________________
अथ कर्तृकर्माधिकारः (२३ ) इसे जानने वाला वह जीव क्या पुद्गलकमका कर्ता हो जावेगा याने क्या जीव पुद्गल कर्मपर्यायमें परिणम नावेगा? कभी नहीं।
६२-प्रत्येक पदार्थ मात्र अपनी ही वर्तमान पर्यायको व्यापकर ग्रहण करता है, व्यापकर उस ही पर्यायरूप परिणमता है, व्यापकर उस हो पर्यायरूपसे उत्पन्न होग है । जैसे कि मिट्टी ही व्यापकर मृण्मय घट अवस्थाको ग्रहण कर रही है, मिट्टी ही व्यापकर घट अवस्थारूप परिणम रही है, मिट्टी ही व्यापकर उस पर्यायरूपमे उत्पन्न है, उसको जानने वाला कुम्हार या अन्य पुरुष हो तो क्या उस पुरुपके साथ घटका कर्ताकर्मभाव बन जायगा ? कभी नहीं; इसी प्रकार प्रौद्गलिक कार्माणवर्गणायें ही व्यापकर कर्मरूप अवस्थाको ग्रहण करती हैं, म पर्यायरूपसे परिणमती हैं, कर्म पर्यायरूपमे उत्पन्न होती हैं, उसको जानने वाला वह नीव जिसके एक क्षेत्रावगाहमें पुद्गल कर्म भी है, क्या उस ज्ञाता जीवके साथ पुद्गल कर्मका कर्ताकर्मभाव हो जायगा ? कभी नहीं।।
६३-प्रश्न-आत्मा ज्ञानावरणके क्षयोपशमके अनुकूल अपने परिणामको जानता है, ऐसे इस श्रात्माका पुद्गलकर्मके साथ कर्ताकर्म भाव क्यों नहीं है ? उत्तर-आत्माका परिणाम आत्मामें ही व्याप्य है। आत्मपरिणामको आत्मा ही अन्तर्व्यापक होकर ग्रहण करता है, उस ही को परिणमाता है, उसही रूपसे उत्पन्न होता है। अत: आत्मा बाहर रहने वाले पुद्गल द्रव्यके परिणामका कैसे का हो जायगा। जैसे कलशको मिट्टी ही अन्तयापक होकर ग्रहण करती है, कलशको ही परिणमाती है, क्लशरूपसे ही उत्पन्न होती है, अतः मिट्टीसे बाहर रहने वाले कुम्हार आदि कलशके कर्ता कैसे हो जायेंगे | कुम्हार तो मात्र अपने परिणामको ही अन्तर्व्यापक होकर ग्रहण करता है। ।
ज्ञानीके परिणामको निमित्त पाकर ज्ञानावरणका क्षयोपशम हो जाता है और उस क्षयोपशमके अनुकूल आत्मा अपने परिणामको जानता भी है तो भी पुद्गल द्रव्यके परिणामको नहीं करने वाले आत्मा का पुद्गलके साथ क कर्मभाव कैसे वन जावेगा।