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समयसार-दृष्टोक्त मर्म
१-समय या समयसार आत्माका नाम है। यह. औत्मा प्रतिक्षण अपनी परिणति करता रहता है। जगत के जीव परिणतियोंको निज सर्वरव समझते हैं किन्तु उन्हें अपने एकपनेकी खबर नहीं है जो सव परिणतियों में रहता है । सव द्रव्योका अपना अपना एकत्व (स्वभाव) टवोत्कीर्ण प्रतिविम्ववत् निश्चल है। आत्माका भी चैतन्यस्वभाव हल्द्वोत्कीर्णवत निश्चल है । जैसे टाकीसे उकेरी गई प्रतिमा मुड़ नहीं सकनी, परिवर्तित हो नहीं सकती, इसी प्रकार आत्माका स्वभाव बदल नहीं सकता; आत्मा एक चैतन्य स्वभाव है, वह सनातन है।
२-इस समयसारस्वरूप निज सहज कारणपरमात्माकी अनुभूतिके विना जगतके जीव ऐसे परिभ्रमण करते हैं जैसे कोल्हका बैल । कोल्हके वेलकी आंखोंपर पट्टी बंधी है जिससे उसे सूझना नहीं है सो वह चैल तेलीकी प्रेरणाके निमित्तसे कोल्हू के घेर फेर गोल गोल चक्कर काटता है, किन्तु वह यह नहीं समझता कि मैं वहीं के वहीं बार वार चल रहा हूं बल्कि वह मानता है कि मैं सीधा ही नया नया गमन कर रहा हूँ। वैसे जगतके प्राणियोंकी ज्ञानचक्षुपर मोह-अज्ञानको पट्टी बंधी है जिससे उसे शान्ति सत्यपथ सूझता नहीं है सो वह मोही कर्मविपाकके निमित्तसे पञ्चेन्द्रियके विषयोके घेर फेर वार वार चक्कर काटना है किन्तु वह यह नहीं समझता कि मैं उच्छिष्टको ही वार वार भोग रहा हूँ, बल्कि वह मानता है कि मैं सीधा ही नया नया विलक्षण कार्य कर रहा हूँ। यह मोहकी लीला है।
३-परमशुद्धनिश्चयनयसे परिचयमें आया हुआ आत्मा शुद्ध आत्मा है। सर्व पर, परभाष, विकल्प, भेदोसे भिन्न केवल स्वरूप वाला शुद्ध आत्मा है। इसे दाह्य (जलते हुए इंधन) में रहनेवाले अग्निकी तरह अशुद्ध न मानना अर्थात् जैसे केवल अग्नि कहाँ रह सकती है ? अग्नि तो जिसे जला रही है उस दाटके आधारमें आकारमं रहती है, इस तरह