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सहजानन्दशास्त्रमालायां
करके जो घट विषयक ज्ञान हो रहा है, उस ज्ञानके साथ उस नीवका (कुम्हारका) उस समय व्याप्यव्यापक सम्बन्ध हो रहा है।
५८-व्याप्यन्यापक भावके बिना कर्ताकर्मकी सिद्धि नहीं होती। व्याप्यव्यापक भाव भिन्न भिन्न द्रव्योमें नहीं होता क्योंकि सर्व द्रव्य स्वयं स्वतन्त्र हैं। इस प्रकारके ज्ञान प्रकाशसे ज्यों ही अज्ञानान्धकार नष्ट होता है, त्यौं ही यह आत्म तत्व ज्ञानियोंको कर्तृत्वशून्य दृष्टिगोचर होता है; जैसे सूर्यके प्रखर तेजसे ज्यौं ही अन्धकार नष्ट होता है, त्यौं ही दर्शकों को यह सूर्य प्रभाव विशद दृष्टिगोचर होता है।
५६-प्रश्न-ज्ञानी जीव पुद्गल कर्मको जानता है, फिर जीवका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव क्यों नहीं है ? उत्तर-जैसे मन्दिरको जाते हुए किसी भक्तको कोई पुरुष जान रहा है, (देख रहा है), तो क्या दर्शक पुरुष उस भक्तका या भक्तके गमनका कर्ता हो जायगा ? कभी नहीं, इसी प्रकार पौद्ल क स्कन्ध खुद अपने में कर्मत्व पर्यायको ग्रहण कर रहा है, उसे कोई आत्मा जाने तब क्या वह आत्मा पुद्गलकमका कर्ता हो जायगा? कभी नहीं।
६०-जैसे डाले गये योग्य दही आदिके सम्बन्धसे दूध दूध अवस्थाको दहीरूप परिणम जाता है, इसे जानने वाला वह जामन डालने वाला पुरुष क्या दही परिणमनका कर्ता हो जाता है ? कभी नहीं, इसी प्रकार योग्य जीव परिणामोका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणा अकर्मत्व अवस्थाको त्यागकर कर्मरूप परिणम जाता है, इसे जानने वाला वह जीव क्या पुद्गल कर्मका कर्ता हो जायगा? कभी नहीं।
६१-जैसे अपने ज्ञान, इच्छा, प्रयत्नको करते हुए लुहारके पास लोहा तलवाररूप वन रहा है, तलवाररूप अवस्थामें लोहा परिणम रहा है, इसे जानने वाला वह लुहार क्या लोहेका अथवा तलवारका कर्ता हो जायगा याने क्या लुहार तलवार पर्यायमें परिणम जायगा? कभी नहीं; इसी प्रकार अपने ज्ञान, इच्छा, प्रयत्नको करते हुए जीवके पास थाने
· कर्मरूप बन रही है, कर्मत्व अवस्थामें परिणम रही है,