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अथ कत कर्माधिकारः
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हो जाता है, किन्तु डाकके सन्वन्धसे ऐसा लगता है कि स्फटिक हरा हो गया है। समाधान-स्फटिक डाकके अनुरूप छाया रूपमें परिणम जाता है । उस समय, जैसे कि दर्पण छाया रूपमं परिणम जाता है। इसी प्रकार जीव भी क्रोध आदि रूपमें परिणम जाता है । उस समय, भ्रम तो ,इसलिये जचता कि वह औपाधिक है, आत्माका सहज स्वभाव नहीं।
१२-प्रश्न-स्फटिकमे तो स्वच्छता ही है, उसमें से देखते तव रंगवाला डाक दीखता है; स्फटिकमे उस रंगरूप परिणमन तो नहीं है? उत्तर-स्फटिकमें दर्पणकी तरह मसाला लिया हुआ नहीं है। इसलिये विना मसाला लिये हुए कांच में जैसा विम्ब रूप परिणमन होता है, प्रायः उसी भांति स्फटिकमें विम्वरूप परिणमन होता है । जैसे कांच पारदर्शी है, वैसे स्फटिक भी पारदर्शी है, अत: जो विशेष गहरा रंगवाला, कुछ दीखता है, वह डाक है । इसी प्रकार क्रोध प्रकृतिके उदयको निमित्तमात्र पाकर जीव क्रोधरूप परिणमन करता है । भेदविवक्षासे देखो तो चारित्र - गुणके विकाररूप परिणमन होना है। जैसे कि स्फटिकमे भेद विवक्षासे देखो तो रूप गुणके परिणमनसे यह परिणमन है छाया विम्बरूप । चैनन्य भाव उभयतः पारदर्शी है, याने निमित्तभूत जिस प्रकृतिके साथ क्रोधादि विकारका अन्वयन्यांतरेक है, उस और देखे अपने में से पार होकर तो जचता है कि कर्मका विकार है और विभावमें रहकर भी विभावके पार चैतन्य स्वभावको देखे तो जचता है यहाँ विकार ही नहीं। फिर विकारकी चर्चा करे तो वहां वह भ्रम प्रतीत होता है अथवा कर्मका विकार प्रतीत होता है।
___१३-निश्चयतः जीव जिम जिस विकारसे परिणम कर जिस जिस भावको करता है, वह उस उस परिणामका कर्ता है। यद्यपि यह जीव स्वभावतः शुद्ध और निर्लेप है अतएव एक ही प्रकारका है, फिर भी पस्त्वन्तर भूत कर्मसे युक्त होनेके कारण अशुद्ध, सलेप है अतएव च नाना प्रकार परिणम कर नानारूप हो जाता है। जैसे स्फटिक जिस जिस रंगसे परिणम कर जिस जिस स्वरूपको करता है, वह स्फटिक निश्चयतः