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समयसारदृष्टान्तमम अपना परिचय रखने वाले प्राणीसे कोई महात्मा गुरु 'आत्मा' इस शब्द द्वारा परमार्थको कहे नो वह प्राणी उस शब्दका भाव न जाननेसे मेढकी तरह अांखकी टकटकी लगाकर गुरुकी ओर देखता रहता है, क्योंकि गुरुकी मुद्रा व देशनाविधिसे वह यह तो समझ गया कि कोई मेरे भलेकी ही यह वात वताई जा रही है । इसीसे वह प्रेमसे गुरुकी ओर देखता रहता है किन्तु क्या कहा यह वात नहीं जानता। जव व्यवहार और परमार्थके जानकार वे गुरु व्यवहारनयसे समझाते हैं कि जो देखता है जानता है वह आत्मा है आदि, नव यह जीव वड़ा आनंदित होता हुआ निज तथ्यको समझ जाता है। इस तरह व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक होनेसे उसकी भी कभी आवश्यकता है। .
६-व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक है जैसे-परमार्थसे घटज्ञानी कौन है ? जैसा घट है उस तरहके जाननेसे परिणत जो आत्मा है वह परमार्थसे घटज्ञानी है; यहाँ आत्माने अपनेको ही जाना, यह मर्म जिनकी समझमें नहीं है उन्हें समझानेके लिये यह कहना पड़ता है कि जो घटको जानता है वह घटज्ञानी है । तथा परमार्थसे श्रुतकेवली कौन है ? जैसा द्वादशांगका सर्व विषय है उस तरहक जाननेसे परिणत जो आत्मा है वह परमार्थसे श्रुतकेवली है; यहां आत्माने अपनेको ही जाना, यह मर्म जिनकी समझमें नहीं है उन्हें समझानेके लिये यह कहना पड़ता है कि जो समस्त द्वादशांगको जानता है वह श्रुतकेवली है यह व्यवहार हुआ। व्यवहार परमार्थका संकेत करता है यह जानकर व्यवहारका प्रयोजन परमार्थकी साधनाका समझ, व्यवहार में ही न अटकें।
७-व्यवहार अभूतार्थ है निश्चय भूतार्थ है । जो भूतार्थका आश्रय करते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं । जैसे कोई अविवेकी पुरुप कीचड़ मिले हुए बरसाती पुखरियाके जलको (जिसकी कि रवच्छता तिरोहित हो गई) पीने वाले कीचड़ और पानीका विवेक न करते हुए उस मलीन जलको पी लेते हैं परन्तु विवेकी पुरुप अपने हाथसे डाले हुएं कतकफलके निमित्तसे कीचड़ और जलका विवेक हो जानेसे अपनी मूर्तिकी परछाई द्वारा