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________________ सहजानन्दशस्त्रमालायां स्वच्छताकी परीक्षा करके रवच्छ जलको पी लेते हैं। वैसे मोही जीव कर्मसे संयुक्त नायकस्वरूप अपनेको (जिसका कि ज्ञायफस्त्रभाव तिरोहित हो गया) अनुभव करने वाले श्रात्मा और भावकर्मा विवेक न होनेसे व्यवहारविभृढ होकर निजको नानारूप अनुभव करने लगते हैं। परन्तु वस्तुस्वभावके समझने वाले अपनी बुद्धिसे प्रयोग किये गये निश्चयनयरूप भूतार्थके आश्रय द्वारा आत्मा और भावकर्मका विवेक हो जानेसे अपने आपके आकारमें प्रस्ट अपने स्वभावका परिचय करके एक ज्ञायकस्वरूप निजका अनुभवन कर लेते हैं। -जिन्होने परमार्थका परिचय प्राप्त किया उन्हें व्यवहारसे प्रयोजन नहीं है। किन्तु जो अपरमार्थमे ठहरे हैं उन्हें व्यवहार प्रयोजनवान है । जैसे-जो आखिरी तावसे तचे हुए शुद्ध स्वर्णसे परिचित हैं उन्हें अशुद्ध स्वर्णमें श्रादर व प्रयोजन नहीं है किन्तु जिन्हें शुद्ध स्वर्णका परिचय नहीं है उन्हें अशुद्ध स्वर्ण में आदर व प्रयोजन है। वैसे जो निज परमपारिणामिकभावसे परिचित हैं उन्हें पर्याय, भेद श्रादि व्यवहारमें आदर व प्रयोजन नहीं है । किन्तु जो विकल्परूप अपरमार्थ भावमें ठहरे हैं परमार्थ से परिचित नहीं है उन्हें व्यवहारमें आदर व प्रयोजन भी है। परमार्थमें पहुँचनेपर व्यवहारमे आदर व प्रयोजन नहीं रहता। -आत्मा मामान्यविशेषात्मक है । सामान्य अंश ध्र च होनेसे परमार्थ है और विशेप अंश अध्रव होनेसे अपरमार्थ है । परमार्थ दृष्टिसे आत्मा अबद्ध (किसीसे न बंधा हुआ), अस्पृष्ट (किसीसे न छुपा हुआ), अनन्य (अन्य नहीं किन्तु वही वही), अविशेष (गुण भेद रहित), नियत असंयुक्त (नैमित्तिक विभावसे रहिन) है । किन्तु अपरमार्थ दृष्टिसे आत्मा वद्ध, स्पृप्ट, अन्य, विशेप अनियत व संयुक्त भी है । ध्रुव, एकको देखना सामान्यदृष्टि है। अध्रुव, अनेकको देखना विशेषज्ञष्टि है। जैसेकमलिनीका पत्र तालाब में डूबा है उसे जल व पत्रकी संयोगदृष्टि से देखें नो पत्र जलसे बद्ध व स्पृष्ट है । यदि केवल पत्रको या पत्रके ही स्वभावकी तसे देखें तो पत्र वद्ध नहीं है और न स्पृष्ट भी है।
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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