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(५४) समयसारदृष्टान्तमर्म उसके इच्छाभावरूप अज्ञानमयभाव नहीं रहता और इसी कारण वद्द अन्य पदार्थोंका व परभावोंका ज्ञाता तो रहता है किन्तु ज्ञय पदार्थमें सन्मय नहीं होता अतः वह निष्परिग्रह होता है। जैसे कि दर्पणमें जो प्रतिविम्ब है उसका देखने वाला ज्ञाता तो रहता किन्तु उस प्रतिविम्बसे तन्मय नहीं हो जाता । इस तरह यह ज्ञानी पुण्य (शुभोपयोगरूप धर्म) का, पाप (विषय कपाय रूप अधर्म) का, अशनपानका, उपभोगका ज्ञायक रहता है, परिग्रही नहीं होता है।
१५२-ज्ञानी जीव न बंधके निमित्तभूत रागादिभावोमें राग करता है और न उपभोगके निमित्तभून सुख दुःखादिक भावों में राग करता है। यहां यह विशेष ध्यान देनेकी बात है कि बन्धके निमित्तभून भाव तो ज्ञानीके होता ही नहीं, उपभोगका निमित्तभूत भाव कदाचित् होता है। मात्पर्य यह है कि भोगनिमित्त थोड़ा पाप तो ज्ञानीके कदाचित हो जाता है सो वहां भी ज्ञान व वैराग्यके सामथ्येसे अवन्ध रहता है, वन्धनिमित्तभून मिथ्यात्वादि भाव तो होते ही नहीं हैं । निष्प्रयोजन अपध्यान वन्ध निमित्तभून भाव है । ज्ञानी यह पाप नहीं बांधता, जैसे कि इस अपध्यानसे शालिमत्स्य बहुत पाप बांधता है।
१५३-ज्ञानी जीवके उपभोग कर्ममे राग रस नहीं आता अतः ज्ञानी परिग्रह भावको प्राप्त नहीं होता। जैसे कि जो वस्त्र लोध फिटकरीसे नहीं भिगोया है उसपर रंगका मेल वाहर ही लोटता है, वस्त्रमें दृढ़ जमता नहीं है।
१५४-ज्ञानी जीव समस्त राग रससे दूर रहनेके स्वभाव वाला है अतः उपभोग अथवा कर्मके मध्य पड़ा हुआ भी उपभोग अथवा कर्मसे , लिप्त नहीं होता है। जैसे कि सुवर्ण कीचड़ अथवा संगसे छुटे रहने के स्वभाव वाला है अतः वह कीचड़ अथवा संगसे लिप्त नहीं होता है।
१५५-अज्ञानी नीव रागरससे लिप्त होनेकी प्रकृति वाला है अतः उपभोग अथवा कमके मध्य पड़ा हुआ कमसे लिप्त हो जाता है।
कि लोहा कीचड़ अथवा जंगसे लिप्त हो लेनेके स्वभाव वाला है