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(६८) समयसारदृष्टान्तमर्म में, कृतिमे रत रहते हैं, इसी प्रकार जो रागादि अपराध नहीं करते वे प्रतिक्रमणादि दण्ड पाये बिना ही निःशङ्करहते हैं और निर्दोष निजपरमात्मतत्त्वकी आराधनामें रत रहते हैं।
१६८-साधुजन अज्ञानियो जैसे होने वाले अप्रतिक्रमणसे बचने के लिये प्रतिक्रमण करते हैं और प्रतिक्रमण की प्रवृत्तिसे भी परे होने के लिये सर्व विशुद्ध अप्रनिक्रमण याने मात्र ज्ञाता द्रप्टा रहने रूप निविकल्प परिणति करते हैं, इसको तृतीय भूमिका कहते है । लोक जैसे विपकुम्भ उसे कहा जाता है जिसमें ऐसा विप रहता है कि जिसके पान करनेसे जीवकी मृत्यु हो । इसी प्रकार अध्यात्ममें अज्ञानिजन-संभव अतिक्रमण तो विपकुम्भ है ही, किन्तु प्रतिक्रमणको भी एक विकल्प अंश होनेसे विगकुम्भ कहा है । यह पूर्व अप्रतिक्रमणकी अपेक्षा अमृतकुम्भ कहा जा सकता है सो यदि तृतीय भूमिकाके अप्रतिक्रमणका स्पर्श हो तो।
१६६-लोकमे जैसे अमृतकुम्भ उसे कहा जाता है जिस अमृनके पानसे सर्व प्रकार हित ही हित हो, ऐसे अमृतपूर्ण कुम्भको। इसी प्रकार सर्वथा अध्यात्ममें सर्वथा अमृनकुम्भ तो वह ही है जिसके आश्रयसे अथवा जिस आश्रयमें सर्व प्रकार हित ही हित है, विकल्प अंशका नाम ही नहीं है । ऐसा सर्वथा अमृनकुम्भ तो तृतीय भूमिकाका अप्रतिक्रमण है। यह तृतीयभूमि शुद्धात्मसिद्धि रूप है, निवि कल्प निश्चयात्नत्रय स्वरूप है । यह पद वन्धरहित है व स्वयं मोक्ष स्वरूप है।
इति मोक्ष अधिकार समाप्त
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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार २००--जिस स्वरूपसे आत्माके देखे जानेपर व जिसका आश्रय करनेसे निर्मल पर्याय प्रकट होती है अर्थात् मोक्ष मार्ग व मोक्ष प्राप्त
है वह आत्मा अन्य सबसे न्यारा ज्ञानमात्र सर्वविशुद्ध है। उसकी म टवोत्कीर्णवत् प्रक्ट होती है । जैसे कोई प्रतिमा पापाणसे प्रकट