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(१४) सहजानन्दशारत्रमालायां वह व्यवहारनयसे कहा है। जैसे म्लेच्छ पुरुपोंको किसी संस्कृत शब्दमें आशीर्वाद दिया, तो जव तक म्लेच्छ भाषामे उल्था करके उसे समझाया न जावे वह समझ नहीं सकता, वैसे जो नीवके सहजस्वभावसे अनभिज्ञ हैं, ऐसे व्यवहारी जनोंको "चैतन्य” इतने शब्दसे न समझ सकनेके कारण जीवकी विकारी पर्यायों, असमानजातीय पर्यायोंका आश्रय लेकर समझाना पड़ता है, सो यद्यपि यह अभूनार्थ है, तथापि अभूतार्थ व्यवहारनयके आश्रयसे दिखाना उचित ही है।
३७-जिस प्रकार सेनासहित राजा कहीं जा रहा हो और कोई पूछे यह कौन जा रहा है ? नो यह उत्तर मिलता है कि यह राना ना रहा है । वास्तवमें देखो तो राजा पांच योजनमें फैलकर तो नहीं जा रहा है, वह तो एक पुरुषमात्र है फिर भी सेनासमुदायमें राजाका व्यवहार किया जाता है। उसी प्रकार एक सहज शुद्ध आत्मा समस्त रागादि पर्यायोंमें व्याप्त नहीं होता, तथापि उन समस्त पर्यायों में सम्बन्ध या परिणमनके कारण यह जीव है, ऐसा व्यवहार किया जाता। वास्तवमें तो आत्मा एकरूप है, उसके न वर्ण हैं न गंध हैं और न गुणस्थान जीव स्थान आदि है, वह तो सदा एकरूप है।
३८-जीव रूपरसगंधस्पर्शशब्दसे रहित अनुभवगम्य चेतन गुणात्मक है, जीवमें वर्ण श्रादिक राग आदिक गुणस्थान आदिक नहीं है, क्योंकि ये पुद्गलके उपादान या पुद्गलके निमित्तसे होते हैं और स्वानुभवसे भिन्न तत्व हैं । तथापि अनेक ग्रन्थों में इन्हें जीवके कहे गये हैं, वह सब निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धमात्रके कारण व्यवहारसे जीवके समझना । निश्चयनयसे ये कोई भाव जीवके नहीं है। जैसे-फुसुभ (कौसुमी) रंगमें रंगे हुए सूती वस्त्रको देखकर लोग यह कहते हैं कि यह कपड़ेका रंग है। निश्चयसे वह रंगका रंग है, कपड़ा तो केवल वही है, जैसा कि पहले था, किन्तु रंगके सम्बन्धसे हुए कपड़ेकी व्यक्त शकलको - कर लोग यही कहते हुए पाये जाते हैं कि रंग वस्त्रका है, यह व्यवहार । इसी प्रकार निश्चयसे तो आत्मा आत्मद्रव्यस्वरूप है, परन्तु औपाधिक