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समयसारदृष्टान्तमम कटनेसे ही टूटेगी। इस प्रकार कोई चिन्तन किया करे कि कर्म छूट जावे, बन्धन नष्ट हो जावे तो क्या इतने चिन्तन मात्रमें बन्धनसे मुक्ति हो जावेगी ? नहीं । बन्धन तो बन्धके छेदसे ही मिटेगा । भले ही एक प्रकार के इस धर्म-ध्यानसे पुण्यवन्य हो जाय परन्तु इससे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
१६१-जैसे कोई वन्धनमें बंधा हुआ पुरुष अपने ज्ञान व पुरुषार्थ के वलसे रस्सीका बन्धन है तो उसे तोड़कर, सांकलका बन्धन है तो उसे फोड़कर, काठका वन्धन है तो उसे छुटाकर मुक्त (स्वतन्त्र) हो जाता है। इसी प्रकार जीव तो विभाव, कर्म व शरीरके बन्धनमें बद्ध है सो वह . भेदविनान व पुरुषार्थक बलसे विभावोंको बेदकर, कोको भेदकर, शरीर को छुटाकर मुक्त (स्वतन्त्र) हो जाता है।
१६२-बन्ध छेदका उत्तर उपाय निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान है। इस परिणमनमें कुछ भी विकल्प (ग्रहण) नहीं है, ऐसा नहीं जानना किन्तु शुद्धात्माका संवेदन (ज्ञानरूप विकल्प) है अर्थात् स्वसंवेदनाकाररूप एक विकल्पसे परिणत है सो इस रूपसे सविकल्प है। यद्यपि यह परिणमन स्वसंवेदन रूपमे सविकल्प है तो भी वाह्यविषयक विकल्प न होनेसे वह निर्विकल्प ही है। वैसे लोको विपयानन्दरूप सराग स्वसंवेदन ज्ञान इस विषयक विकल्प होनेसे सविकल्प. है, तो भी इनर अन्यविषयक विकल्प न होनेसे लौकिक प्टिका निविकल्प कहा जाता है । अथवा दोनों जगह अन्य विषयक सूक्ष्म विश्ल्प बिना चाहे हैं उनकी मुख्यता न होनेसे निर्विकल्प हैं।
१९३-वन्धछेदका मृल उपाय भेदविज्ञानरूपी छनी है। जैसे हथौड़े के प्रयोगकी प्रेरणासे ठंनी द्वारा अनेकके संयोगसे हुए पिण्डके दो टुक कर दिये जाते हैं, इसी प्रकार ज्ञानभावनाकी प्रेरणासे भेदविज्ञानके द्वारा स्वभाव विभावके सम्बन्धको पृथक् कर दिया जाता है।
१६४-यहां भेदविज्ञान यह होता है कि आत्मा तो चैतन्यस्वरूप : कि त्रिकाल है व वन्ध मिथ्यात्वरागादिक विभावस्प है नो त्रिकाल