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समयसारदृष्टान्तमर्म
जिन्हें चाह है उनका कर्तव्य है कि पहिले इस निज सत ज्ञायक स्वरूप आत्माको जानें और श्रद्धान करें और उस ही के अनुरूप आचरण करें जैसे कि जो कोई पुरुष धनलाभकी चाह करे तो वह सबसे पहिले राजा को जानता है और उसका विश्वास करता है तथा फिर उस राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करता है इस उपायसे उसे धनलाभ हो जाता है।
१७-यह आत्मोपलब्धि तव तक नहीं हो सकती जब तक यह जीव अज्ञानी है । जैसे-घड़ेके रूप रस गंध स्पर्शमें तथा घड़ेके प्रकार यह घड़ा है और घड़ेमें रूपादि भाव व आकार है इस तरह घड़ेमें और रूपादिभाव व आकारमें उस वस्तु के अभेदरूप याने एकमेक अनुभव होता है, इस तरह यदि कोई आत्मा मोहादिक भावमे और शरीरमें यह मैं आत्मा हूं और मुझ आत्मामे मोहादि व शरीर है ऐसा आत्माके अभेदरूप अनुभव करे तो वह अज्ञानी है, क्योकि स्वभाव और परभावको एकत्वरूप अभिप्राय अज्ञान है ।
१८-जैसे-दर्पणका स्वरूप तो ऐसी स्वच्छता ही है जिसके कारण उसमें स्व परके आकारका प्रतिभास होता है और यदि उस दर्पणमे अग्निका प्रतिविम्व हो रहा है तो वहां अग्निका कुछ नहीं है अग्निका स्वरूप उष्णता व ज्वाला है सो उष्णता व ज्याला अग्निमें ही है दर्पणमें नहीं है । वैसे जब इम आत्माके ऐसा भेदविज्ञान प्रकट होता है कि "मुझ अमूर्त आत्माका रवरूप तो स्व परको जाननेवाला जाननपन ही है और कर्म नोकम पुद्गलोका स्वरूप याने पर्याय है" और इस भेद विज्ञानके अनंतर अभेद अद्वैत निज आत्माका अनुभव होता है तभी यह ज्ञानी हो जायगा।
१६-जैसे "अग्नि इधन है, इंधन अग्नि है, अग्निका इंधन है, इधनकी अग्नि है, अग्निका इंधन था, इधनकी अग्नि थी, अग्निका इधन होगा, इधनकी अग्नि होगी। इस प्रकार अग्नि व इधन जुदे होनेपर भी जब तक ईधनमें अग्निकी असदुभूनकल्पना है तब तक वह अज्ञानी है और जव "अग्नि इधन नहीं है, इंधन अग्नि नहीं है, अग्नि अग्नि