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(१२) सहजानन्दशास्त्रमालायां स्वाद भिन्न भिन्न है । जैसे दही और शक्कर दोनोंको मिलाकर एक श्रीखंड वना हो उसमे भी स्वादभेदके पहिचानने वाले.दही और शक्करके स्वाद भेदको पहिचान जाते हैं। शक्कर दही नहीं है क्योंकि स्वादभेद है। चैतन्यमात्र मैं मोह नहीं हूँ. क्योंकि मोहमें और चैतन्यमें रवादभेद है। इसी प्रकार पुद्गलादि पर द्रव्यरूप और उनके विकल्परूप भी मैं नहीं हूँ।
३०-जिस प्रकार अपने हाथमें कोई सोनेकी चीज लिये हो और भूल जावे तो उसे व्यग्रता होती है, किन्तु उसे ही किसी प्रकार जब ख्याल आ जाता है तब उसे उसका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है प्योर व्यग्रता भी नष्ट हो जाती है । उसी प्रकार आत्मा अनादिकालसे मोहमें उन्मत्त हुआ अपने आपको भूल रहा था उसको जव किसी ज्ञानी गुरुने वार वार समझाया तो जव प्रतिबोधको प्राप्त हुआ तव ही वह अपने आपको परमेश्वरस्वरूप जानकर विश्वास करके और उसके अनुकूल उपयोग रूप आचरण करके अपने आपको चिन्मात्र ज्योतिरूप प्रत्यक्ष प्रतिभासने. लगता है। ___३१-जिस प्रकार समुद्र के किसी हिस्सेपर पतली चादर आड़े पड़ी हो तो उसमे स्नान करना कठिन है। उसी प्रकार ज्ञानसमुद्रपर भ्रम की चादर पड़ी है तो उस झोनसमुद्र में मग्न होना कठिन है। जैसे चादर को हटाकर समुद्र में खूब स्नान किया जा सकता है । वैसे भ्रमको हटाकर जानसमुद्र में स्नान किया जा सकता है । हे प्रात्मन् भ्रमकी चादर हटावो और निःशंक निर्भर ज्ञान्समुद्र में स्नान करो, ज्ञानमें मग्न होओ।
इनि पूर्वरंग समाप्त
अथ जीवाजीवाधिकार ३२-जिस प्रकार नाटकमें कोई मृत्युका पार कर रहा हो तो विवेकी देखने वाले दुखी हो जाते हैं कि हाय देखो यह उत्तम पात्र . गया । परन्तु जिसे यह नाटकरूप दीखता है "कि कोई श्रादमी पात्र