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(१८) सहजानन्दशास्त्रमालायां में परमाव विभाव (रागादि) हैं, सो अशुचि विभाव है, जीवद्रव्य अशुचि नहीं । इस प्रकार आत्मद्रव्यमें और रागादिमें अन्तर ज्ञान होता है।
जैसे काई स्वयं ऐसी प्रसपित नहीं है, जल स्वयं प्रसर्पित है, इसी प्रकार विभाव स्वयं चेतक नहीं वह जीव द्वारा चेत्य है, परन्तु जीव स्वयं चेतक है । ऐसा आत्म द्रव्यमें और रागादिमें अन्तर ज्ञान होता है।
जैसे-काई अन्यकी गन्दगीका भी कारण है, परन्तु जल गन्दगीका कारण नहीं । इसी प्रकार विभाव आकुलताका कारण है, परन्तु आत्मा आकुलताका कारण नहीं है । ऐसे आत्मद्रव्यमें और रागादिमें अन्तर ज्ञान होता है।
४६-जव आत्मद्रव्यमें व विभावमें भेदविज्ञान होता है, उसी समय विभावकी निवृत्ति होने लगती है। इसका काल प्रवल भेदविज्ञान है। जैसे वृक्ष लाख लग जावे तो लाख तो घातक होता है और वृक्ष वध्य होता है । इसी प्रकार जीवमें विभाव लग जाता है तो विभाव तो घातक है और जीव वध्य है । ऐसा महान् अन्तर तत्त्वज्ञानीको निश्चिन हो जाता है।
४७-जैसे मृगी रोगका वेग कभी घटता है, कभी बढ़ता है। इसी प्रकारके ये विभाव हैं, कभी घटते हैं, कभी बढ़ते हैं अर्थात् अध्रुव हैं। इस तरह आत्मद्रव्य अध्र व नहीं है, वह चैतन्यमात्र है और इस रवरूपसे सदा अचल है । इस प्रकार तत्त्वज्ञानी जीवको आत्मद्रव्य और विभावमै अन्तर निश्चिन हो जाता है।
४८-जैसे शीतज्वरका दाह एक स्थिति पर नहीं रहता है। वह क्रमसे बढ़ता घटता है अतएव अनित्य है । वैसे ही-ये विभाव एक स्थिति पर नहीं रहते, ये भी बढ़ते घटते रहते हैं अतएव रागादि विभाव भी अनित्य हैं। किन्तु, मात्र चैतन्यस्वभावी जीव स्वभावमें-अपरिवर्तित होने से नित्य है । इस प्रकार तत्त्वज्ञानीको स्वद्रव्य और विभावमें अन्तर निश्चित हो जाता है।
४६-जैसे कामों पुरुषके देहवीर्यके अलग होते ही कामविकार