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सारदृष्टान्तमर्म
१४४-तथा, जैसे कोई तस्कर (चोर) कोतवालके द्वारा गिरफ्तार हो जाय अन्तमें मरणादिका क्लेश सुना दिया नाय तो यद्यपि यह तस्कर मरणादिक नहीं चाहता है तो भी मरणादिका अनुभव करता ही है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि नीव यद्यपि आत्मीय सुखको उपादेय व विषय सुखको हेय.जानता है तो भी कर्मविपाकरूपी कोतवाल द्वारा गिरफ्तार हुश्रा यह विना रतिके विषय सुखादिका अनुभव करता है। इसी कारण ज्ञानीकी यह निर्जरा अथवा उपभोग बन्धके लिये नहीं होता, प्रत्युत निर्जराके निमित्त ही होता है।
१४५-जैसे कि विषका पान जनरली मरणका कारण होता है, लेकिन विषवैद्य विषका पान करता हुआ भी मंत्र औषधि आदिकी सामर्थ्यसे मरणको प्राप्त नहीं होता । इसी प्रकार पुद्गल कर्मका उदय अज्ञानी जीवके रागका सद्भाव होनेसे वन्धका कारण होता है, लेकिन ज्ञानी जीवके रागादि अज्ञानमय भाव न होनेसे ज्ञानके सामर्थ्यस पुद्गल कर्मका उदय भोगता हुआ भी वन्धको प्राप्त नहीं होता।
१४६-तथा जैसे कोई पुरुष रोगके प्रतीकारके निमित्त मद्यमें मद्यकी विरोधी कुछ औषधि डालकर पीता है तो वह मद्यपानके रागके अभावके कारण मतवाला नहीं होता। इसी प्रकार कर्मविपाकन वेदनाके प्रतीकारके निमित्त तत्त्वप्रतीतिसहित वर्तकर पञ्चन्द्रियके विषयभूत भोजनादि पुद्गल द्रव्यके उपभोग होनेपर भी तत्त्वज्ञानी उपभोगमै प्रतीतिमें तो सर्वथा रागका अभाव होनेसे व चर्या में यथायोग्य रागका अभाव होनेसे मतवाला नहीं होता।
१४७-तथा, जैसे किसीके घर विवाहादि प्रकरण (function) में दूसरे घरसे आये हुए पुरुपके भी विवाहादि प्रकरणमें करने योग्य चेष्टा होती है तो भी उस प्रकरणका राग न होनेसे वह अप्राकरणिक है। इसी प्रकार निर्विकार निज शुद्धात्म तत्त्वका प्रत्यय करने वाला ज्ञानी अपने गणस्थानके योग्य पन्चेन्द्रियके विषयोंको सेवता हुआ भी उस वृत्तिका
न होनेसे असेवक है । और, विवाहके घर वाला पुरुष कार्यव्यासद्गासे