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सहजानन्दशास्त्रमालायां
द्रव्यको कर देता है, यह प्रतिभास व्यामोह है। इसी प्रकार कोई आत्मा अपनी परिणतिसे कर्मको वदेहको कर देती है, ऐसा प्रतिमास : अपने स्वभावसे ही क्रोधादिको कर देता है, ऐसा प्रतिभास केवल व्यामो
१११-किन्तु उक्त वार्ता सत्य नहीं है, क्योंकि यदि आत्मा ... परिणतिसे क्रम नोकर्मको कर देता तो वह कर्म व नोकर्म चैतन्यमय माता । जैसे कि पुरुष अपने विचार व व्यापारसे मिट्टीको घटरूप देता तो वह घट पुरुष व्यापारमय हो जाता।
११२-कर्म व नोकर्मका कर्ता तो श्रात्मा निमित्तरूपसे भी नहीं। है । जैसे कि पुरुष घटका निमित्त रूपसे भी कर्ता नहीं है। पुरुरके उपयोग व व्यापारको तो घट निष्पत्निमें निमित्तं कह सकते हैं, किन्तु पुरुषको निमित्त नहीं कह सकते । इसी प्रकार कर्म, नोकर्मका पारा निमित्तरूपसे भी कर्ता नहीं है । श्रात्माके योग, उपयोगको कर्मवन्धादिमें निमित्त कह सकते हैं, किन्तु आत्मद्रव्यको निमित्त नहीं कह सकते। ये योग और उपयोग अनित्य हैं।
११३-ज्ञानी अपनेको ज्ञानमात्र अनुभव करता है। अतः ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता होता है । जैसे कि कोई डेरी फार्मका मालिक जहां दूध निकल रहा हो, दही जम रहा हो आदि कुछ व्यापार हो वहां वह अध्यक्ष उनमें कुछ करता नहीं है, क्योंकि दूध दही आदि पर्याय तो उस गोरसमें ही व्याप्त हैं । अध्यक्ष तो मात्र अपने आपमें अपना परिणमन करता हुआ देख रहा है । इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म होते हैं तो वे उन पौगलिक कार्माणवर्गणा स्कन्धोमें ही व्याप कर होते हैं, ज्ञानी तो अपने आपमें अपना परिणमन करता हुआ मात्र जानता ही है।
११३-तथा वह डेरी फार्मका अध्यक्ष किसी विरुद्ध हो रहे काम को भी जान लेता है, वह करता नहीं है । इसी तरह ज्ञानी भी राग, द्वेष आदि विरुद्ध कार्योको भी जानता ही है, करता नहीं है, क्योंकि उसे
व विकारका प्रखर भेदविज्ञान हो गया है।