________________
(so)
समयसारदृष्टान्तममं
हुआ अर्थात् स्व परका यथार्थ यथार्थ स्वलक्षण ज्ञात हुआ कि यह बन्ध दूर हुआ, भोग भी दूर हुआ श्रज्ञानी जीव ही कर्मफलभोक्ता होना है | - जैसे सर्य को गुड़ व दूध भी पिलाया जावे तो भी वे निर्विष नहीं होते । इसी तरह जब तक श्रज्ञान भाव है यह अज्ञानी जीव शास्त्रोंका भी अध्ययन करले, किन्तु प्रकृतिस्वभाव (रागादिभाव) को नहीं छोड़ता है । प्रकृतिस्वभावमें स्थित होकर अज्ञानी जीव कर्मफलको भोगता है ।
२०३ - ज्ञानी जीव न तो कर्मको करता है और न कर्मको भोगता है वह तो ज्ञान बल के कारण स्त्रमें तृप्त रहना है व कर्मवन्ध, कर्मोदय, कर्मफल, कर्मनिर्जरा व मोक्षको जानता है । पर द्रव्यको अहं रुपये अनुभव करने में अशक्त होनेसे ज्ञानी कर्मका कर्ता भोक्ता नहीं होता है । जैसे दृष्टि (नेत्र) अग्नि को देखता है किन्तु अग्निका कर्ता या भोक्ता नहीं है । यदि दृष्टि अग्निको करने लगे तो अग्नि के देखनेसे श्रग्नि बल उठना चाहिये या दृष्टि अग्निको भोगने लगे तो अग्नि के देखनेसे नेत्र संतप्त हो जाना चाहिये । सो तो होता नहीं है । श्रतः दृष्टि न तो अग्निका कर्ता और न अग्निका भोक्ता है, केवल द्रष्टा है । इसी प्रकार ज्ञान भी केवल देखनदार (जाननदार) स्वभाव वाला होने के कारण कर्मोदय आदिको मात्र जानता है, करता त्र भोगता नहीं है ।
२०४ - यद्यपि रागादिक आत्मा के परिणमन है तो भी आत्मा स्वभावसे रागादिकका कर्ना नहीं है, क्योंकि आत्मा यदि इसका कर्ता हो हो जावे तो आत्मा तो नित्य है सो वह रागादिका नित्यकर्ता हो जायगा फिर आत्माका मोक्ष कैसे हो सकेगा ? नहीं हो सकेगा। जैसे कि जो लोग यह मानते कि एक कोई विष्णु मनुष्य देव आदि बनाता है व रागादि कार्य कराता है तो उनकी मान्यतामें मोक्ष कैसे हो सकता ? नहीं हो सकता, क्योंकि जीवका परिणमन ईश्वराधीन है ईश्वरकी मर्जी हो तो सिद्धि हो सो उसको मर्जी होती ठीक तो पहिले से ही दुःखी क्यों बनाया | अतः यह निश्चय करना कि आत्मा स्वभावसे रागादिका कर्ता 'भी नहीं है। रागादि परिणमन तो पुद्गल कर्मोदयको निमित्त पाकर
I