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भास्रवाधिकार
(४६) वे तब वह निरुपभोग ही रह गई । इसी प्रकार जिन कर्मों का बन्ध मज्ञान अवस्थामें हुआ उन कोंका सत्त्व तो इस समय है, किन्तु वे कर्म पानानुभवके योग्य तो तव होगे जव उनका उदयकाल आवेगा। जब नका उदयकाल आवेगा उस समय आत्माके रागभावके अनुसार विपाअनुभवके योग्य होगे। यदि उस समय आत्मा तत्व-ज्ञानके बलसे वेरागभावके उन्मुख रहा, तब वे कर्म निरुपभोग होकर ही खिर जांयगे। प्रथवा जो उदयमें आवेंगे वे जीविभाव राग, द्वष, मोहका निमित्त ही पावेंगे, तो वे नवीन आस्रवके कैसे कारण होगे? अथवा जो नीव चौथे व चौथेसे ऊपर १० वे गुणस्थान तक जिस गुणस्थानमें है उसके ज्ञान वैराग्यके अनुसार अनन्तानुवन्धी आदि कोका बन्ध होता ही नहीं।
१३६-रागादिभावासबके विना नवीन कर्मोका बन्ध नहीं होता। हो तत्त्वज्ञ आत्मा ही कदाचित् तत्त्वज्ञतासे च्युत हो जाय तो रागादिभाव का निमित्त पाकर पूर्वबद्ध कर्मोदय आनर वन्धका कारण हो जायगा। अथवा जो जीव शुद्ध तत्त्वक परिचयसे दूर हैं, उन बहिमुख नावोंके पूर्वबद्ध कर्मोदय नवीन कर्मवन्धोंको करते हैं। सो जैसे किसी पुरुषने भोजन किया तब वह पेट में गया भोजन उदराग्निका निमित्त पाकर माँस, वसा, रुधिर आदि अनेक रूप परिणम जाता है। इसी प्रकार अज्ञानी जीवके अथवा तत्त्वज्ञानसे, च्युत हुए जीवके कमविपाकमें नो कर्म बंधते हैं वे रागादि भावके अनुसार ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारमें परिणम जावे हैं। जिस तत्त्वज्ञानके अभावमे कर्मवन्ध होता है वह तत्त्वज्ञान शुद्धनयके आशयसे प्रकट होता है, अतः मुमुक्षवोंको निज शुद्ध आत्माको अभेदरूप में ग्रहण करने वाले शुद्धनयसे च्युत नहीं होना चाहिये । निर्विकल्प समाधिमें शुद्धनयका आशय स्वयं छूट जाता है, वह तो शुद्धनयका फल
इति पानवाधिकार समाप्त