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पुण्यपापाधिकार
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किसी भी वस्तुपर दृष्टि रहनेसे आत्मा वस्तु-स्वरूपपर पहुँचता है। जीव केवल अपने परिणामका कर्ता होता है । जीवके विभाव परिणामको निमित्त पाकर पुद्गल कार्माणवर्गणायें स्वयं कर्मरूप परिणम जाते हैं। पुद्गल द्रव्य जो कर्मरूप परिएम जाते हैं, वे कर्म सभी आत्मस्वभावके विरुद्ध हैं, तो भी उनमें जो प्रकृति पड़ी है, उसकी संक्षिप्त अपेक्षासे वे दो प्रकारके हैं, १-शुभ कर्म, २-अशुभ कर्म। शुभ कर्मका अपर नाम है पुण्य कर्म, अशुभ कर्मका अपर नाम है पाप कर्म । देखो हैं ये दोनों कर्म ही, किन्तु जैसे एक शूद्रीके उदरसे उत्पन्न हुए दो वालक हैं, वे किसी कारण जन्मते ही, घरसे बिछुड़ जाय, उनमें से एक तो ब्राह्मणीके हाथ लगे और उसके यहाँ पले और दूसरा शूद्रीके हाथ लगे और उसके यहां पले, तो कुल संस्कारवश दोनों की प्रवृत्ति भिन्न भिन्न हो जाती है । एक तो "मैं ब्राह्मण हूँ मुझे मदिरासे दूर ही रहना चाहिये" इस तरह ब्राह्मणत्वके अभिमानसे मदिराको दूरसे ही छोड़ देता है और दूसरा "मै शुद्र हूँ" इस प्रकार शूद्रत्वके अध्यवसानसे मदिरासे नित्य स्नान करता है, मदिरा को पीता रहता है। हैं वास्तवमें दोनों शूद्रसे जाये व शूद्र । पुण्य कर्मकी प्रकृति साताविकल्पमें निमित्त होने की पड़ जाती है व पाप कर्मकी प्रकृति असाताविकल्पमें निमित्त पड़ जाती है । वस्तुतः दोनों कुशील ही हैं।
१२८-जैसे चाहे सोनेकी वेडी हो और चाहे लोहेकी बेड़ी हो, कैदीके लिये दोनों एकसे ही वन्धन हैं। इसी प्रकार चाहे पुण्यकर्म हो
और चाहे पाप कर्म हो संसारी जीवके लिये दोनों वन्धन हैं। कोई फर्म कुशील है व कोई कर्म सुशोल है, ऐसा विपाककी अपेक्षा कहा जाता है, किन्तु जब दोनों कर्मोंका कार्य संसारभाव है, तब कोई कुशील व कोई सुशील ऐसा भेद क्यों ? सभी कर्म कुशील ही हैं। सभी कर्मोका हेतु अज्ञानभाव है, सभी कर्मों का स्वभाव जड़पना है, सभी कर्माका अनुभव पौद्गलिक है, सभी कर्म वन्धमार्ग हैं।
१२६-शुभ व अशुभ (पुण्य, पाप) दोनों ही कर्म कुशील हैं, इनका व इनके कारणरूप विभावोंका राग व संसर्ग छोड़ देना चाहिये ।