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(४६) सहजानन्दशास्त्रमालायां जैसे कि करेणु कुट्टिनी चाहे सुन्दर वनी हो, चाहे असुन्दर बनी हो, कुशील है याने धोखा देकर गिराने वाली है, अतः बुद्धिमान बनहरतीको उसका राग व संसर्ग छोड़ देना चाहिये । वनहस्तीको हथयानेके तिये शिकारी लोग बनमें एक गढ़ा खोदकर उस पर वांसोंकी पंचे विछाकर जमीन जैसे रगवाले कागजसे मढते हैं और उसपर एक वांस व कागजोंकी सुन्दर रचनामें झूठी हस्तिनी तैयार कर देते हैं। यह झूठी हस्तिनी सुन्दर भी बने तो भी कुशील है याने गढ़ में गिरानेकी कारण है। बुद्धिमान वनहस्तीको चाहिये इस कुशील करेणुकुट्टिनीका न तो मन से राग करे और न वचनसे व कायसे संसर्ग करे । इसी प्रकार पुण्य कर्म भी धोखा देकर गड़े मे गिराने वाली है व पापकर्म तो दुःख देनेकी प्रकृति वाला है ही, सो दोनों कर्म कुशील हैं। इनका राग व संसर्ग नहीं करना चाहिये।
१३०-जैसे कि वह करेणु कुहिनी सुन्दर भी हो व चटुलमुखी भी हो तो भी हस्तीको बंधके लिये खींचने वाली है। इसी प्रकार कोई कर्म (पुण्य कम) इष्टभोग समागम देने वाला हो व सुखकारी भी हो तो भी जीवको वन्धके लिये खींचने वाला है। अतः उसका भी राग संसर्ग छोड़ देना चाहिये । पाप कर्म भी जीवको बन्धके लिये खींचने वाला है, उसका भी राग न ससर्ग छोड़ देना चाहिये ।
१३१-सभी प्रकारका राग ही नीवका बन्धन है । जो रागरहित होता है, वही कोंसे मुक्त होता है । रागरहित अवस्था ज्ञानमय अवस्था है । अतः ज्ञान ही मोक्षका हेतु है । इस परमार्थभूत ज्ञानके विना व्रत व तप बालवत व चालतप कहलाते हैं । परमार्थभूत ज्ञानकी दृष्टिसे रहित पुरुष ही पुण्यकी चाह करते हैं व पापमें प्रवृत्त होते हैं। ये सभी कर्म मोक्षके कारणका आवरण करते हैं। ज्ञानका सम्यक्त्व मोक्षका कारण है। यह स्वभाव परभावभूत मिथ्यात्व कमके उदयसे प्रकट नहीं हो पाता। जैसे कि यद्यपि श्वेत वस्त्रका स्वभाव श्वेतपना है, तो भी परभावभूत मलके आनेसे प्रकट नहीं हो पाता।
१३२-ज्ञानका ज्ञान मोक्षका कारण है । यह स्वभाव भी परभाव