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सर्व-विशुद्धज्ञानाधिकार (७३) यह सिद्धान्त ही युक्त है कि कथंचित् वही आत्मा करता है व वही भोगता है अथवा कथंचित् करने वाला और है व भोगने वाला और है। जैसे मनुष्यने तप किया, देव आयु वांधी और मनुष्य-मरणके बाद देवने उस आयु व पुण्यको भोगा। तो करने वाला मनुष्य है व भोगने वाला देव है, परन्तु जीव तो दोनों भवों में वही है अतः उस ही ने किया व उस ही ने भोगा। ये दोनों ही बातें सिद्ध हो जाती हैं।
२०६-अथवा कर्ता भोक्ता होओ व न होओ, इसकी चर्चा छोड़कर मात्र शुद्ध वस्तुका चिन्तन करो तो वहां तक शुद्ध चेतना मात्र ही चकासमान है । जैसे-सूतमें पोई हुई मणिमालिकाको केवल हाररूपमें देखो तो वहां केवल वही एक हार चकासमान रहता है।
२१०-निश्चयसे कर्ता व कर्म एक ही वस्तु होती है, केवल व्यवहारसे ही ऐसा देखा जाता है कि कर्ता अन्य है, कर्म अन्य है। जैसे व्यवहारष्टिसे कहा जाता है कि सुनारने सोनेका कुण्डल बनाया, हथौड़े आदि करणोंके द्वारा बनाया, हथौड़े आदि करणोंको ग्रहण किया, इनाममें मिले हुए ग्राम आदिक कुण्डलकर्मफलको भोगा। यहाँ निश्चय दृष्टिसे, स्वरूपदृष्टिसे देखो कि क्या सुनार व हथौड़ा या सुनार व सोना या सुनार व गांव क्या सव एकरूप हो गये? नहीं हुए। इस कारण निमित्तनैमित्तिक भाव मात्रके हेतु अन्य अन्य पदार्थों में कर्ता कर्म व भोक्ता भोग्यका व्यवहार हुआ । इसी प्रकार व्यवहारदृष्टिसे कहा जाता है कि आत्माने पुण्य पाप कर्म किया, काय वचन मनके द्वारा किया, काय वचन मनको ग्रहण किया, सुख दुःख आदि कर्मफलको भोगा। यहां निश्चयदृष्टि, स्वरूपष्टिसे देखो कि क्या जीव व पुण्य पापकर्म या जीव व काय वचन मन या जीव व सुख दुःख आदि कर्मप्रकृति क्या ये एक रूप हो गये १ नहीं हुए। इस कारण मात्र निमित्तनैमित्तिकभावसे ही अन्यका अन्यमें कर्ता कर्म भोक्ता भोग्यका व्यवहार हुआ ऐसा समझना।
२११-निश्चयनयसे तो जैसे वहां सुनारने अपनी ही चेष्टारूप कर्म किया है और अपनी ही चेष्टाका परिणाम क्लेशरूप भोगा। इसी