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सन्यसारखष्टान्तमम असंख्यातप्रदेशी है सो इस दृष्टि में भी कार्य कसे हो सकता। हां जैसे पुद्गल स्कन्धों में कुछ प्रदेशीका निकल जाना कुछ अन्य प्रदेशोंका मिल जाना हुआ करता है ऐसा जीवमे हो जाता तो कार्य कह दिया जाना, किन्तु जीव नो अखण्ड है वहां कुछ प्रदेशोंका बिछुड़ना कुछका मिलना संभव ही नहीं। स्कन्ध नो द्रव्य नहीं वह तो पर्याय है। पर्याय-दृष्टि से पुद्गलमे इसका व्यवहार है।
२८७-यदि कहो कि जीवमें प्रदेशोका निकलना व आना तो नहीं होता किन्तु संकोच विस्तार तो होता है इससे जीवका कार्य कुछ न कुछ द्रव्य रूपमें भी सिद्ध हो जायगा । सो यह भी ठीक नहीं है क्योकि कार्य याने नवीन वान तो नव कहलाये जव कि नियत निजविरतार (लोकपरिणाम असंख्यात प्रदेश) से हीन या अधिक संकोच विस्तार किया जा सके । जैसे कि एक चमड़ेका टुकड़ा है वह चाहे सूखने पर संकुचित हो जाये और गीला होने पर विस्तृत हो जाये किन्तु उसका जितना परिमाण है उससे कम या अधिक तो नहीं होता। इस प्रकार लीव तो है यह वात द्रव्यरूपमें नहीं बनती, यह कार्यकी बात तो मिथ्यात्वादि परिणमन जीवका हो जाता है यह मानकर ही बनेगा।
२०८-अव यह वात सुसिद्ध है कि जीव द्रव्यरूपसे तो नित्य है और पर्यायरूपसे अनित्य है तभी ये दोनों बातें हैं कि जो करता है वही भोगता है अथवा करता और है व भोगता और है। इनमें किसी एक पक्षका एकान्त नहीं बन सकता । यदि यह माना जाय सर्वथा कि वही कर्ता वही भोगता तो पर्यायमें अन्य हुए विना भोगना कैसे बन सकता है । यदि यह सर्वथ माना जाय कि करने वाला अन्य है व भोगने वाला अन्य है तो इसमें मात्र पर्यायको दृष्टि रही। पर्यायमात्र ही आत्मा माना । सो जैसे धागा रहित मात्र मुक्ता देखने वाले जैसे हारको छोड़ देते हैं इसी प्रकार चैतन्यअन्वयगुणसे रहित मात्र पर्याय देखने वालोंने आत्मा ही छोड़ दिया और तव इस एकान्तमें न तो आत्मा रहा और ..माके अभावमें पर्याय भी न रहा । यह अनिष्टापत्ति आती है। अत: