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सहजानन्दशास्त्रमालायां
कर्मो को ग्रहण करता है, न कर्मीको परिणमाता है, न कर्मोंको उत्पन्न करता है, न कर्मों को करता है और न कमको वांधता है, फिर भी < 'आत्मा कर्मोंको ग्रहण करता है, कर्मको परिणमाता है, कमोंको उत्पन्न करता है, कमोंको करता है, कर्मोको बांधता है" आदि कहना उपचार है ।
११८-- और भी देखो प्रजाजन यदि दोपोंमें लगे तो कह दिया जाता है कि इन दोषों का उत्पादक राजा है और प्रजाजन गुणों में लगे तो कह दिया जाता है कि इन गुणों का उत्पादक राजा है । यद्यपि प्रजा के दोष गुण प्रजामें ही व्याप कर रहते हैं, राजामें व्याप कर नहीं रहते हैं, तो भी मात्र राज्य के प्रसङ्गका आधार पाकर लोक ऐसा कह देते हैं। वह सब उपचार से कहना है । इसी प्रकार पुद्गल द्रव्यमें गुण दोष आवे तो पुद्गल के व्याप्यव्यापक भावसे ही आते हैं, किन्तु नीव भाव वहां निमित्तमात्र है, इस प्रसङ्गका आधार पाकर लोक ऐसा कह देते हैं कि पुद्गल द्रव्य गुण दोषोंका अथवा पुद्गल द्रव्यका व उसके गुणका उत्पादक आत्मा है । यह सब उपचार मात्र कथन है ।
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११६ - यहां प्रश्न होता है कि पुद्गल कर्मका उत्पादक आत्मा नहीं है तो कौन है ? उत्तर - पुद्गल भी द्रव्य है, अतः उसमें भी परिणमन शक्ति है, सो जीवभावका निमित्त पाकर योग्य पुद्गल द्रव्य स्वयं पुद्गल कर्मरूप परिणम जाता है। जैसे कि कलशरूपसे परिणत होने वाली मिट्टी स्वयं कलशरूप परिणम जाती है । इस तरह पुद्गल कर्मका कर्ता निश्चयसे वही पुद्गल द्रव्य हुआ ।
१२०-- इसी प्रसङ्ग में यह भी प्रश्न उठ सकता है कि जीवविभाव ( रागादि) का कर्ता कौन है ? उत्तर- जीव भी द्रव्य है, वह भी परिणमन स्वभावी है | अतः कर्मोदयको निमित्तमात्र पाकर जीव स्वयं रागादि विभावरूप परिणम जाता है। सो यह जीव जब क्रोधमें उपयुक्त होता है, तब यह क्रोधरूप होता है. जब मानादिमें उपयुक्त होता है, तब मानादिरूप
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जाता है । जैसे कि गरुडके ध्यान में परिणत हुआ मनुष्य रचयं गरुड
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