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(३४) सहजानन्दशास्त्रमालायां उस उस परिणमनका कर्ता है। यद्यपि स्फटिक स्वभावतः स्वच्छ है, शुद्ध है, निलेप है अतएव एक ही प्रकारका है, फिर भी वस्त्वन्तरभूत डाकसे युक्त होनेके कारण अस्वच्छ, अशुद्ध, सलेप है अतएव च नानाप्रकार परिणम कर नानारूप हो जाना है।
१४-इस प्रकार यह आत्मा नाना विभावरूप अपने परिणाम विकारको करता है, तभी कार्माणवर्गणारूप पुद्गल द्रव्य स्वयं मोहनीय
आदि कर्मरूपसे स्वतः ही परिणम जाता है। जैसे कि कोई मन्त्रप्रयोगी पुरुष सर्पविष दूर करता है, उस जगह होता क्या है कि विपापहार मन्त्रप्रयोगी पुरुष तो उस प्रकारके ध्यान भावसे परिणमता है, सो वास्तवमें वह तो ध्यानका ही कर्ता है । उस समय ध्यान भावको निमित्तमात्र पाकर मन्त्रवादीकी परिणति ग्रहण किये बिना ही सर्पविप स्वयं दूर हो जाता है।
६५-तथा जैसे विडम्बक मन्त्रप्रयोगी पुरुष तो उस प्रकारके ध्यान भावसे परिणमता है, सो वह तो वास्तत्रमे ध्यान भावका ही फर्ना है। उस समय ध्यान भावको निमित्तमात्र पाकर मन्त्रवादीकी परिणति ग्रहण किये बिना ही स्वयं स्त्रियाँ विडम्बनाको प्राप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार कपायित जीव तो कपाय भावसे परिणमता है, मो वह तो पास्तवमें कषाय परिणामका ही कर्ता है। उस समय कपायभावको निमित्तमात्र पाकर जीवकी परिणति ग्रहण किये बिना ही कार्माणवर्गणामय पुद्गल द्रव्य मोहनीयादि कर्मरूपसे स्वयं परिणम जाते हैं। ___ -तथा जैसे साधक तो उस प्रकारका ध्यानभाव ही करता है, उसके ध्यान भावको निमित्त पाकर बन्धन साधकको परिणति लिये विना ही स्वयं ही ध्वस्त हो जाते हैं, इसी प्रकार जीव तो अज्ञानसे. मिथ्यादर्शनादि भावरूपसे परिणमता हुआ, मिथ्यादर्शनादिभावका ही कर्ता है, उसके मिथ्यादर्शनादिभावको निमित्तमात्र पाकर पुद्गल द्रव्य कर्मरूपसे रवयं ही परिणम जाता है अथवा साधक तो मात्र अपने शुद्ध रवभाव । करता है उसको निमित्तमात्र पाकर मोहनीयादि कर्म बन्धन