________________
निजराधिकारा
1
长
कोई पुरुष जान लेता है, वैसे ही उपदेशादिसे "मैंने जीव देखा लाजा
इत्यादि रूपसे अवधारित कर लिया जाता है। तथा स्वसंवेदन रूप भावज्ञान यद्यपि केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्षे है तो भी इन्द्रियजभ्य सविकल्प ज्ञानकी अपेक्षा ता प्रत्यक्ष है ही । अथवा पहिले समय में भी तो इसी प्रक्रिया से आत्माको ग्रहण करते थे । दिव्य ध्वनिके द्वारा अथवा अन्य उपदेशादिसे तो केवल कुछ कहा हो तो जाता था, ग्रहण करना तो स्वसंवेदन ज्ञानसे ही होता था ।
इस शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिसे मिध्यात्वादि भावोंका अभाव है । उसका अभाव होने पर रागादिका अभाव होता है। उसके अभाव होने पर कर्मका अभाव हो जाता है । उसक अभाव होने पर शरीरका अभाव हो जाता है | शरीरका अभाव होने पर संसारका अभाव होता है । संसार ही दुःख है संसार के अभाव मे सर्व दुःखों का अभाव है । यहाँ शुद्धात्मतत्वकी उपलब्धिका मूल कारण भेदविज्ञान है । अतः सर्वयत्न से भेदविज्ञानकी भावना करना चाहिये ।
इति संवराधिकार समाप्त
निर्जराधिकार
1
१४३ - विकार के झड़नेको निर्जरा कहते हैं । निर्जरा दो प्रकार की है (१) भाव निर्जरा, (२) द्रव्य निर्जरा । ज्ञानी नीवके निर्जरा तो संवर पूर्वक होती है और अज्ञानी जीवके निर्जरा बन्धपूर्वक होती है अर्थात् ज्ञानी जीवके कर्मनिर्जरा व भावनिर्जरा (विभावका होकर व्यय होना) अन्य बन्धको नहीं बढ़ाती किन्तु मिध्यादृष्टि के कर्मनिर्जरा (उदय या उदीरणा) व भावनिर्जरा (विभावका उन्मग्न होकर निमग्न होना) अन्य कर्म बन्धका कारण बन जाती है । जैसे कि हाथीका स्नान और धूल चिपटनेका कारण ही बन जाता है और हाथी सूढ़ोंसे धूल ग्रहण कर कर सारे शरीरको धूसरित कर देता है ।