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( २४) सहजानन्दशास्त्रमालायां
६४-आत्मा पुद्गलकमके फल, सुख दुःख आदिको भी जानता है, फिर भी इसका पुद्गलके साथ कत कर्मभाव नहीं है । जैसे कि कलशनिर्माणके कालमें कलश विषयक निमित्त पाकर होने वाले श्रमको कुम्हार जानता है, तो भी वास्तव में कुम्हार कलशका कर्ता नहीं और न कलश कुम्हारके श्रमका कर्ता है, वैसे ही पुद्गलकर्मके उदयको निमित्त पाकर हुए सुख, दुःख आदि परिणामको आत्मा जानता है। फिर भी न तो आत्मा पुद्गलकर्मका कर्ता है और न पुद्गलकर्म आत्मपरिणामका कर्ता
६५-पुद्गलकर्म तो अचेतन ही है, वह न तो जीवके परिणाम को करता है और न अपने परिणामको वह जानता है। उसकी तो मोटे रूपमें भी आत्म परिणामके कर्तापनेकी कल्पना करना अटपटी वात है। पुद्गल द्रव्यका कर्मपरिणाम पुद्गल द्रव्यमें ही व्याप्य है; जीवका परिणाम जीवमें ही व्याप्य है । जैसे कि मिट्टीका कलश परिणाम मिट्टीमें ही व्याप्य है, कुम्हारका परिणाम कुम्हारमें ही व्याप्य है। कोई किसीको न जाने इमसे भी कोई एक दूसरेका कर्ता नहीं हो जाता। कोई किसीको जाने इससे भी कोई एक दूसरेका कती नहीं हो जाता।
६६-आत्माका पुद्गल के साथ व्याप्यव्यापक सम्बन्ध नहीं है। अतः इनमेंसे कोई किसी अन्यका कर्ता नहीं, फिर भी जो कर्ताकर्म जैसी वांत बुद्धिमें जिनके है वह सव अज्ञानसे प्रतिभात होता है । सो जव ही भेदविज्ञानकी किरणें पड़ती हैं, तव ही उनमें प्रकटं भेद नजर आता है
और कर्ताकर्म सम्बन्धका भ्रम समाप्त हो जाता है । जैसे कि अनेक भाग वाले काठपर ज्यौं ही करोती पड़ती है कि दो भेद हो जाते हैं। ..
६७-यद्यपि जीव परिणाममें और पुद्गलकर्ममें निमित्तनैमित्तिक भाव है अर्थात् जीव परिणामको निमित्तमात्र पाकर पुद्गल कर्मरूपसे परिणमता है और पुद्गलकर्मको निमित्तमात्र पाकर जीव उस अनुरूप . त है, तो भी नोव कर्मके गुणको नहीं करता है और न करें प गुणको करता है तथा न तो जीव पुद्गलकमके गुणमें कुछ