनसे मुक्ति होगी।
१९८-कोई जीव ऐसा भी सोचते हैं कि बन्धसे छूटनेके चिन्तन, ध्यानसे मुक्ति हो जायगी सो यह भी वात नहीं है । जैसे कि कोई कैदी यह चिन्ता अथवा ध्यान किया करे कि 'मैं वेडीसे छूट जाऊं, मेरी बेड़ी टूट जाय तो क्या इस चिन्तासे बेड़ी कट जायेंगी? नहीं। बेड़ी तो वेडीके
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(६६)
समयसारदृष्टान्तमम कटनेसे ही टूटेगी। इस प्रकार कोई चिन्तन किया करे कि कर्म छूट जावे, बन्धन नष्ट हो जावे तो क्या इतने चिन्तन मात्रमें बन्धनसे मुक्ति हो जावेगी ? नहीं । बन्धन तो बन्धके छेदसे ही मिटेगा । भले ही एक प्रकार के इस धर्म-ध्यानसे पुण्यवन्य हो जाय परन्तु इससे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
१६१-जैसे कोई वन्धनमें बंधा हुआ पुरुष अपने ज्ञान व पुरुषार्थ के वलसे रस्सीका बन्धन है तो उसे तोड़कर, सांकलका बन्धन है तो उसे फोड़कर, काठका वन्धन है तो उसे छुटाकर मुक्त (स्वतन्त्र) हो जाता है। इसी प्रकार जीव तो विभाव, कर्म व शरीरके बन्धनमें बद्ध है सो वह . भेदविनान व पुरुषार्थक बलसे विभावोंको बेदकर, कोको भेदकर, शरीर को छुटाकर मुक्त (स्वतन्त्र) हो जाता है।
१६२-बन्ध छेदका उत्तर उपाय निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान है। इस परिणमनमें कुछ भी विकल्प (ग्रहण) नहीं है, ऐसा नहीं जानना किन्तु शुद्धात्माका संवेदन (ज्ञानरूप विकल्प) है अर्थात् स्वसंवेदनाकाररूप एक विकल्पसे परिणत है सो इस रूपसे सविकल्प है। यद्यपि यह परिणमन स्वसंवेदन रूपमे सविकल्प है तो भी वाह्यविषयक विकल्प न होनेसे वह निर्विकल्प ही है। वैसे लोको विपयानन्दरूप सराग स्वसंवेदन ज्ञान इस विषयक विकल्प होनेसे सविकल्प. है, तो भी इनर अन्यविषयक विकल्प न होनेसे लौकिक प्टिका निविकल्प कहा जाता है । अथवा दोनों जगह अन्य विषयक सूक्ष्म विश्ल्प बिना चाहे हैं उनकी मुख्यता न होनेसे निर्विकल्प हैं।
१९३-वन्धछेदका मृल उपाय भेदविज्ञानरूपी छनी है। जैसे हथौड़े के प्रयोगकी प्रेरणासे ठंनी द्वारा अनेकके संयोगसे हुए पिण्डके दो टुक कर दिये जाते हैं, इसी प्रकार ज्ञानभावनाकी प्रेरणासे भेदविज्ञानके द्वारा स्वभाव विभावके सम्बन्धको पृथक् कर दिया जाता है।
१६४-यहां भेदविज्ञान यह होता है कि आत्मा तो चैतन्यस्वरूप : कि त्रिकाल है व वन्ध मिथ्यात्वरागादिक विभावस्प है नो त्रिकाल
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मोक्ष अधिकार
(६७) नहीं है अतः ये भिन्न हैं। रागादिका जो चैतन्यके साथ उठना है याने
चेननमें झलकना है वह चेत्यचेतक भावके कारण हैं, एक स्वरूप होनेके कारण नहीं है सो रागादिका झलकना तो और यही सिद्ध करता है कि
आत्मा चेनन है, उसका स्वरूप चेतना है। जैसे कि दीपकके होनेपर घटादिक पदार्थ प्रकाशित होते हैं सो यह प्रकाश्यप्रकाशकताके कारण हैं, एक पदार्थके कारण नहीं। यहां भी घटादिका प्रकाशित होना यही सिद्ध करना है कि प्रदीप प्रकाशकता स्वभाव वाला है।
१९५- इस आत्माका ग्रहण प्रज्ञा द्वारा करना चाहिये । पहिले ज्ञासे भेद किया था कि मै चैतन्यस्वभाव हू व रागादि बन्धस्वभाव हैं। अब चैनन्य स्वभावको ग्रहण करना कि मैं चेतने वाला हू, चेतता हुआ चेतता हू , चेतने वालेको चेतता हूँ, चेनयमानके द्वारा चेतता हूँ, चेतयमान' के लिये चेतता हूँ, चेनयमानसे चेतता हू, चेतयमानमे चेतता हूं, फिर निर्विकल्प स्वरूप अनुभव करके इन विकल्पोका भी निषेध करके ऐसा अनुभव करे कि मैं सर्व विशुद्ध चैतन्यमात्र हूं। इस प्रकार जो निज तत्त्व का ग्रहण करता है वह वन्धनको प्राप्त नहीं होता और जो निज तत्त्वकी दृष्टिसे च्युत होकर पर द्रव्यका ग्रहण याने "ममेदं, अहमिदं वा" विकल्प करता है वह वन्धनको प्राप्त होता है क्योंकि परद्रव्यका ग्रहण करनेसे वह अध्यात्म चौर है । जैसे जो चोरी करता है याने परकी चीनको अपनी बनाता है वह शकित रहता है व बंधता है, इसी प्रकार जो पर पदार्थको अपना मानता है याने ग्रहण करता है, वह भी शङ्कित होता है व बंधता है।
१६६-तथा जैसे जो परद्रव्यका ग्रहण करता है वह चौर दण्ड पाकर शुद्ध होता है पाश्चात् निःशङ्क हो जाता है । इसी प्रकार परद्रव्यका राग आदि रूप ग्रहण करता है वह प्रतिक्रमणादिरूप दण्ड पाकर शुद्ध होता है पश्चात् निःशङ्क शुद्धात्माराधनामें लग जाता है।
१६७-और, जो पर द्रव्यका ग्रहण वाञ्छा भी नहीं करते हैं वे प्रथमतः एव दण्डकी सम्भावना बिना निःशङ्क रहते हैं और अपनी प्रवृत्ति
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(६८) समयसारदृष्टान्तमर्म में, कृतिमे रत रहते हैं, इसी प्रकार जो रागादि अपराध नहीं करते वे प्रतिक्रमणादि दण्ड पाये बिना ही निःशङ्करहते हैं और निर्दोष निजपरमात्मतत्त्वकी आराधनामें रत रहते हैं।
१६८-साधुजन अज्ञानियो जैसे होने वाले अप्रतिक्रमणसे बचने के लिये प्रतिक्रमण करते हैं और प्रतिक्रमण की प्रवृत्तिसे भी परे होने के लिये सर्व विशुद्ध अप्रनिक्रमण याने मात्र ज्ञाता द्रप्टा रहने रूप निविकल्प परिणति करते हैं, इसको तृतीय भूमिका कहते है । लोक जैसे विपकुम्भ उसे कहा जाता है जिसमें ऐसा विप रहता है कि जिसके पान करनेसे जीवकी मृत्यु हो । इसी प्रकार अध्यात्ममें अज्ञानिजन-संभव अतिक्रमण तो विपकुम्भ है ही, किन्तु प्रतिक्रमणको भी एक विकल्प अंश होनेसे विगकुम्भ कहा है । यह पूर्व अप्रतिक्रमणकी अपेक्षा अमृतकुम्भ कहा जा सकता है सो यदि तृतीय भूमिकाके अप्रतिक्रमणका स्पर्श हो तो।
१६६-लोकमे जैसे अमृतकुम्भ उसे कहा जाता है जिस अमृनके पानसे सर्व प्रकार हित ही हित हो, ऐसे अमृतपूर्ण कुम्भको। इसी प्रकार सर्वथा अध्यात्ममें सर्वथा अमृनकुम्भ तो वह ही है जिसके आश्रयसे अथवा जिस आश्रयमें सर्व प्रकार हित ही हित है, विकल्प अंशका नाम ही नहीं है । ऐसा सर्वथा अमृनकुम्भ तो तृतीय भूमिकाका अप्रतिक्रमण है। यह तृतीयभूमि शुद्धात्मसिद्धि रूप है, निवि कल्प निश्चयात्नत्रय स्वरूप है । यह पद वन्धरहित है व स्वयं मोक्ष स्वरूप है।
इति मोक्ष अधिकार समाप्त
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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार २००--जिस स्वरूपसे आत्माके देखे जानेपर व जिसका आश्रय करनेसे निर्मल पर्याय प्रकट होती है अर्थात् मोक्ष मार्ग व मोक्ष प्राप्त
है वह आत्मा अन्य सबसे न्यारा ज्ञानमात्र सर्वविशुद्ध है। उसकी म टवोत्कीर्णवत् प्रक्ट होती है । जैसे कोई प्रतिमा पापाणसे प्रकट
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सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार (६६) होती है वह किसी पदार्थ से बनाई नहीं जाती, जो प्रकट हुई है वह चीज उस पापाणमे थी। अगल वगलके पत्थर खण्ड दूर हुए कि वह प्रकट हो गई । इसी प्रकार समयसार जो प्रकट होता है अथवा शुद्ध आत्मा जो प्रकट होता है वह किन्हीं पदार्थसे नहीं आता वह तो सदा अन्तः प्रकाशमान है, राग, द्वेष आदि अज्ञान भाव अंश दूर हुए कि वह प्रकट हो गया।
२०१-तथा जैसे आत्मा किन्हीं अन्य पदार्थोंसे नहीं बनता है, प्रकट नहीं होता वैसे ही अन्य कोई पदार्थ आत्मासे नहीं बनते, प्रकट नहीं होते । इसका कारण यह है कि सर्व द्रव्योंकी परिणतियोंका खुदके द्रव्यमे ही तादात्म्य होता है, जैसे कि सुवर्णको कट क, कुण्डल आदि जो जो भी परिणतिया होती हैं उन तादात्म्य सुवर्णमें ही तो होता है, सुनार या पहिनने वालेमै तो नहीं होता । जब परिणतियां स्वयं स्वयंकी रवयं स्वयमे होती तव एक पदार्थका दूसरे पदार्थके साथ कर्ताकर्मभाव कैसा । अतः आत्मा अजीवका अकर्ता है, कोई भी अजीव जीवका कर्म नहीं है । और जैसे आत्मा परका कर्ता नहीं है, वैसे ही परका मोचक (छोड़ने वाला या छुड़ाने वाला) भी नहीं है । इस तरह परम शुद्ध (सर्व विशुद्ध) निश्चयनयसे जोव न वन्धका कर्ता है और न मोक्षका कर्ता है अथवा जीव वन्ध मोक्षकी रचनासे रहित है।
२०२-फिर जीवका कर्म प्रकृतियोसे बन्ध क्यो हुआ ? इसका समाधान यह है कि यह सब अज्ञानकी महिमा है। जो कुछ यह सव विभावरूप वात उत्पन्न हो रही है वह निमित्तनैमित्तकताका परिणाम है। जव स्व परका यथार्थ स्वलक्षणका ज्ञान नहीं होता तव जीवको पर व स्वमें एकत्वका अध्यास होता है सो कर्ता वनकर यह जीव कर्मोदयका निमित्त पाकर नाना रूपों में उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और जीव इस अज्ञान भावको निमित्त पाकर कर्म भी नाना रूपोंमें आता है। इस प्रकार कर्ताकर्मभाव तो नहीं है किन्तु परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है। इसी कारण कताकर्म व्यवहार है व भोक्ता भोग्य व्यवहार भी है। अज्ञान दूर
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हुआ अर्थात् स्व परका यथार्थ यथार्थ स्वलक्षण ज्ञात हुआ कि यह बन्ध दूर हुआ, भोग भी दूर हुआ श्रज्ञानी जीव ही कर्मफलभोक्ता होना है | - जैसे सर्य को गुड़ व दूध भी पिलाया जावे तो भी वे निर्विष नहीं होते । इसी तरह जब तक श्रज्ञान भाव है यह अज्ञानी जीव शास्त्रोंका भी अध्ययन करले, किन्तु प्रकृतिस्वभाव (रागादिभाव) को नहीं छोड़ता है । प्रकृतिस्वभावमें स्थित होकर अज्ञानी जीव कर्मफलको भोगता है ।
२०३ - ज्ञानी जीव न तो कर्मको करता है और न कर्मको भोगता है वह तो ज्ञान बल के कारण स्त्रमें तृप्त रहना है व कर्मवन्ध, कर्मोदय, कर्मफल, कर्मनिर्जरा व मोक्षको जानता है । पर द्रव्यको अहं रुपये अनुभव करने में अशक्त होनेसे ज्ञानी कर्मका कर्ता भोक्ता नहीं होता है । जैसे दृष्टि (नेत्र) अग्नि को देखता है किन्तु अग्निका कर्ता या भोक्ता नहीं है । यदि दृष्टि अग्निको करने लगे तो अग्नि के देखनेसे श्रग्नि बल उठना चाहिये या दृष्टि अग्निको भोगने लगे तो अग्नि के देखनेसे नेत्र संतप्त हो जाना चाहिये । सो तो होता नहीं है । श्रतः दृष्टि न तो अग्निका कर्ता और न अग्निका भोक्ता है, केवल द्रष्टा है । इसी प्रकार ज्ञान भी केवल देखनदार (जाननदार) स्वभाव वाला होने के कारण कर्मोदय आदिको मात्र जानता है, करता त्र भोगता नहीं है ।
२०४ - यद्यपि रागादिक आत्मा के परिणमन है तो भी आत्मा स्वभावसे रागादिकका कर्ना नहीं है, क्योंकि आत्मा यदि इसका कर्ता हो हो जावे तो आत्मा तो नित्य है सो वह रागादिका नित्यकर्ता हो जायगा फिर आत्माका मोक्ष कैसे हो सकेगा ? नहीं हो सकेगा। जैसे कि जो लोग यह मानते कि एक कोई विष्णु मनुष्य देव आदि बनाता है व रागादि कार्य कराता है तो उनकी मान्यतामें मोक्ष कैसे हो सकता ? नहीं हो सकता, क्योंकि जीवका परिणमन ईश्वराधीन है ईश्वरकी मर्जी हो तो सिद्धि हो सो उसको मर्जी होती ठीक तो पहिले से ही दुःखी क्यों बनाया | अतः यह निश्चय करना कि आत्मा स्वभावसे रागादिका कर्ता 'भी नहीं है। रागादि परिणमन तो पुद्गल कर्मोदयको निमित्त पाकर
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श्रात्माके विकार रूप हैं। तथा निश्चयसे तो यही बात है कि पर द्रव्यका आत्माके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है नव क कर्मका भी सम्बन्ध नहीं और इसी कारण श्रात्मा रागादि व कर्मादिका कर्ता भी नहीं है।
२०५-केवल व्यवहारनयसे "पर द्रव्य मेरा हे" ऐसा कहा जाता है । निश्चयसे तो परमाणुमात्र भी कुछ मेरा नहीं है। जैसे कोई मनुष्य कहे कि ग्राम मेरा है, नगर मेग है तो यह मोहमें ही कहा जा सकता है या व्यवहारनयसे कहा जा सकता है। निश्चयसे तो ग्राम या नगर उसका नहीं है। यदि कोई व्यवहार हठी होकर मेरा ग्राम है ऐसा देखेगा तो वह मत्त ही है । इसी तरह यदि कोई ज्ञानी व्यवहार-विमूढ़ होकर पर द्रव्यको अपना बनाये तो वह मिथ्यावृष्टि हो जाता है।
२०६-यहां यह जिज्ञासा उत्पन्न होना प्राकृतिक है कि मिथ्यात्व परिणाम किसका कार्य है ? मिथ्यात्व परिणाम अचेतन प्रकृतिका ती कार्य है नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व प्रकृति तो अचेतन है अचेतनमें चैतन्य जैसे भाव नहीं हो सकते । मिथ्यात्व भाव जीव व प्रकृति दोनोंका मिलकर भी कार्य नहीं है क्योंकि यदि जीव व अचेतन प्रकृति दोनोंका कार्य मिथ्यात्व होना है, मिथ्यात्व परिणामका भोग अचेतन प्रकृतिको करना पड़ना, जैसे कि जीयको करना पड़ता । विना किया हुआ तो मिथ्यात्व है नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व भी तो एक परिणमन है, कार्य है। समाधान इसका यही पाना है कि मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय तो वहाँ निमित्त है
और कार्य है जीवका । यदि कहा जाय कि मिथ्यात्व प्रकृतिका ही कार्य है मिथ्यात्व परिणाम तथा जागना, सोना, बैठना, कपाय, ज्ञान, अज्ञान मभी कर्म प्रकृतिका कार्य हैं तो फिर यह बताओ कि क्या जीव अपरिणामी है ? यदि जीव अपरिणामी है तो फिर "नीय भी कुछ करता है" यह अर्पवचन मिथ्या हो जायगा । यदि कहो कि कम तो अज्ञानादि भावको करना है और जीव अपनेको द्रव्यरूप करता है, तो नीव तो द्रव्यरूपसे नित्य है सो नो नित्य है वह कार्य कैसे हो सकता क्योंकि नित्यपने व कार्यपनेका परस्पर विरोध है ? नीव तो द्रव्यरूपसे अवस्थित
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सन्यसारखष्टान्तमम असंख्यातप्रदेशी है सो इस दृष्टि में भी कार्य कसे हो सकता। हां जैसे पुद्गल स्कन्धों में कुछ प्रदेशीका निकल जाना कुछ अन्य प्रदेशोंका मिल जाना हुआ करता है ऐसा जीवमे हो जाता तो कार्य कह दिया जाना, किन्तु जीव नो अखण्ड है वहां कुछ प्रदेशोंका बिछुड़ना कुछका मिलना संभव ही नहीं। स्कन्ध नो द्रव्य नहीं वह तो पर्याय है। पर्याय-दृष्टि से पुद्गलमे इसका व्यवहार है।
२८७-यदि कहो कि जीवमें प्रदेशोका निकलना व आना तो नहीं होता किन्तु संकोच विस्तार तो होता है इससे जीवका कार्य कुछ न कुछ द्रव्य रूपमें भी सिद्ध हो जायगा । सो यह भी ठीक नहीं है क्योकि कार्य याने नवीन वान तो नव कहलाये जव कि नियत निजविरतार (लोकपरिणाम असंख्यात प्रदेश) से हीन या अधिक संकोच विस्तार किया जा सके । जैसे कि एक चमड़ेका टुकड़ा है वह चाहे सूखने पर संकुचित हो जाये और गीला होने पर विस्तृत हो जाये किन्तु उसका जितना परिमाण है उससे कम या अधिक तो नहीं होता। इस प्रकार लीव तो है यह वात द्रव्यरूपमें नहीं बनती, यह कार्यकी बात तो मिथ्यात्वादि परिणमन जीवका हो जाता है यह मानकर ही बनेगा।
२०८-अव यह वात सुसिद्ध है कि जीव द्रव्यरूपसे तो नित्य है और पर्यायरूपसे अनित्य है तभी ये दोनों बातें हैं कि जो करता है वही भोगता है अथवा करता और है व भोगता और है। इनमें किसी एक पक्षका एकान्त नहीं बन सकता । यदि यह माना जाय सर्वथा कि वही कर्ता वही भोगता तो पर्यायमें अन्य हुए विना भोगना कैसे बन सकता है । यदि यह सर्वथ माना जाय कि करने वाला अन्य है व भोगने वाला अन्य है तो इसमें मात्र पर्यायको दृष्टि रही। पर्यायमात्र ही आत्मा माना । सो जैसे धागा रहित मात्र मुक्ता देखने वाले जैसे हारको छोड़ देते हैं इसी प्रकार चैतन्यअन्वयगुणसे रहित मात्र पर्याय देखने वालोंने आत्मा ही छोड़ दिया और तव इस एकान्तमें न तो आत्मा रहा और ..माके अभावमें पर्याय भी न रहा । यह अनिष्टापत्ति आती है। अत:
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सर्व-विशुद्धज्ञानाधिकार (७३) यह सिद्धान्त ही युक्त है कि कथंचित् वही आत्मा करता है व वही भोगता है अथवा कथंचित् करने वाला और है व भोगने वाला और है। जैसे मनुष्यने तप किया, देव आयु वांधी और मनुष्य-मरणके बाद देवने उस आयु व पुण्यको भोगा। तो करने वाला मनुष्य है व भोगने वाला देव है, परन्तु जीव तो दोनों भवों में वही है अतः उस ही ने किया व उस ही ने भोगा। ये दोनों ही बातें सिद्ध हो जाती हैं।
२०६-अथवा कर्ता भोक्ता होओ व न होओ, इसकी चर्चा छोड़कर मात्र शुद्ध वस्तुका चिन्तन करो तो वहां तक शुद्ध चेतना मात्र ही चकासमान है । जैसे-सूतमें पोई हुई मणिमालिकाको केवल हाररूपमें देखो तो वहां केवल वही एक हार चकासमान रहता है।
२१०-निश्चयसे कर्ता व कर्म एक ही वस्तु होती है, केवल व्यवहारसे ही ऐसा देखा जाता है कि कर्ता अन्य है, कर्म अन्य है। जैसे व्यवहारष्टिसे कहा जाता है कि सुनारने सोनेका कुण्डल बनाया, हथौड़े आदि करणोंके द्वारा बनाया, हथौड़े आदि करणोंको ग्रहण किया, इनाममें मिले हुए ग्राम आदिक कुण्डलकर्मफलको भोगा। यहाँ निश्चय दृष्टिसे, स्वरूपदृष्टिसे देखो कि क्या सुनार व हथौड़ा या सुनार व सोना या सुनार व गांव क्या सव एकरूप हो गये? नहीं हुए। इस कारण निमित्तनैमित्तिक भाव मात्रके हेतु अन्य अन्य पदार्थों में कर्ता कर्म व भोक्ता भोग्यका व्यवहार हुआ । इसी प्रकार व्यवहारदृष्टिसे कहा जाता है कि आत्माने पुण्य पाप कर्म किया, काय वचन मनके द्वारा किया, काय वचन मनको ग्रहण किया, सुख दुःख आदि कर्मफलको भोगा। यहां निश्चयदृष्टि, स्वरूपष्टिसे देखो कि क्या जीव व पुण्य पापकर्म या जीव व काय वचन मन या जीव व सुख दुःख आदि कर्मप्रकृति क्या ये एक रूप हो गये १ नहीं हुए। इस कारण मात्र निमित्तनैमित्तिकभावसे ही अन्यका अन्यमें कर्ता कर्म भोक्ता भोग्यका व्यवहार हुआ ऐसा समझना।
२११-निश्चयनयसे तो जैसे वहां सुनारने अपनी ही चेष्टारूप कर्म किया है और अपनी ही चेष्टाका परिणाम क्लेशरूप भोगा। इसी
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(५४) समयसारदृष्टान्तमर्म प्रकार निश्चयनयसे तो जीवने अपनी चेष्टारूप आत्मपरिणाम किया व दुःखवेदनरूप निज चेष्टारूप कर्मके फलको भोगा । अतः एक द्रव्यमें ही परिणाम परिणामीभाव होनेसे आत्मा कर्ता, आत्मा कर्म, आत्मा भोक्ता व आत्मा भोग्य हुआ।
. २१२-जव निश्चयसे कर्ता कर्म भोक्ता भोग्य वही द्रव्य होता है अन्य अन्य नहीं, तब कोई एक वस्तु अन्य किसी वस्तुका कुछ भी नहीं है। केवल व्यवहारष्टिसे अन्यका अन्य कर्ता भोक्ता है अतः व्यवहारष्टि से अन्यका अन्य कहा जाता है। जैसे खड़िया एक सफेद वर्णवाला स्कन्ध है उसकी व्यवहारसे सफेद की गई भीट कही जाती है। यहां विचार करें कि क्या खड़िया भींटकी है या नहीं। यदि खड़िया भीटकी है तो जो जिसका होता वह उसमें तन्मय होता है जैसे कि आत्माका ज्ञान, इस न्यायसे खड़िया भीटकी होती हुई भीट ही हो गई। किन्तु कोई द्रव्य मिट जाय ऐसा तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यरूप परिणम ही नहीं सकता। इस तरह खड़िया भीटकी तो हुई नहीं। तब खड़िया किसकी है ? खड़ियाकी खड़िया है। वह दूसरी खड़िया क्या है जिसकी यह खड़िया हुई ? खड़ियाकी अन्य दूसरी खड़िया कुछ है ही नहीं याने दूसरी किसी खडियाका अस्तित्व नहीं, किन्तु एक ही खड़ियामे प्रश्नवशात् स्व-स्वामी अंशकी कल्पना की है वही व्यवहारसे अन्य अन्य है । इस स्वस्वामी अंशके व्यवहारसे क्या मिल जायगा ? कुछ नहीं । तब निष्कर्ष यह निकला कि खड़िया किसीकी भी नहीं है, खड़िया खड़िया ही है ऐसा जानो । इसी प्रकार जीव ज्ञानगुणनिर्भरस्वमावमय एक द्रव्य है उसका व्यवहारसे जाना गया पुद्गलादिक कहा जाता है। यहां विचार करें कि ज्ञायक प्रात्मा क्या ज्ञय पुद्गलादिकका हो जाता है या नहीं ? यदि पुद्गलादिक (ज्ञय) का आत्मा (ज्ञायक) है तो जो जिसका होता है वह उसमें तन्मय होता है । जैसे कि आत्माका ज्ञान, इस न्यायसे जीव पुद्गलादिकका होता हुआ पुद्गनादिकमय ही हो' ।। किन्तु कोई द्रव्य (जैसे यहां जीव) मिट जाय ऐसा तो है ही
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सर्व-विशुद्धज्ञानाधिकार (७५) नहीं क्योंकि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यरूप तो परिणम ही नहीं सकता। इस तरह आत्मा (ज्ञायक) पुद्गलादिकका (ज्ञयका) हुआ नहीं। तव ज्ञायक आत्मा किसका है ? ज्ञायक (आत्मा) ज्ञायकका ही है । वह अन्य • ज्ञायक कौन है जिस ज्ञायक (आत्मा) का यह ज्ञायक (आत्मा) बने ? कोई नहीं, किन्तु कल्पना किये गये स्व-स्वामी अंश ही अन्य अन्य है । इस स्व स्वामी अंशक व्यवहारसे क्या मिल जायगा ? कुछ नहीं । तव निष्कर्ष यह निकला कि ज्ञायक किसीका ज्ञायक नहीं है किन्तु ज्ञायक ज्ञायक ही है ऐसा जानो।
. २१३-उक्त प्रकारसे जैसे खड़िया भीटकी नहीं, किन्तु खड़िया खड़ियाकी है। अन्य कोई दूसरो वह खड़िया नहीं जिसकी खड़िया यह हो, सो यह ही सिद्ध है कि खड़िया खड़िया ही है। इसी प्रकार दर्शक आत्मा किसी अन्य पदार्थका नहीं है किन्तु दर्शक (आत्मा) दर्शकका ही है, वह अन्य कोई दर्शक नहीं जिस दर्शकका यह दर्शक हो, सो यह ही सिद्ध है कि दर्शक दर्शक ही है।
२१४-इस हो प्रकार जैसे खड़िया याने श्वेतयित्री भीटकी नहीं है। वैसे ही अपोहक यह आत्मा किसी अन्य पदार्थका नहीं है। अपोहक (आत्मा) अपोहकका ही है। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि जानना, देखना व अन्य सवसे परे रहना आत्माका ही परिणमन है, इससे कहीं आत्मा परका नहीं हो जाता है।
२१५-जैसे यद्यपि खड़िया भीटकी नहीं है क्योंकि खड़िया भींट के स्वभावसे परिणमती नहीं व खड़िया अपने स्वभावसे भीटको परिणमाती नहीं, तो भी भीटका निमित्त पाकर खड़िया अपने इस प्रकारके विस्तृत श्वेतपनेके स्वभावसे परिणम गई और खड़ियाके निमित्तसे भीट
अपने स्वभावके परिणामसे दिखने में श्वेतरूपसे वन रही है। इसनिमित्तनैमित्तिक सम्बन्धके कारण संयोग दृष्टिसे ऐसा कहा जाता है कि खड़ियाने भीटको सफेद की। यह व्यवहारका वर्णन है। इसी प्रकार यद्यपि ज्ञायक पर पदार्थका नहीं है, क्योंकि ज्ञायक आत्मापर पदार्थके स्वभाव
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से परिणमता नहीं है और पर पदार्थको ज्ञायक अपने स्वभावसे परिणामाता नहीं है, तो भी पुद्गलादिक पर द्रव्यके निमित्तसे याने जाननका विषय पुद्गलादिक होनेसे आत्मा (ज्ञायक) अपने ही ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावके परिणामसे परिणम जाता है और पुद्गलादिक पर द्रव्य ज्ञायक आत्माके जानन परिणाम के निमित्तसे अपने ही स्वभावसे ज्ञयरूप होते हैं । अतः इस निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध के कारण संयोग दृष्टिमें यह प्रतीत होता है कि ज्ञायक आत्मा अपने स्वभावसे पुद्गलादिको जानता है । यह मात्र व्यवहारका वर्णन है ।
२१६ -- जैसे कि यद्यपि श्वतयित्री खड़िया श्वत्य भटकी कुछ नहीं है तो भी इनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव होनेसे श्वेतायत्री खड़िया भींट की है ऐसा व्यवहार किया जाता है । इसी प्रकार यद्यपि दर्शक यह आत्मा पुद्गलादिक दृश्य पदार्थोंका कुछ नहीं है तो भी दृश्य पदार्थों का विषय करता दर्शक आत्मा, देखने रूप क्रियासे परिणमना है और दर्शक आत्मा के विषय होनेसे पदार्थ दृश्य कहलाते हैं । अतः यह व्यवहार किया जाता है कि दर्शक (आत्मा) दृश्य (पदार्थों) का है । यह मात्र व्यवहारका व्याख्यान है ।
२१७ - इसी प्रकार जैसे यद्यपि, खड़िया श्व ेतयित्री श्वेत्य भींटकी नहीं है तो भी इनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध होनेसे खड़िया श्वेतयित्री श्वेत्य भटकी है ऐसा व्यवहार किया जाता है। इसी तरह यद्यपि पोहक (त्याग करने वाला) आत्मा अपोहा ( त्याज्य) पदार्थोंका नहीं है तो जिन पदार्थों त्रिपयक विकल्पसे यह आत्मा अलग हुआ है अथवा स्वभावतः अन्य पदार्थोंसे परे रहता है, उन सब पदार्थोंका व आत्माका पोह्य अपोहक व्यवहाररूप सम्बन्ध के कारण ऐसा व्यवहार में कहा जाता है कि पोहक (आत्मा) अपोहा (पदार्थों) का है।
इस प्रकार उक्त प्रकारोंसे आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र शक्तिकी ८. तियोंको निश्चय व व्यवहार दो रूपोंमें देखनेका प्रकार है। इसी अन्य पर्यायों में भी लगा लेना चाहिये ।
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२१८ - जैसे कि लोक में देखा जाता है कि चांदनी छिटकती है, किन्तु चांदनीकी भूमि नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञान ज्ञयको जानता है यह ज्ञानके स्वभावका उदय है इससे कहीं ज्ञानका ज्ञ ेय या ज्ञयका ज्ञान वन जाय सो नहीं हो सकता । इससे यह शिक्षा लेना चाहिये कि अन्य द्रव्यों की ओर आकृष्ट होकर निज तत्त्वके उपयोगंसे क्यों च्युत हुआ नाय तथा यही भावना करना चाहिये कि ज्ञान तो ज्ञान ही रहे व ज्ञ ेय ज्ञ ेय ही रहे, क्योंकि जब तक ज्ञान ज्ञ ेयकी स्वतन्त्रताके भानरूप ज्ञानभानुका उदय नहीं होता तब तक राग द्वेषकी वृत्ति चलती है ।
२१६ - आत्माका दर्शन, ज्ञान, चारित्र श्रात्मामें ही है न तो विषयों में है, न शरी में है और न कर्मोंमें है, अतः इस अचेतन पदार्थोंके संग्रह विग्रहसे श्रात्माका सुधार विगाड़ नहीं होता, फिर क्यों अन्य पदार्थों की ओर आकर्षण हो । यदि आत्माका गुण इन अचेतनों में होता तो इन अचेतनोंके घातसे आत्माका अथवा दर्शन ज्ञान चारित्रका घात हो जाता व दर्शन ज्ञान चारित्र घात होनेपर पुद्गल द्रव्यका घात हो जाता । किन्तु, ऐसा है तो नहीं। इससे यह सिद्ध है कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र अचेतनोंमें नहीं है । जैसे कि दीपक दीपघट में नहीं है । यदि दीपक दीपघट में होता तो दीपके बुझ जानेपर दीपघट फूट जाता व दीपघटके दरकने पर दीपक दरक जाता । किन्तु, ऐसा हैं तो नहीं। इससे यह सिद्ध है कि दीप दीपघट में नहीं है । इसी प्रकार राग द्वेप भी जो कि चारित्र गुणके विकार हैं, अचेतन पदार्थों में नहीं पाये जाते हैं। साथ ही यह भी वात है कि राग द्वेष सम्यग्दृष्टि (या सम्यक्त्व परिणमनके) होते नहीं हैं, तो इस प्रकार यही प्रतीत हुआ कि सम्यग्दृष्टिके राग द्वेष नहीं होते ।
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२२० -- राग द्वेपादिकों को कर्म अथवा आश्रयभूत अन्य पदार्थ उत्पन्न कर ही नहीं सकते । क्योंकि, यद्यपि राग द्वेषादि आत्माके स्वभाव नहीं सो स्वयं नहीं होते तथापि कर्मदशाका निमित्त पाकर आत्मा ही का तो विकार बनता है सो जीवके हुआ करते । कर्मोदयं तो निमित्त मात्र है | सभी द्रव्य अपनी अपनी शक्तियोके परिणमनसे उत्पन्न होते हैं ।
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(4) समयसारदृष्टान्तमर्म अन्य द्रव्य किसी अन्य द्रव्यके गुणों का उत्पाद नहीं कर सकता। जैसे कि मिट्टी जो कुम्भभावसे याने घड़ेके परिणमनसे उत्पन्न होती है अर्थान परिणमती है । वह मिट्टीके स्वभावसे ही याने मिट्टीकी शक्तिके परिणमन से ही उत्पन्न होती है, कुम्भकारके स्वभावसे उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि यदि वह मिट्टी कुम्भकारके स्वभावसे उत्पन्न होती तो कुम्हार पुरुपके शरीरके आकार घड़ा वनता सो ऐसा तो है नहीं और मिट्टीके गुण धर्म घड़ेमें पाये जाते हैं, अतः कुम्हारके स्वभावको न छूती हुई मिट्टो हो कुम्भभावसे उत्पन्न होती है यही सिद्ध है। इसी प्रकार सभी द्रव्य अपने अपने परिणमनसे पर्यायरूपसे उत्पन्न होते हैं, निमित्तभूत अन्य द्रव्यके स्वभावसे उत्पन्न नहीं होते । आत्मा भी अपने गुण-परिणमनसे पर्यायरूप से उत्पन्न होता है अर्थात रागादि पर्यायरूपमें परिणमता है वह निमित्तभूत अन्य द्रव्यके स्वभावसे उत्पन्न नहीं होता। अतः नव रागादिक भावों के उत्पादक पर द्रव्य है ही नहीं तव किस प्रकार द्रव्यकी ओर आकर्षित होना या क्रोध करना, किसीकी ओर नहीं।
२२१-निन्दा या स्तुतिके वचन भी क्या हैं ? विशिष्ट पुद्गलवर्गणा (भाषावर्गणा) के परिणमन हैं । ये शब्द जीवको नवर्दस्ती नहीं करते हैं कि तुम हमको सुनो और न जीव अपने स्थानसे च्युत होकर उनको जाननेके लिये जाता है । इसका कारण यह है कि किसी भी वस्तुका भाव किसी अन्य द्रव्यके द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता। जैसे कि प्रकाशमान दीपकको निमित्त पाकर प्रकाशित हुए घट पटादिक पदार्थोने न तो दीपकको जबर्दस्ती की कि तुम हमको प्रकाशित करो और न दीपक अपने स्थानसे च्युत होकर घट पटादिक पदार्थोको प्रकाशित करनेके लिये जाता है। इसका भी कारण यह है कि पर पदार्थ अन्य पर पदार्थको उत्पन्न करने में असमर्थ है।'
२२२-इसी प्रकार जैसे कि दीपकको घटादि पदार्थ जवर्दस्ती नहीं करते कि हमें प्रकाशित करो और न दीपक अपने स्थानसे च्युत होकर पदार्थोको प्रकाशित करनेके लिये जाना है । उसी प्रकार रूप, रस, गंध,
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स्पर्श आत्मा पर जबर्दस्ती नहीं करते कि तुम हमें देखो, स्वादो, सूघो, छुवो और न श्रात्मा अपने स्थानसे च्युत होकर रूपादिका विषय करने के लिये जाता है । इसी तरह गुण, द्रव्य आदि भी आत्मापर जबर्दस्ती करते हैं कि तुम हमें जानो और न आत्मा अपने स्थानसे च्युत होकर गुण, द्रव्यादिको जाननेके लिये जाता है ।
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२२३ -- जब ऐसा स्वरूप है तब जैसे घट पटादि पदार्थों के प्रकाशित हो जाने से दीपक में विकार पैदा नहीं होता कि कहीं काले घटके प्रकाशित हो जाने से दीपक काला हो जाय या तिखूंटी तिपाई के प्रकाशित हो जाने से दीपक तिखूंटा हो जाय आदि । इसी प्रकार मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषयोंके ज्ञेय हो जाने से आत्माको (ज्ञानको) विकृत नहीं हो जाना चाहिये कि कुछ विषयो ज्ञ ेय होनेसे आत्मा मे हर्प उत्पन्न हो और कुछ विषयोंक ज्ञय होने से आत्मा विषाद उत्पन्न हो आदि । तो भी राग द्वेष होते हैं, इसका कारण अज्ञान ही कहा जा सकता है ।
२२४--चेतनाके विकास तीन प्रकारसे होते हैं - (१) ज्ञानचेतना, (२) कर्मचेतना, (३) कर्मफलचेतना । ज्ञानके अतिरिक्त अन्य तरङ्गों को करने व भोगने रूप न चेते किन्तु स्वभावको ही चेते वह तो ज्ञानचेतना है और ज्ञान से अतिरिक्त अन्य कर्मोंको मैं करता हूँ, ऐसा चेते वह कर्मचेतना तथा कर्मों के फलोको मैं भोगता हूं, ऐसा देते वह कर्मफल चेतना है । ज्ञानी जीव कर्मचेतनाका वहिष्कार करता है । यदि कोई क्रिया हो तो उसका ज्ञाता रहता है। ज्ञानी जीव कर्मफल के भोगनेका वहिष्कार करता है, यदि कोई कर्मफल आवे तो उसका ज्ञाता रहता है। ज्ञानी जीवके तव विचार उठे तो ऐसा उठता है कि ये कर्मफल मेरे भोगे विना ही गल जावो । जैसे विपवृक्षके फलोंके खानेका परिणाम घातक हैं, वैसे ही इन कर्मों के फलोंके भोगका परिणाम घातक है ।
२२५ - जिस ज्ञानका संचेतन ज्ञानचेतना है वह ज्ञान आत्मस्वरूप आत्मा ही है अन्य कुछ चाहे वह शब्द, रूप, शास्त्र, आकाश, रागादिभाव आदि कुछ हो, ज्ञान नहीं है । अतः वास्तव में ज्ञानकी अभेद
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(८०) समयसारप्टान्तमर्म उपासना ही मुक्तिका कारण है। यद्यपि ज्ञानोपासनामें उद्यत जीवोंके देहका लिङ्ग (चिह्न) निरारम्भ निष्परिग्रहका हो जाता है तो भी देहका लिङ्ग मोक्षका कारण नहीं है । जो लोग देहके लिङ्गसे ही मुक्ति माननेके कारण इस ही व्यवहारमें मुग्ध हो जाते हैं वे परमार्थका उपयोग नहीं कर सकते । जैसे किसी कुशल व्यापारीका धान्य खरीदनेका व्यापार देखकर कोई ऊपरी रंग ढगकी चीजमें सारका विश्वास रख धान्य जैसे रूप रंगका धान्यका छिलका उस भावमें खरीद लेता है तो चांवलको तो नहीं प्राप्त कर सकता।
इस प्रकार शुद्ध आत्मतत्त्व अर्थात् समयसारका यथार्थ स्वरूप जानकर उसके उपयोगमें रहना निर्विकार होनेका, शान्न प आनन्दमई होनेका उपाय है । इस ही के परिणाममें यह सर्वज्ञाता व सर्वदर्शी हो जाता है । इस पदमें सवका पूर्ण एक स्वरूप रहता है।
ॐ नमः शुद्धाय, ॐ नमः सहज सिद्धाय, ॐ शुद्ध चिस्मि । ॐ तत् सत।
ॐ शान्तिः, ॐ शान्तिः, ॐ शान्तिः । - इति सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार समाप्त
रोशनलाल शर्मा के प्रवन्ध से मोहन प्रिन्टिङ्ग प्रेस, मेरठ में छपी।
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आध्यात्मिक ज्ञान व विज्ञानके सरल साधनोंसे लाभ लीजिये
(धर्मप्रेमी वन्धुओं ! यदि आप सरलतासे आध्यात्मिक ज्ञान व विज्ञान चाहते हैं तो अध्यात्मयोगी पूज्यश्री मनोहर जी वर्णी सहजानन्द महाराजके इन प्रवचन और निवन्धोको अवश्य पढिये । प्राशा ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है कि इनके पढनेसे आप ज्ञान और शान्तिकी वृद्धिका अनुभव करेंगे।)
अध्यात्म सेट प्रात्मसंवोधन सजिल्द २)- अध्मात्मसूत्र प्रवचन पूर्वाद्ध ३) प्रात्मक परि० १ भाग
___, , उत्तर पूर्वभाग ३१) प्रात्मक परि० २ भाग
तत्त्वसूत्र सभावार्थ "सहजानन्द गीता सजिल्द १) धावक-पटकर्मप्रवचन धर्म प्रवचन सजिल्द
समयसार भाज्य पीठिका सं० ।मुग्व कहाँ
एकीभावस्त्रोत्र अध्यात्मध्व० वास्तविक्ता इग्लिश स० ) कल्याण मन्दिर स्तोत्र , ।) प्रानकीर्तन सार्थ ॥
विपापहार स्तोत्र ॥ अपनी बातचीत है
स्वानुभव) धर्म सामायिक पाठ
मेरा धर्म प्रात्मकीर्तन सचित्र
ब्रह्मविद्या सहजानन्द गीता (वडी) २।) प्रात्म उपासना तत्त्व रहस्य प्रथम भाग १) सहजानन्द डायरी मन् ५६ २) पध्यात्ममूत्र मार्थ ) सहजानन्द डायरी सन् ५७ २) ध्यात्म चर्चा (बड़ी) ) सहजानन्द डायरी सन् ५८ २) अध्यात्मचर्चा (छोटी) ॥) सहजानन्द डायरी परि० ५६ ॥) प्रवचनसार प्रवचन १ भाग ३) भागवत धर्म प्रवचनसार प्रवचन २ भाग ४) समयसार-मष्टान्त-मम प्रवचनसार प्रवचन ३ भाग २) समयसार महिमा 'प्रवचनसार प्रवचन ४ भाग ३) ममयसार प्रवचन १ म पुस्तक २॥) देवपूजा प्रवचन ३) समयसार प्रवचन २ य पुस्तक ३)
सान समयसार प्रवचन ३ य पुस्तक २१) पूरा अध्यात्म सेट लेने पर :) प्रति रुपया कमीशन होगा। २ ) पता:-श्री सहजानन्द शास्त्रमाला, १८५ ए. रणजीतपुरी सदर मेरठ (उ.प्र.)
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श्री सहजानन्द शास्त्रमाला
फी प्रवन्धकारिणी समिति के सदस्य (१) श्री मान ला० महावीर प्रसाद जी जैन बैस, सदर मेरठ ।
संरक्षक, अध्यक्ष व प्रधान ट्रस्ट्री (२) श्रीमती फूलमाला जी धर्मपली श्री ला० महावीर प्रसाद जी
जैन वर्स, संरक्षिका (३) श्रीमान वा० दयाराम जी जैन R. S. D.O. सदर मेरठ उपाध्यक्षा (४) श्रीमान् वा० आनन्द प्रकाश जैन वकील सदर मेरठ मन्त्री व स्ट्री। (५) श्रीमान् ला० शीतलप्रसाद जी जैन दालमंडी सदर मेरठ उपमन्नी। (६) श्री मान ला० सेमचन्द जी जैन सर्राफ सदर मेरठ सदस्य (७) श्रीमान् ला० सुमतिप्रमाद जी जैन दालमंडी सदर मेरठ, ट्रस्ट्री (८) श्रीमान् ला० मनचन्द जी जैन मुजफ्फरनगर, सदस्य (९) श्रीमान् ला० दीपचन्द जो जन देहरादून, सदस्य (१०) श्रीमान् ला• कृष्णचन्द जी जैन देहरादून, इस्ट्रो (११) श्रीमान् सेठग दन लाल जी शाह सनावद, इस्ट्री
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