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निर्जराधिकार
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गीतादि विवाह चेष्टा को नहीं कर रहा है तो भी विवाह प्रकरणका राग होनेसे वह प्राकरणिक है । इसी प्रकार अज्ञानी जीव उपभोग न मिलने से या अन्य कार्यव्यासङ्गसे विषयको न भी सेवता हो तो भी वह सेवक है ।
१४८ - सम्यग्दृष्टि जीवके पूर्ववद्ध कर्मविपाकसे राग विभाव आता है तो भी वह यही जानना है कि यह कर्मोदयनिमित्तक भाव है, मेरा स्वभाव नहीं, मैं तो शुद्ध ज्ञायक भावमात्र हूँ । जैसे कि स्फटिक पापारण में पर डाककी उपाधिसे उत्पन्न जो लालिमादि है वह श्रीपाधिकभाव है, स्फटिकका स्वभाव भाव नहीं है, वह तो निजस्वच्छतामय है ।
१४६- आत्माका विशुद्ध स्वभाव ही आत्माका उत्कृष्ट पद है । समस्त स्थिर (विनाशिक) भावोंको याने द्रव्यकर्म व भावकर्म (विभाव) को छोड़ करके एक इस ही एक ज्ञानभावका अवलम्बन करना चाहिये । यद्यपि इस ज्ञानभावके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान व केवलज्ञान ये सब परिणमन हैं, किन्तु वह सब निश्चयसे एक ही पद है । जैसे मेघपटलका कम अधिक श्रावरण होनेके कारण सूर्यको भी प्रकाशभेद होते हैं, प्रकाशभेदोंके कारण सूर्य में भेद नहीं हो जाता, सूर्य तो एक ही है, बल्कि वे प्रकाशमेद भी सूर्यकी एकता का ही सकेत कराते हैं। इसी प्रकार कर्मपटलका कम अधिक आवरण होनेके कारण ज्ञानके भी जाननभेद होते हैं किन्तु उन ज्ञानातिशय भेदोंके कारण ज्ञानस्वभावमें भेद नहीं हो जाता, ज्ञानस्वभाव तो वही एक है। बल्कि वे ज्ञानातिशयभेद भी ज्ञानस्वभावकी एकताका संकेत करते हैं ।
१५० - जैसे एक रत्नाकर समुद्रमें छोटी बड़ी अनेक लहरें उठती हैं वे सब एक जलरूप ही हैं। इसी तरह यह चैतन्य रत्नाकर एक ही है, इसमें कर्मके निमित्तसे ज्ञानके अनेक भेद अपने आप व्यक्तिरूप होकर प्रकट होते हैं, वे व्यक्तियां एक ज्ञानरूप ही हैं ।
१५१-- जिस श्रात्माने इस निज ज्ञायक स्वभावका परिचय किया