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' निर्जराधिकार
(५५) अतः वह कीचड़ अथवा नंगसे लिप्त हो जाता है।
१५६-जैसे धौंकनी द्वारा आगसे धौंक गये सिदूर व शीसा सहित लोहा पुण्योदय होनेपर किट्ट कालिका मैलसे रहित होकर सुवर्ण हो जाता है। इसी प्रकार तपस्या रूपी धौंकनी द्वारा ध्यानरूपी अग्निसे घौंका गया याने तपाया गया रत्नत्रयकी औषधि सहित यह लोहास्थानीय यह जीव किदृस्थानीय कर्म व कालिकास्थानीय रागादिभावसे रहित होकर मुक्त हो जाता है।
१५७-परद्रव्यका उपभोग ज्ञानीके अज्ञानमय भावको उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि परपदार्थ अन्य परके भाव बनानेमें कारण नहीं है । ज्ञानी हो यदि ज्ञानभावसे च्युन होकर अज्ञानी रूपसे परिणमने लगे वो चाहे परद्रव्य भोगे या न भोगे स्वयं अज्ञानरूप हो गया। इस कारण यह बात सुसिद्ध है कि ज्ञानी जीवके परके अपराधसे याने उपभोगके कारण बन्ध नहीं होता किन्तु जब वन्ध होगा तब स्वके अपराधसे होगा। जैसे कि शख जीवका शरीर श्वत है वह कैसे ही पर द्रव्य (कालो, पाली मिट्टी आदि) को भोगे उससे वह काला नहीं हो सक्ता। हां वही शंख शरीर यदि वनपनेको छोड़ कर काले रूप में परिणम जावे तो वह पर द्रव्य को भोगे या न भोगे स्वयं काला हो जायगा।
१५८- अज्ञानी जीव आगामी पुण्य सुख चाहनेके लिये व्रत, तप आदि करता है तो उससे उपार्जित पापानुवन्धी पुण्य भविष्यमें भोगोंको देता है । जैसे कि कोई पुरुप आजीविकाके लिये राजाकी सेवा करता है तो राजा उसे आजीविका देता है।
१५६-प्रथया कोई ज्ञानी जीव निर्विकल्प समाधिके अभावमें विषय कपायकी आपदासे बचने के लिये व्रत, शील, उपवास, तप आदि करता है। वह पुण्यसुखकी चाहसे नहीं करता है। सो उसके यद्यपि पुण्यवन्ध होता है किन्तु आगामी भवमें उसके उदयकालमें भी वह ज्ञानी होता हुआ रागादि फलको नहीं पाता और मिले हुए पुण्य समागमसे विरक्त हो मोक्षमार्गका सेवन करता है। जैसे कि भरत चक्रवर्ती, आदि