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सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार
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श्रात्माके विकार रूप हैं। तथा निश्चयसे तो यही बात है कि पर द्रव्यका आत्माके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है नव क कर्मका भी सम्बन्ध नहीं और इसी कारण श्रात्मा रागादि व कर्मादिका कर्ता भी नहीं है।
२०५-केवल व्यवहारनयसे "पर द्रव्य मेरा हे" ऐसा कहा जाता है । निश्चयसे तो परमाणुमात्र भी कुछ मेरा नहीं है। जैसे कोई मनुष्य कहे कि ग्राम मेरा है, नगर मेग है तो यह मोहमें ही कहा जा सकता है या व्यवहारनयसे कहा जा सकता है। निश्चयसे तो ग्राम या नगर उसका नहीं है। यदि कोई व्यवहार हठी होकर मेरा ग्राम है ऐसा देखेगा तो वह मत्त ही है । इसी तरह यदि कोई ज्ञानी व्यवहार-विमूढ़ होकर पर द्रव्यको अपना बनाये तो वह मिथ्यावृष्टि हो जाता है।
२०६-यहां यह जिज्ञासा उत्पन्न होना प्राकृतिक है कि मिथ्यात्व परिणाम किसका कार्य है ? मिथ्यात्व परिणाम अचेतन प्रकृतिका ती कार्य है नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व प्रकृति तो अचेतन है अचेतनमें चैतन्य जैसे भाव नहीं हो सकते । मिथ्यात्व भाव जीव व प्रकृति दोनोंका मिलकर भी कार्य नहीं है क्योंकि यदि जीव व अचेतन प्रकृति दोनोंका कार्य मिथ्यात्व होना है, मिथ्यात्व परिणामका भोग अचेतन प्रकृतिको करना पड़ना, जैसे कि जीयको करना पड़ता । विना किया हुआ तो मिथ्यात्व है नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व भी तो एक परिणमन है, कार्य है। समाधान इसका यही पाना है कि मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय तो वहाँ निमित्त है
और कार्य है जीवका । यदि कहा जाय कि मिथ्यात्व प्रकृतिका ही कार्य है मिथ्यात्व परिणाम तथा जागना, सोना, बैठना, कपाय, ज्ञान, अज्ञान मभी कर्म प्रकृतिका कार्य हैं तो फिर यह बताओ कि क्या जीव अपरिणामी है ? यदि जीव अपरिणामी है तो फिर "नीय भी कुछ करता है" यह अर्पवचन मिथ्या हो जायगा । यदि कहो कि कम तो अज्ञानादि भावको करना है और जीव अपनेको द्रव्यरूप करता है, तो नीव तो द्रव्यरूपसे नित्य है सो नो नित्य है वह कार्य कैसे हो सकता क्योंकि नित्यपने व कार्यपनेका परस्पर विरोध है ? नीव तो द्रव्यरूपसे अवस्थित