________________
(५०) समयसारदृष्टान्तमम
संवराधिकार १४०-पासबके निरोधको संवर कहते हैं । संघरका मूल विपरीतआशय रहित न है । भेदविज्ञानके प्रसङ्गामें जो वातें आती है वे ४४आत्मा, भावकर्म, द्रव्यकर्म व नोकर्म (शारीरादि)। यहां यह जिस दृष्टिमें दिखे कि आत्मामें (उपयोगमें) ही आत्मा है, इसमें क्रोधादि भावकर्म, शानावरणादि द्रव्यकर्म व शरीरादि नोकर्म नहीं हैं और न इनमें शुद्ध आत्मा है। खुद ही आहार है व खुद ही आधेय है। जैसे कि आकाश द्रव्य आकाशमें ही प्रतिष्ठित है, उसमें परकी न अधारता है और न आधेयता है । इसी प्रकार ज्ञानमें कहो या अभेदनयसे आत्मामें कहो, खुदमें खुदकी उठाधारता है व खुदकी आधेयता है । यहां मुख्यरूपसे यह भेदविज्ञान दृष्टि में लेना है कि क्रोध आदिमें उपयोग नहीं, उपयोगमें क्रोधादि नहीं, क्रोधादि ऋध्यतादिस्वरूपमें है, ज्ञान जानतास्वरूपमें है। इस भेदविज्ञान वलसे क्रोधादिको हेय व ज्ञानको उपादेय देखा जाना है। इसके प्रसादसे उपादेयताका भी विकल्प छूटकर शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होती है, शुद्धात्माकी उपलब्धिसे राग, द्वेष, मोहका प्रभाव होता है, यही अवस्था संवर तत्त्व है।
__१४१-जिस आत्माके उक्त प्रकारसे भेदविज्ञान हो जाता है, उसके ऐसा दृढ़नम अववोध रहता है कि जैसे तीव्र संतप्त अग्निमें तपाया गया भी सोना अपने सुवर्णपनेको नहीं त्यागता इसी प्रकार तीव्र कमविपाकसे युक्त होनेपर भी ज्ञान अपने ज्ञानस्वभावको नहीं त्यागता । यदि त्याग दे तो वस्तु तो स्वभावमात्र है स्वभावके त्यागते ही वस्तुका नाश हो जायगा। ऐसा नानता हुमा कर्मसे आक्रान्त होनेपर भी ज्ञानी राग, द्वेष, मोहको प्राप्त नहीं होता अपितु शुद्ध मात्माको ही प्राप्त होता है।
१४२-यहां आशंका हो सकती है कि आत्मा तो इस समय परोक्ष है, उसका ध्यान कैसे किया जा सकता है ? समाधान यह है कि परोक्ष भी कोई रूपी पदार्थ परके उपदेशसे लिखे गये रूपको देखकर जैसे