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'निजेराधिकार
(५७) पच्चीसवें तीर्थङ्करके दृश्य दिखानेपर भी रेवती रानी संमोहित नहीं हुई।
____१६५-ज्ञानी जीव शुद्धात्मभक्तिके कारण रागादि भावोंको दूर करता है व व्यवहार में किसी अज्ञानी पुरुष द्वारा होने वाले धर्मापवादको प्रचलित नहीं होने देता। यह धर्मापवाद कई तरीकोंसे दूर किया जाता है, जैसे कि जिनेन्द्रभक्त सेठने व्रतीभेषमें रहने वाले ठगके द्वारा होने वाले धर्मापवादको उसको निष्कलङ्क सावित करके दूर किया, जैसे कई प्राचार्योन भ्रष्ट साधुवोंको संघ-बाह्य करके धर्मापवादको दूर किया इत्यादि।
१६६-सम्यग्दृष्टि पुरुष कर्मविपाकवश कदाचित् स्वयं उन्मार्गमें जावे तो भेदविज्ञानके वलसे शुद्धात्मतत्त्वकी भावनामें चित्त स्थिर करके स्वयंको सन्मार्गमें लगाता है और अन्य कोई उन्मार्गमें (विषयकषायादिवृत्तिमें) पतित होता हो तो उसे तत्त्वोपदेश आदि द्वारा सन्मार्गमें लगाते हैं । जैसे वारिषेण मुनिने त्यक्त परिग्रहके दिखानेकी घटना बताकर पुष्पहाल मुनिको सन्मार्गमें स्थित किया।
१६७-ज्ञानी जीवके शुद्ध स्वरूपके प्रति अपूर्व वात्सल्य होता है और इसी कारण व्यवहारमें आत्मसाधनाके प्रवर्तक धर्मात्माजनोंमें भी वात्सल्य रहता है, जिस भावके कारण तत्त्वभावना द्वारा अपने विभाव रूप उपसर्गों को दूर करता है और प्रयत्नपूर्वक अन्य धमिजनोंके उपसर्ग व क्लेशको दूर करता है। जैसे श्री विष्णुकुमार मुनिवरने अपनाचार्य आदि ७०१ मुनियोंके उपसर्गको दूर कराया था।
१६८-ज्ञानी अन्तःक्रिया व वहिःक्रिया द्वारा आत्माका व निज शासनका प्रभावक ही होता है। वह शुद्धात्म-भावनाके बलसे राग द्वेषादि परिणतियोंको दूर करके अपना प्रभावक तो होता ही है साथ ही उसकी मुद्रा व शुभ चेष्टाओंसे लोकमें भी धर्मप्रभावनाका निमित्त होता है। जैसे मुनिवर वनकुमारने अपने योगमें स्थिरता की जिसके प्रसादसे रानकृत खङ्गका आक्रमण भी फूल बन गया, तथा जैसे मुनिवर मानतुंग