Book Title: Prakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और जैन धर्म का अध्ययन [ 20वीं सदी के अन्तिम दशक में ] प्रो. प्रेम सुमन जैन प्रकाशक कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली-110067 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अखिल भारतीय प्राच्यविद्या सम्मेलन , पूना 40वॉ चेन्नई- अधिवेशन , 28 29 30 मई 2000 अध्यक्षीय भाषण प्राकृत एवं जैनधर्म विभाग प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन (20वीं सदी के अंतिम दशक में ) STUDIES IN PRAKRIT AND JAINISM [ In the last decadeof the 20th Centuary ] प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन आचार्य एवं विभागाध्यक्ष जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय , उदयपुर प्रकाशक श्री कुन्दकुन्द भारती प्राकृत संस्थान 18-बी स्पेशल इंस्टीट्यूशनल एरिया नई दिल्ली -110067 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ All India Oriental Conference, Poona 40th Session CHENNAI, 28-30 May, 2000 PResidental Address PRAKRIT AND JAINISM SECTION STUDIES IN PRAKRIT AND JAINISM In the last decadeof the 20th Centuary] By Prof. PREM SUMAN JAIN Professor and Head Deptt. of Jainology and Prakrit M. L. Sukhadia Univercity, Udaipur Publisher Sri Kundkund Bharti Prakrit Sansthan 18-B, Special Institutional Area NEW DELHI-110067 2000 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन (20 वीं सदी के अंतिम दशक में ) अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं । पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोदहिं सिरसा ।। जो अरहंत द्वारा प्रतिपादित अर्थ गणधर देवों द्वारा शब्द-रूप में भली प्रकार से रचा हुआ है, उस श्रुतज्ञानरूपी महासमुद्र को भक्ति - सहित मैं सिर से प्रणाम करता हूँ । The meaning revealed by the Arahanta ( emboided spiritually perfect personality) has been properly worded by the Ganadharas (chief disciples of the Arahanta). So by bowing my head with devotion. I make obeisance to the ocean of (worded) scriptural knowledge. भारत भूमि की इस सांस्कृतिक नगरी चेन्नई में आयोजित अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के इस चालीसवें अधिवेशन में उपस्थित आदरणीय विद्वान मित्रो और जिज्ञासु स्वाध्यायप्रेमी भाईओ और बहनो ! आप सब का इस प्राकृत एवं जैनधर्म विभाग में हार्दिक स्वागत है । प्राचीन सांस्कृतिक गौरव से समृद्ध इस तमिलनाडु प्रदेश में जैन धर्म सुदीर्घकाल तक पल्लवित और पुष्पित हुआ है । जैनधर्म के परम साधक और विद्वान हजारों साधुगणों ने इस तमिल प्रान्त को अपने विहार से पवित्र किया है । प्राकृत के समर्थ प्राचीन आचार्य कुन्दकुन्द की तपोभूमि भी इस प्रदेश में रही है जो आज पोन्नूरमलै के नाम से जानी जाती है । प्राचीन समय में चेर, चोल, पाण्डव और पल्लव नरेशों ने जैन धर्म के विकास में अपना विशेष योगदान किया था । जैन धर्म की काशी इस तमिल भूमि में समन्तभद्र पूज्यपाद अकलंक, सिंहनंदी जिनसेन वीरसेन और माल्लिसेन जैसे महान् जैनाचार्यो ने अपने साहित्य का सृजन किया है। जैन संतों और जैन धर्म के सम्बन्ध में अनेक शिलालेख भी इस भूमि से प्राप्त हुए हैं । अतः तमिल प्रदेश की भाषा, संस्कृति और चिंतन के विकास में जैन धर्म की महती भूमिका रही है । समता और अहिंसा के सन्देश से जैनाचार्यो के ग्रन्थों और उपदेशों से इस तमिलनाडु प्रदेश को सिंचित किया जाता रहा है । अतः यह सुखद संयोग भी है कि इस बीसवीं · " प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 7 3 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी के अन्तिम दौर में यहाँ प्राकृत और जैनधर्म विषय पर सैकड़ों विद्वान अपने शोध आलेखों को प्रस्तुत करने के लिए एकत्रित हुए हैं । यहाँ की जैन समाज आज भी जैन धर्म और दर्शन के उन्नयन में सक्रिय है । उसका प्रतिफल है- चेन्नई में रिसर्च फाउन्डेसन आफ जैनोलाजी तथा डिपार्टमेन्ट और जैनोलाजी जैसे केन्द्रों का कुशल संचालन । इस सुदृढ़ पृष्ठभूमि में प्राकृत और जैन धर्म के अध्ययन अनुसंधान का विश्लेषण करना सार्थक होगा ऐसा मैं मानता हूँ । प्राच्य विद्या सम्मेलन के प्राकृत एवं जैन धर्म सेक्सन के अध्यक्ष पद को मुझसे पूर्व अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने सुशोभित किया है । उनमें प्रो. हीरालाल जैन , पंडित दलसुख भाई मालवणिया , प्रो. नथमल टाटिया , प्रो. राजाराम जैन आदि प्रमुख हैं । इन सबको आदरपूर्वक प्रणाम करते हुए मेरा यह विनम्र प्रयास है कि आप सब विद्वानों के समक्ष प्राकृत एवं जैनधर्म के अध्ययन के विषय में कतिपय बिन्दुओं पर चर्चा की जाय । प्राकृत एवं जैन धर्म के क्षेत्र में जो शोध कार्य हुआ है उसका लंबे अन्तराल से विस्तार से कोई विश्लेषण नहीं हो पाया है। विगत पाँच छः अधिवेशनों के अध्यक्षीय भाषण ही प्रकाशित नहीं हो सके हैं । अतः मात्र विगत दो वर्षों के प्राकृत अध्ययन की चर्चा करने से जैनविद्या के शोध कार्यो का दिग्दर्शन नहीं हो पाता है । यह बीसवीं शताब्दी का अन्तिम दशक भी समाप्ति की ओर है । अतः मैंने अपने अध्यक्षीय भाषण में इस विगत दशक (1990 से 2000 तक ) में सम्पन्न प्राकृत और जैन धर्म के शोध कार्यो के विवरण को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । विभिन्न संस्थानों और विद्वानों को सम्पर्क करने के उपरान्त भी बहुत कम लोगों से जानकारी उपलब्ध हो पाई । फिर भी विभिन्न स्त्रोतों के आधार पर विगत दशक में सम्पन्न शोधकार्य , प्रकाशन , शोधप्रबन्ध , सक्रिय शोध संस्थाओं आदि की संक्षिप्त जानकारी को यहां प्रस्तुत किया गया है। इसमें बहुत कुछ छूटना संभव है। फिर भी जो सामग्री प्रकाश में आई है वह इस बात की प्रेरणा लेने के लिए पर्याप्त है कि जैनविद्या के विद्वानों को अध्ययन की किस दिशा में संलग्न होना चाहिए । इस अध्यक्षीय भाषण के प्रकाशन में परम पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी की निरन्तर प्रेरणा और आशीर्वाद रहा है । श्री कुन्दकुन्द भारती प्राकृत संस्थान , नई दिल्ली के अधिकारियों ने इसके प्रकाशन में जो सहयोग दिया उसके लिए उनका आभार और मित्र विद्वानों के परामर्श-सहयोग के लिए उनका सादर स्मरण । प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत अध्ययन : दशा एवं दिशा - प्राकृत भाषा और उसका साहित्य जन सामान्य की संस्कृति से समृद्ध है। स्वाभाविक रूप से प्राकृत भाषा जनता से सम्पर्क रखने का एक आदर्श साधन बन जाती है । इसीलिए प्राकृत भाषा को समुचित आदर प्रदान करते हुए तीर्थंकर महावीर , सम्राट अशोक एवं खारवेल जैसे महापुरुषों ने अपने संदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए प्राकृत का उपयोग किया है। जैन आगमों में प्राकृत का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है , किन्तु वेदों की भाषा में भी प्राकृत भाषा के तत्वों का समावेश है । भारत के अधिकांश प्राचीन शिलालेख प्राकृत में हैं। प्रारम्भ से ही इस देश के नाटकों में प्राकृत का प्रयोग होता रहा है । ये सभी विवरण हमें सूचना देते हैं कि इस देश की जनता की स्वाभाविक भाषा, मूलभाषा प्राकृत रही है। समय समय पर सामान्य जन की विभिन्न बोलियां साहित्यिक प्राकृत का रूप भी ग्रहण करती रही हैं। प्राकृत से अपभ्रंश एवं अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। जैन श्रमण प्राकृत की विभिन्न बोलियों का अच्छा ज्ञान रखते थे । उनके धार्मिक उपदेश सदैव प्राकृत में होते थे । उनके द्वारा लिखित महत्वपूर्ण दार्शनिक एवं कथात्मक साहित्य के काव्य , नाटक , स्तोत्र , उपन्यास आदि ग्रन्थ सरल एवं सुबोध प्राकृत में हैं। इसके अतिरिक्त कथा , दृष्टान्त-कथा, प्रतीक कथा , लोककथा आदि विषयक ग्रन्थ भी प्राकृत में लिखे गये हैं , जो मानव मूल्यों और नैतिक आदर्शो की सही शिक्षा देकर व्यक्ति को श्रेष्ठ नागरिक बनाते हैं । प्राकृत में लिखे गये सबसे प्राचीन ग्रन्थ आगम कहे जाते हैं । इनमें जैनधर्म एवं दर्शन के प्रमुख नियम वर्णित हैं और विभिन्न विषयों पर अनेक सुन्दर कथाएं दी गयी हैं । आगम और उसका व्याख्या साहित्य प्राकृत कथाओं का अमूल्य खजाना है । प्राकृत लेखकों के द्वारा कुछ महत्वपूर्ण धर्मकथा ग्रन्थ भी लिखे गये हैं , जो कथाओं के कोश हैं । प्राकृत में कई प्रकार के काव्य ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं । कई कवियों एवं अलंकार-शास्त्रियों ने अपने लाक्षणिक ग्रन्थों में प्राकृत की सैकड़ों गाथाओं को उद्धृत कर उनकी सुरक्षा की है । प्राकृत साहित्य के इस विशाल समुद्र के अवगाहन से वह अनुपम एवं बहुमूल्य सामग्री प्राप्त होती है , जो भारत के सांस्कृतिक इतिहास का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करने में सक्षम है । देश के स्वर्णयुग की अवधि में कई साहसी समुद्र यात्राएँ व्यापारियों द्वारा की जाती थीं । उनके विस्तृत विवरण प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं । ये समुद्र-यात्राओं के वृतान्त भारत के गौरव को रेखांकित करते हैं कि उस समय विभिन्न देशों के साथ हमारे सांस्कृतिक सम्बन्ध प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे । प्राकृत साहित्य के अध्ययन से हमें अनेक कलाओं हस्तशिल्प औषधि-विज्ञान ज्योतिष, भूगोल, धातुविज्ञान रसायनविज्ञान आदि की प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है। वास्तव में प्राकृत ग्रन्थों में उपलब्ध विभिन्न वृतांत आचार - शास्त्र, वनस्पति-शास्त्र, जीव-विज्ञान एवं राजनीति शास्त्र आदि के क्षेत्र में नवीन तथ्य प्रस्तुत करते हैं । इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि प्राकृत अध्ययन के भाषात्मक, सांस्कृतिक पक्ष को विभिन्न आयामों द्वारा आज उद्घाटित करने की आवश्यकता है । यह महत्वपूर्ण कार्य किसी समर्पित समुदाय एवं संस्थान द्वारा ही अच्छे ढंग से किया जा सकता है। जनभाषा : " प्राकृत भाषा अपने जन्म से ही जनसामान्य से जुड़ी हुई है। ध्वन्यात्मक और व्याकरणात्मक सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत भाषा लम्बे समय तक जन - सामान्य के बोल - -चाल की भाषा रही है। प्राकृत की आदिम अवस्था का साहित्य या उसका बोल-चाल वाला स्वरूप तो हमारे सामने नहीं है किन्तु वह जन-जन तक पैठी हुई थी । महावीर बुद्ध तथा उनके चारों ओर दूर-दूर के विशाल जन समूह को मातृभाषा के रूप में प्राकृत उपलब्ध हुई । इसीलिए महावीर और बुद्ध ने जनता के सांस्कृतिक उत्थान के लिए प्राकृत भाषा आश्रय लिया, जिसके परिणाम - स्वरूप दार्शनिक, आध्यात्मिक, सामाजिक आदि विविधताओं से परिपूर्ण आगमिक एवं त्रिपिटक साहित्य के निर्माण की प्रेरणा मिली। इन महापुरुषों ने इसी प्राकृत भाषा के माध्यम से तत्कालीन समाज के विभिन्न क्षेत्रों में क्रान्ति की ध्वजा लहरायी थी। इससे ज्ञात होता है कि तब प्राकृत मातृभाषा के रूप में दूर दूर के विशाल जनसमुदाय को आकर्षित करती रही होगी । जिस प्रकार वैदिक भाषा को आर्य संस्कृति की भाषा होने का गौरव प्राप्त है उसी प्रकार प्राकृत भाषा को आगम भाषा एवं आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है । · 6 प्राकृत जन - भाषा के रूप में इतनी प्रतिष्ठित थी कि उसे सम्राट अशोक के समय में राज्यभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ और उसकी यह प्रतिष्ठा सैकड़ों वर्षो तक आगे बढ़ी है। अशोक ने भारत के विभिन्न भागों में जो राज्यादेश प्रचारित किये थे उसके लिए उसने दो सशक्त माध्यमों को चुना । एक तो उसने अपने समय की जनभाषा प्राकृत में इन अभिलेखों को तैयार कराया ताकि वे जन-जन तक पहुँच सकें और दूसरे उसने उन्हें पत्थरों पर खुदवाया ताकि वे सदियों तक अहिंसा, सदाचार समन्वय का संदेश दे सकें । इन दोनों माध्यमों ने अशोक को अमर बना दिया है। देश के अन्य नरेशों ने भी प्राकृत में लेख एवं 7 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन " Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्राएँ अंकित करवायीं । ई. पू. 300 से लेकर 400 ईस्वी तक इन सात सौ वर्षों में लगभग दो हजार लेख प्राकृत में लिखे गये हैं। यह सामग्री प्राकृत भाषा के विकास-क्रम एवं महत्व के लिए ही उपयोगी नहीं है . अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए भी महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। . अभिव्यक्ति का माध्यम : प्राकृत भाषा क्रमशः विकास को प्राप्त हुई है। वैदिक युग में वह लोकभाषा थी । उसमें रूपों की बहुलता सरलीकरण की प्रवृत्ति थी। महावीर युग तक आते-आते प्राकृत ने अपने को इतना समृद्ध और सहज किया कि वह अध्यात्म और सदाचार की भाषा बन सकी। इससे प्राकृत के प्रचार -प्रसार में गति आयी। वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी। इसीलिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्व प्राप्त हुआ। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में प्रतीत होता है कि प्राकृत भाषा गाँवों की झोपड़ियों से राजमहलों की सभाओं तक समादृत होने लगी थी , अतः वह अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम चुन ली गयी थी। महाकवि हाल ने इसी समय प्राकृत भाषा के प्रतिनिधि कवियों की गाथाओं का गाथाकोश ( गाथासप्तशती ) तैयार किया , जो ग्रामीण जीवन और सौन्दर्य-चेतना का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। प्राकृत भाषा के इस जनाकर्षण के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया। नाटक समाज का दर्पण होता है। जो पात्र जैसा जीवन जीता है, वैसा ही मंच पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है। समाज में अधिकांश लोग दैनिक जीवन में प्राकृत भाषा का प्रयोग करते थे। अतः उनके प्रतिनिधि पात्रों ने भी नाटकों में प्राकृत के प्रयोग से अपनी पहिचान बनाये रखी। अभिज्ञानशाकुन्तलं की ऋषिकन्या शकुन्तला , नाटककार भास की राजकुमारी वासवदत्ता , शूद्रक की नगरवधू वसन्तसेना तथा प्रायः सभी नाटकों के राजा के मित्र , कर्मचारी आदि पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जनसमुदाय की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी । वह लोगों के सामान्य जीवन की अभिव्यक्ति करती थी। इस तरह प्राकृत ने अपना नाम सार्थक कर लिया था। प्राकृत स्वाभाविक वचन-व्यापार का पर्यायवाची शब्द बन गया था। समाज के सभी वर्गों द्वारा स्वीकृत भाषा प्राकृत थी। इस कारण प्राकृत की शब्द सम्पत्ति दिनोंदिन बढ़ रही थी। इस शब्द-ग्रहण की प्रक्रिया के कारण एक ओर प्राकृत ने भारत की विभिन्न भाषाओं के साथ अपनी धनिष्ठता बढ़ायी तो दूसरी ओर वह जीवन और साहित्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गयी। प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यात्मक सौन्दर्य : लोक भाषा जब जन-जन में लोकप्रिय हो जाती है तथा उसकी शब्द सम्पदा बढ़ जाती है तब वह काव्य की भाषा बनने लगती है। प्राकृत भाषा को यह सौभाग्य दो तरह से प्राप्त है। प्राकृत में जो आगम ग्रंथ , व्याख्या-साहित्य , कथा एवं चरितग्रंथ आदि लिखे गये उनमें काव्यात्मक सौन्दर्य और मधुर रसात्मकता का समावेश है। काव्य की प्रायः सभी विधाओं- महाकाव्य , खण्डकाव्य , मुक्तककाव्य आदि को प्राकृत भाषा ने समृद्ध किया है। इस साहित्य ने प्राकृत भाषा को लम्बे समय तक प्रतिष्ठित रखा है । अशोक के शिलालेखों के लेखन-काल से आज तक इन अपने 2000 वर्षों के जीवन काल में प्राकृत भाषा ने अपने काव्यात्मक सौन्दर्य को निरन्तर बनाये रखा है। प्राकृत भाषा की इसी मधुरता और काव्यात्मकता का प्रभाव है कि भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य के अपने लक्षण- ग्रन्थों में प्राकृत की सैकड़ों गाथाओं के उद्धरण दिये हैं । अनेक सुभाषितों को उन्होंने इस बहाने सुरक्षित किया है । __भारतीय भाषाओं के आदिकाल की जन-भाषा से विकसित होकर प्राकृत स्वतंत्र रूप से विकास को प्राप्त हुई । बोलचाल और साहित्य के पद पर वह समान रूप से प्रतिष्ठित रही है। उसने देश की चिन्तनधारा , सदाचार और काव्य-जगत् को अनुप्राणित किया है , अतः प्राकृत भारतीय संस्कृति की संवाहक भाषा है । प्राकृत ने अपने को किसी घेरे में कैद नहीं किया। इसके पास जो था उसे वह जन-जन तक बिखेरती रही और जनसमुदाय में जो कुछ था उसे वह बिना हिचक ग्रहण करती रही । इस तरह प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक भाषा है । प्राकृत के स्वरूप की ये कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो प्राचीन समय से आज तक लोक-मानस को प्रभावित करती रहीं हैं। प्राकृत-अध्ययन का विकास एवं भविष्य भारतीयविद्या के अन्तर्गत जिन विषयों का अध्ययन किया जाता है, उनमें अब प्राकृतविद्या भी अपना स्थान बनाने लग गयी है। प्राकृतविद्या वस्तुतः जैनविद्या का प्रमुख अंग है , क्योंकि प्राकृत का अधिकांश साहित्यिक जैन धर्म-दर्शन से सम्बन्ध रखता है , यद्यपि उसका काव्यात्मक एवं सांस्कृतिक महत्व भी कम नहीं है। प्राकृतविद्या के स्थान पर प्राकृत अध्ययन पद का प्रयोग कना अधिक व्यापक एवं सार्थक है। अतः देश-विदेश में विगत कुछ दशकों में प्राकृत अध्ययन की क्या प्रगति हुई हैं एवं अगले पचास वर्षों में इसके विकास की क्या सम्भावनाएं है, इसी पर संक्षेप में यहाँ कुछ विचार करना उचित होगा । प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगत पचास वर्षो में प्राकृत अध्ययन का जो विवरण विद्वानों के सामने उपस्थित हुआ है, उसे उजागर करने में प्राच्यविद्या सम्मेलन के जैनधर्म एवं प्राकृत सेक्शन का विशेष योगदान है। इसमें सम्मिलित होने वाले विद्वानों ने प्राकृत - अध्ययन को गति प्रदान की है। 1968 से प्राकृत सेमिनार भी यू. जी. सी के सहयोग से लगातार 5-6 विश्वविद्यालयों में हुए । उनके लेखों ने प्राकृत के महत्व को रेखांकित किया। इसी बीच कुछ विश्वविद्यालयों में जैनधर्म एवं प्राकृत की पीठ एवं विभाग स्थापित हुए। साथ ही पालि एवं संस्कृत विभागों के साथ भी प्राकृत का शिक्षण प्रारम्भ हुआ । वैशाली के प्राकृत शोध संस्थान ने प्राकृत के अध्ययन को कुछ जागृति प्रदान की। कुछ शोध - संस्थानों एवं प्रकाशकों ने प्राकृत के ग्रन्थों को मूल अथवा अनुवाद के साथ प्रकाशित किया । विश्वविद्यालय में प्राकृत के ग्रन्थों पर शोधकार्य सम्पन्न हुए । इन सब साधनों एवं प्रयत्नों में प्राकृत अध्ययन एक स्वतन्त्र विषय के रूप में उभर कर सामने आया है। इस सबका लेखा-जोखा भी विद्वानों ने समय-समय पर प्रस्तुत किया है। प्राकृत अध्ययन की इस प्रगति का परिणाम है कि आज जो हमारे देश में जैन विषय की लगभग तीन लाख पाण्डुलिपियां ग्रन्थभण्डारों में सुरक्षित होने का अनुमान है, उनमें से पचास हजार के लगभग पाण्डुलिपियां प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों की है। एक ग्रन्थ की विभिन्न पाण्डुलिपियां पायी जाती है, फिर भी यदि सूचीकरण किया जाय तो लगभग 600 प्राकृत के एवं 200 अपभ्रंश के कवि / लेखक / आचार्य अब तक हुए हैं, जिनकी लगभग दो हजार कृतियां (मूलग्रन्थ ) ग्रन्थ - भण्डारों में उपलब्ध हैं । इनमें से प्राकृत के अभी तक लगभग 300 ग्रन्थ एवं अपभ्रंश के 65-70 ग्रन्थ ही सम्पादित होकर प्रकाश में पाये हैं । लगभग पिछली पूरी शताब्दी के दिग्गज विद्वानों के प्रयत्नों से जब प्राकृत का अध्ययन इतना हो पाया है, तो शेष ग्रन्थों को प्रकाश में लाने हेतु 21 वीं शताब्दी का समय पर्याप्त नहीं है । पांडुलिपियों के सर्वेक्षण सूची - करण और सम्पादन के कार्य में लगने वाले विद्वानों का अभाव ही हो रहा है, प्रादुर्भाव नहीं । ऐसी स्थिति में अब पूरे देश में प्रतिवर्ष प्राकृत - अपभ्रंश के नये सम्पादित ग्रन्थों के निर्माण और प्रकाशन की संख्या पाँच से ऊपर नहीं है। यह स्थिति प्राकृत के प्रेमी विद्वानों, प्रकाशकों एवं समाज - नेताओं को आत्म-निरीक्षण की ओर प्रेरित करे यही भावना है । · भारत के विश्वविद्यालयों में जो जैनविद्या पर शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत हुए हैं, उनकी संख्या लगभग 600 तक पहुँच गयी हैं । इनमें प्राकृत के लगभग 90 शोध-प्र - प्रबन्ध हैं एवं अपभ्रंश के 60 | इन शताधिक शोध-ग्रन्थों में से अभी पचास प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन " Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिशत भी प्रकाश में नहीं आ पाये हैं । विदेशों में जैनविद्या की जो लगभग 65 थीसिस प्रस्तुत हुई हैं , उनमें 33 प्राकृत-अपभ्रंश की हैं और फ्रेंच एवं जर्मन आदि भाषाओं में उनमें से 25 शोध- प्रबन्ध प्रकाशित भी हो गये हैं । किन्तु उनका उपयोग भारतीय जैन विद्वानों के लिए करना असम्भव सा है। क्योंकि फ्रेंच, जर्मन , अंग्रेजी आदि में कार्य करने और उसका उपयोग करने की सुविधा यहां बहुत कम है। प्राकृत साहित्य में से अर्धमागघी आगम साहित्य के 45 ग्रन्थ, उनकी टीका साहित्य के लगभग 25 ग्रन्थ , शौरसेनी आगम–परम्परा और आचार्यों के 50-55 ग्रन्थ , प्राकृत के 8 महाकाव्य , 5 खण्डकाव्य, 22--24 चारितकाव्य , 15-16 मुक्तककाव्य . 8 सट्टक, 30-32 कथाग्रन्थ , व्याकरण एवं छन्द आदि फुटकर साहित्य के 30-35 ग्रन्थ ही अभी तक प्रकाशित हो पाये हैं । किन्तु इनमें से कई अनुपलब्ध हो गये हैं। प्रकाशित सभी प्राकृत ग्रन्थ , अपभ्रंश ग्रन्थ किसी एक पुस्तकालय में उपलब्ध भी नहीं हैं | 21 वीं शताब्दी के अध्ययन के लिए अब तक प्रकाशित प्राकृत- अपभ्रंश के समस्त ग्रन्थ किसी एक पुस्तकालय में उपलब्ध कराना आवश्यक है। इसके लिए आधुनिक उपकरणों का उपयोग भी किया जा सकता है। ज्ञात हुआ है कि अर्धमागधी के सम्पूर्ण आगमों को कम्प्यूटर में भरने की योजना तैयार की जा रही है। इसी तरह प्राचीन पाण्डुलिपियों का सूचीकरण भी कम्प्यूटर फीडिंग के माध्यम से किया जा सकता है। इन कार्यो में जो संस्थान व कार्यकर्ता आगे आयेंगे , 21 वीं सदी का प्राकृत अध्ययन उनके सहारे ही चलेगा। __21 वीं सदी में प्राकृत अध्ययन की प्रगति का प्रमुख आधार धर्म एवं सम्प्रदाय न होकर प्राकृत साहित्य का भाषात्मक एवं सांस्कृतिक वैशिष्ट्य होगा । प्राकृत भाषा की समृद्धि में जैन परम्परा के कवियों एवं आचार्यों का प्रमुख योगदान अवश्य रहा है। किन्तु जनभाषा होने के कारण प्राकृत भाषा भारतीय भाषाओं के विकास की धुरी है। संस्कृत साहित्य का अध्ययन प्राकृत के बिना अधूरा है। संस्कृत नाटकों में 60 प्रतिशत से अधिक प्राकृत का प्रयोग है। संस्कृत काव्यग्रन्थों के उदाहरण प्रायः प्राकृत की गाथाओं द्वारा दिये गये है। संस्कृत भाषा व शब्दकोश में प्राकृत से बने हजारों शब्द समाहित हैं । यही स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं की है। अतः प्राकृत के शोध का अब नया क्षेत्र प्राकृत का भाषात्मक अध्ययन होगा । इस दिशा में देश-विदेश के विद्वानों ने जो कार्य किया है , उसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता है । प्राकृत भाषाओं का वृहत् व्याकरण ग्रन्थ तैयार किये जाने की आवश्यकता है , जिसे विद्वानों की कोई टीम 10 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलकर ही कर सकती है। डॉ. पिशेल एवं अन्य जर्मन विद्वानों के प्राकृत भाषा सम्बन्धी ग्रन्थों तथा डॉ. पी. एल. वैद्या , डॉ. ए. एम. घाटगे, डॉ. सुकुमार सेन , डॉ. कत्रे आदि भारतीय विद्वानों की शोध-पूर्ण कृतियों के तलस्पर्शी अध्ययन के उपरान्त उपलब्ध प्राकृत साहित्य के आधार पर जो नया प्राकृत-व्याकरण ग्रन्थ तैयार होगा, वह 21 वीं सदी के अध्ययन को गति प्रदान करेगा । बहुत सम्भव है कि 21 वीं सदी में ही ऐसा ग्रन्थ तैयार हो पाये। प्राकृत व्याकरण के साथ-साथ तुलनात्मक प्राकृत शब्दकोश की भी नितान्त आवश्यकता है। पूना में डॉ. घाटगे के निर्देशन में यह शब्दकोश तैयार हो रहा है । किन्तु उसकी कार्य की गति के अनुसार प्रतीत होता है कि उस शब्दकोश के दर्शन 21 वीं सदी में ही हो सकेंगे। अर्थ की व्यवस्था होने पर भी विद्वानों का अभाव एक चिन्तनीय विषय है । प्राकृत अध्ययन के विकास के लिए प्राकृत के श्रमनिष्ठ एवं विश्रुत विद्वानों की जितनी आवश्यकता है , उतनी ही आवश्यकता प्राकृत-शिक्षण एवं शोध से जुड़ी हुई अथवा प्राकृत के नाम का उपयोग करने वाली संस्थाओं को जीवन्त होने की है। विश्वविद्यालयों में प्राकृत अध्ययन को बढ़ावा देने की दृष्टि से आठ-नौ स्वतन्त्र जैनालाजी एवं प्राकृत विभाग एवं चेयर्स स्थापित है। विगत कुछ वर्षों में कुछ नयी प्राकृत संस्थाएं भी उदित हुई हैं । उनमें राजस्थान प्राकृत अकादमी जयपुर, कुन्दकुन्द भारती नई दिल्ली , आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान , उदयपुर , प्राकृत-अध्ययन प्रसार संस्थान , उदयपुर , अपभ्रंश एकेडेमी जयपुर , प्राकृत ज्ञानभारती एजुकेशन ट्रस्ट बैंगलोर एवं सेवा मंदिर , जोधपुर आदि प्रमुख हैं । 21 वीं सदी में इन प्राकृत संस्थाओं की संख्या में वृद्धि हो सकती है , क्योंकि प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्ता अपनी एक अलग संस्था चाहता है और एक संस्था , दूसरी संस्था के साथ सहयोग करके चलना पसन्द नहीं करती। पूरे साधन किसी संस्था के पास नहीं है। कहीं अर्थ का अभाव है तो कहीं विद्वानों की कमी , शोधकर्ताओं की कमी । 21वीं सदी में प्राकृत अध्ययन का कार्य इन संस्थाओं में ताल-मेल हुए बिना नहीं चलेगा। प्राकृत-अपभ्रंश के विभिन्न कार्यो का विभाजन कर प्रत्येक संस्था अपना दायित्व स्वीकार करे तो प्राकृत-अध्ययन की प्रगति हो सकेगी । इसके लिए प्राकृत के विद्वानों की एक अखिल भारतीय परिषद भी गठित हुई थी , किन्तु एक बैठक के बाद अब उसमें कोई हलचल नहीं है। प्राकृत अध्ययन की गति-प्रगति को एक सूत्र में बाँधने के लिए एवं प्राकृत- अपभ्रंश के साहित्य से जन-सामान्य को परिचित कराने के लिए प्राकृत प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की पत्रिका की महती भूमिका है। प्राकृत विद्या नामक त्रैमासिक पत्रिका उदयपुर से इसी उद्देश्य से प्रकाशित की गयी। अब दिल्ली से प्रकाशित हो रही है । 21 वीं सदी में प्राकृत के अध्ययन की क्या दिशाएं हों एवं उनके प्रति समाज का व विद्वानों का कितना और कैसा रुझान होगा यह कह पाना कठिन है । केवल आशावादी एवं आदर्शवादी बनने से प्राकृत अध्ययन विकसित नहीं हो जायेगा । इसके लिए प्राकृत भाषा के शिक्षण के प्रति जनमानस में रूचि जागृत करना आवश्यक है । विश्वविद्यालयों में जो प्राकृत का शिक्षण हो रहा है उसमें समाज के घटकों की भागीदारी न के बराबर है । साधु-सन्त, स्वाध्यायी बन्धु एवं समाज का युवावर्ग प्राकृत- शिक्षण से दूर हैं। विगत वर्षो में प्राकृत-शिक्षण के कुछ वर्कशॉप सरकारी स्तर पर सम्पन्न हुए है। उनमें विद्यार्थी तो दूर - प्राकृत के विद्वान् भी अपना पूरा समय नहीं दे पाये । जैसे चौबीस तीर्थकरों के इर्दगिर्द जैनविद्या की परम्परा घूमती है, वैसे ही समाज में कुछ सुनिश्चित विद्वान् हैं, वे हर समारोह, संगोष्ठी व्याख्यान सम्मेलन में आते-जाते रहते हैं । वे हर विषय के विशेषज्ञ माने जाते हैं, अतः उनकी किसी एक विषय के लिए प्रतिबद्धता नहीं है । कोई गहन स्थायी महत्व का कार्य उनके द्वारा सम्पन्न नहीं हो पाता। वे विद्वान समाज से मात्र सजावट व प्रदर्शन के लिए काम आ रहे हैं। यह प्रवृत्ति जब रुकेगी तभी प्राकृत - अध्ययन के लिए कुछ ठोस हो सकेगा । उनके द्वारा पहला कार्य यह होना चाहिए कि वे प्राकृत शिक्षण-शिविर के अधिष्ठाता बनें । 10-15 दिनों के 4-6 शिविर भी प्राकृत-शिक्षण के यदि आयोजित हुए तो प्रतिवर्ष लगभग सौ जिज्ञासु - प्राकृत के तैयार हो सकते हैं । इन्ही में से फिर प्राकृत की प्रतिभाएं खोजकर उन्हें 21 वीं सदी के लिए प्राकृत के विद्वान् बनाया जा सकता है I , 127 प्राकृत-अध्ययन के विकास के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। श्रमणविद्या संकाय की श्रमणविद्या पत्रिका (1983) में प्राकृत के मनीषी डा. गोकुलचन्द जैन ने अंग्रेजी में प्राकृत एवं जैनविद्या के उच्चस्तरीय अध्ययन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। प्राकृत की संगोष्ठियों की संस्तुतियां भी प्रकाश में आयी हैं । प्राकृत विभागों के व्यावहारिक अनुभवों ने भी प्राकृत - शिक्षण की कुछ दिशाएं तय की हैं । इन सबके मन्थन से यदि कुछ निष्कर्ष निकाले जाय तो 21 वीं सदी में प्राकृत अध्ययन के लिए निम्न प्रमुख कार्यो की प्राथमिकताएं तय की जा सकती हैं । इनमें से जिस संस्था व्यक्ति विद्वान्, सरकारी प्रतिष्ठान व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को जो अनुकूल लगे उस पर अपना योगदान कर सकता है | J " प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. प्राकृत-अपभ्रंश पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण एवं सूची-निर्माण । 2. प्राकृत अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों का सम्पादन- अनुवाद । 3. सम्पादित प्रमुख मूल प्राकृत-अपभ्रंश ग्रन्थों का अनुवाद एवं समालोचनात्मक अध्ययन । 4. प्रकाशित प्राकृत-अपभ्रंश ग्रन्थों का समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन | 5. प्राकृत-अपभ्रंश के ग्रन्थों में प्राप्त भारतीय इतिहास एवं समाज विषयक ___ सामग्री का संकलन एवं अनुवाद । 6. प्राकृत के शिलालेखों का सानुवाद संग्रह-संकलन एवं प्रकाशन । 7. प्राकृत कथाकोश एवं अपभ्रंश कथा-कोश ग्रन्थों का निर्माण । 8. प्राकृत भाषाओं का वृहत् व्याकरण ग्रन्थ का निर्माण । 9. प्राकृत बृहत् शब्दकोश का निर्माण एवं प्रकाशन । 10. जैनविद्या पर अद्यावधि प्रकाशित शोध-लेखों का सूची-करण । 11.प्राकृत कवि-दर्पण नामक कृति में प्रमुख प्राकृत कृतिकारों के व्यक्तित्व ___ एवं योगदान का प्रकाशन । 12. प्राकृत एवं भारतीय भाषाएं नामक पुस्तक का लेखन एवं प्रकाशन । 13. प्राकृत गाथाओं के गायन एवं संगीत पक्ष को उजागर करने के लिए प्राकृत गाथाओं के कैसेट तैयार करना ।। 14. प्राकृत कम्प्यूटर फीडिंग एवं प्राकृत लेंग्युएज लैब की राष्ट्रीय स्तर पर स्थापना एवं संचालन। 15. विश्वविद्यालयों में जैनविद्या एवं प्राकृत शोध विभागों की स्थापना एवं ___ स्थापित विभागों में पर्याप्त प्राध्यापकों की नियुक्तियां । 16. जैनविद्या एवं प्राकृत के विभिन्न स्तरों के शिक्षण एवं शोधकार्य के लिए ___ पर्याप्त छात्रवृत्तियों एवं शोधवृत्तियों की सुविधा प्रदान करना । 17. प्रतिवर्ष दो प्राकृत संगोष्ठियों की सुविधा प्रदान करना । 18. प्राकृत अध्ययन की पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में सहयोग । 19. प्रति वर्ष प्राकृत-अपभ्रंश की कम से कम पांच नयी कृतियों का सम्पादन- प्रकाशन। 20. प्रतिवर्ष प्राकृत-अपभ्रंश एवं जैनविद्या के समर्पित विद्वानों का राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान। 21. विदेश में सम्पन्न प्राकृत- अपभ्रंश जैनविद्या के कार्यो में सहयोग प्रदान करना एवं उन कार्यो का सार-संक्षेप हिन्दी- अंग्रेजी में भारत में उपलब्ध कराना । प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 13 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत अध्ययन के इन प्रस्तावित कार्यों में संशोधन परिवर्द्धन स्वागत योग्य हैं । 21 वीं सदी के इन 21 कार्यो को यदि वर्तमान में स्थित संस्थाएं एवं विद्वान् एक-एक कार्य भी अपने जुम्मे ले लें तो न केवल उनका जीवन , अपितु उनकी सन्तति-परम्परा का जीवन भी धन्य हो जायेगा । जैन धर्म और अहिंसात्मक शोध : जैन तत्वज्ञान : __ जैनधर्म भारत का प्राचीन प्रमुख धर्म है । प्रारम्भ में श्रमणधर्म , अर्हत् धर्म एवं निर्ग्रन्थ धर्म के नाम से इसे जाना जाता था । जैनधर्म की परम्परा के महापुरुष समस्त प्राणियों में समान भाव रखते थे , समता की साधना करते थे । इसीलिए वे श्रमण कहलाये । श्रमण वह है , जिसका मन शुद्ध है , जो पापवृत्ति वाला नहीं है , तथा जो मनुष्यों एवं अन्य सभी प्राणियों को अपने समान समझता हुआ उन पर अहिंसा का भाव रखता है। जैनधर्म के महापुरुषों को आध्यात्मिक गुणों से युक्त होने के कारण ' अर्हत् ' कहा जाता है तथा धर्मरूपी तीर्थ के संस्थापक होने के कारण वे तीर्थंकर कहलाते हैं । उनके बाहर-भीतर किसी प्रकार का कोई परिग्रह नहीं होता , दुष्प्रवृत्ति नहीं होती , इसीलिए वे निर्गन्थ कहे जाते हैं । उन्होंने अपनी विषय-वासनाओं को जीत लिया है , इसीलिए ये जिन कहलाते हैं । ऐसे जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म को जैनधर्म कहा गया है। भारतीय चिन्तन–परम्परा में सर्वप्रथम अहिंसामय लोकधर्म का उद्घोष भगवान् ऋषभदेव ने किया था। उसी समतामय धर्म का प्रचार-प्रसार भगवान् पार्श्वनाथ तथा भगवान् महावीर आदि तीर्थकरों ने किया। महावीर द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म लगभग ढाई हजार वर्षों से भारत में सर्वत्र व्याप्त है । इस धर्म की तत्व , ज्ञान और आचारगत मीमांसा से जैनधर्म की आचार संहिता का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैन आचार : पाश्चात्य दर्शनों में आचार संहिता का सम्बन्ध प्रायः नैतिक कर्तव्यों से है। सही और अच्छे आचरण का अध्ययन करना आचार-शास्त्र का मुख विषय है। भारतीय दार्शनिकों की दृष्टि से दर्शन , धर्म , आचार , नीति , अध्यात्म आदि शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं किन्तु सामान्यतया आचार संहिता का सम्बन्ध धार्मिक आचरण से ही अधिक है । कुछ दार्शनिक परम्परागत रीति-रिवाजों एवं धार्मिक क्रियाकाण्डों के परिपालन को ही धर्म कहते हैं । यही उनकी आचार-संहिता है ; किन्तु कुछ दार्शनिकों ने अहिंसा ; सत्य , संयम आदि विश्वजनीन मूल्यों को जीवन में उतारने/अपनाने को आचार माना है। कुछ ऐसे 14 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी विचारक हैं ,जो उस आचरण को आचार कहते हैं , जो सांसारिक दुःखों को दूर करने में सहायक हो तथा जिससे आध्यात्मिक उपलब्धि हो । वस्तुतः जैनधर्म की आचार-संहिता इसी विचारधारा से सम्बन्ध रखती है। आचार्य कुन्दकुन्द का यह कथन कि चारित्तं खलु धम्मो ( चारित्र ही धर्म है ) तथा दशवैकालिकसूत्र की यह उक्ति कि अहिंसा , संयम और तप से युक्त धर्म उत्कृष्ट मंगल है जैनधर्म की उसी मूल भावना को प्रकट करते हैं , जिनमें आचार को अध्यात्म-प्राप्ति का साधन माना गया है ; अतः जैन आचार- संहिता केवल नैतिक नियमों से सम्बन्धित नहीं है , तत्वज्ञान और अध्यात्म से भी वह जुड़ी हुई है। व्यावहारिक दृष्टि से जैन आचार संहिता जहाँ एक ओर व्यक्ति और समाज को नागरिक गुणों से युक्त करती है , वहीं दूसरी ओर पारमार्थिक दृष्टि से वह उनका मुक्तिमार्ग प्रशस्त करती है । वस्तुतः जैन आचार संहिता में व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जीवन-पद्धति का समन्वय है। मानवता का मल्यांकन : जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रतिपादन से यह स्पष्ट हुआ कि आत्मा ही अच्छे बुरे कर्मो की केन्द्र है। आत्मा मूलतः अनन्त शक्तियों की केन्द्र है। ज्ञान और चैतन्य उसके प्रमुख गुण हैं ; किन्तु कर्मो के आवरण से उसका शुद्ध स्वरूप छिप जाता है। जैन आचार संहिता प्रतिपादित करती है कि व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य आत्मा के इसी शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना होना चाहिये ; तब यही आत्मा परमात्मा हो जाता है। आत्मा -को परमात्मा- में प्रकट करने की शक्ति जैन दर्शन ने मनुष्य में मानी है ; क्योंकि मनुष्य में इच्छा , संकल्प , और विचार-शक्ति है इसीलिए वह स्वतन्त्र क्रिया कर सकता है , अतः सांसारिक प्रगति और आध्यात्मिक उन्नति इन दोनों का मुख्य सूत्रधार मनुष्य ही है। जैन दृष्टि से यद्यपि सारी आत्माएँ समान हैं , सब में परमात्मा बनने के गुण विद्यमान हैं ; किन्तु उन गुणों की प्राप्ति मनुष्य-जीवन में ही संभव है, क्योंकि सदाचरण एवं संयम का जीवन मनुष्य-भव ही हो सकता है। इस प्रकार जैन-आचार संहिता ने मानवता को जो प्रतिष्ठा दी है , वह अनुपम है। जैन आगम-ग्रन्थों में स्पष्ट कहा गया है कि अहिंसा , संयम , तप-रूप धर्म का जो आचरण करता है उस मनुष्य को देवता भी नमस्कार करते हैं ; यथा धम्मो मंगलमुविट्ठ अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ।। 15 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-संहिता का मूलाधार सम्यक् चारित्र है। जैन ग्रन्थों में चारित्र का विवेचन गृहस्थों और साधुओं की जीवन-चर्या को ध्यान में रखकर किया गया है | साधु-जीवन के लिए जिस आचरण का विधान किया गया है उसका प्रमुख उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार है, जबकि गृहस्थों के चारित्र - विधान में व्यक्ति एवं समाज के उत्थान की बात भी सम्मिलित है । इस तरह निवृत्ति एवं प्रवृत्ति मार्ग दोनों का समन्वय जैन आचार संहिता में हुआ है। आत्महित और परहित का सामंजस्य सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की पृष्ठभूमि में सम्यक्चारित्र में सहज उपस्थित हो जाता है । निज का स्वार्थ-साधन दूसरों के प्रति द्वेष और ईर्ष्याभाव तथा हिंसक वृत्ति का त्याग व्यक्ति सम्यग्दर्शन को उपलब्ध होते ही कर देता है । वस्तुओं का सही ज्ञान होते ही वह आत्मकल्याण तथा परहित की बात सोचने लगता है। उसमें आत्मा के गुणों को जगाने का पुरुषार्थ तथा जगत् के जीवों के प्रति करुणा और मैत्री का भाव जागृत हो जाता है। अनेकान्तवाद की वैचारिक उदारता से परिचित होते ही व्यक्ति अनाग्रहपूर्ण जीवन जीने लगता है । अतः उसके कदम सम्यक् चारित्र की भूमि को स्पर्श करने लगते हैं। यहाँ आकर साधक अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए ही है। अहिंसा के बिना जैन आचार शून्य है । मानवता - का कल्याण अहिंसा में ही सन्निहित है; इसीलिए जैन आचार में इसका सूक्ष्म और मौलिक विवेचन मिलता है। · अहिंसा की साधना के लिए जैन आचार में सत्य- अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह, दान आदि व्रतों का विधान है। जैन ग्रन्थों में इनकी सूक्ष्मतर व्याख्याएँ भी प्राप्त हैं; किन्तु यदि गहराई में देखा जाए तो जैन आचार आध्यात्मिक उपलब्धियों का ही सामाजिक परिणाम है। वस्तुतः अहिंसा का अर्थ आत्मज्ञान है । समताभाव की उपलब्धि है । जो व्यक्ति आत्मा और लोक के अन्य पदार्थो के स्वरूप का सही ज्ञान कर लेगा उसकी वृत्ति इतनी सात्विक हो जाएगी कि उससे हिंसा हो न सकेगी ; क्योंकि समानधर्मा जीवों को दुःख कौन पहुँचाना चाहेगा और किस लाभ के लिए ? जब व्यक्ति अहिंसा को अपने हृदय में इतना उतारेगा तभी वह सामाजिक हो सकेगा । अहिंसा की इस धुरी पर ही जैन आचार के अन्य व्रत गतिमान हैं । जैन आचार आध्यात्मिक और तत्वज्ञान के धरातल पर जितना गंभीर एवं महत्वपूर्ण है, उतना ही वह सामाजिक क्षेत्र में भी उपयोगी है। जैन दर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण ने जैन आचार को सर्वागीण बना दिया है । " जैन आचार ने जो आत्मज्ञान का सिद्धान्त दिया है वह मनुष्य के भीतर शून्यता रिक्तता को भरता है। आत्म सम्पदा से परिचित होने पर मनुष्य के लिए प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 16 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर की वस्तुओं का अभाव अथवा सद्भाव दुःख-सुख नहीं देगा । आत्मसुख के लिए ही मनुष्य स्वार्थी बनकर दूसरों के साथ अन्याय करता है; अतः जैन दर्शन ने सभी आत्माओं में समानता का उद्घोष कर इस समस्या के निराकरण का प्रयत्न किया है । अनेकान्त द्वारा आज के मानव की अज्ञान - की समस्या का भी समाधान हो सकता है। वह संसार के बहुआयामी स्वरूप से परिचित हो सकता है । वैचारिक उदारता की प्राप्ति से वह एक विवेक-संपन्न वैज्ञानिक हो सकता है और इस तरह जबविज्ञान की प्रगति से सही दृष्टिकोण जुड़ जाएगा, उससे प्राणिमात्र - का हित संबद्ध हो जाएगा तब हिंसा का वातावरण स्वयमेव नष्ट हो जाएगा। विज्ञान और अहिंसा के इस मेल से ही मानवता का कल्याण संभव है । जैनधर्म एवं आधुनिक विश्व के परिप्रेक्ष्य में विगत दशक में संगोष्ठियों व्याख्यानों एवं विभिन्न पाठ्यक्रमों के माध्यम से देश-विदेश में पर्याप्त कार्य हुआ है। जैनधर्म को पर्यावरण संतुलन के साथ जोड़कर भी चिन्तन किया गया है। इस विषय पर विद्वानों ने शोध-प्रबन्ध भी लिखे हैं । कतिपय स्वतन्त्र पुस्तकों का लेखन / प्रकाशन भी हुआ है। इस सबका पूर्ण विवरण दे पाना तो यहाँ संभव नहीं है। फिर भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर 20 वीं सदी के अंतिम दशक में सम्पन्न प्राकृत और जैनधर्म के अध्ययन का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है । " प्राकृत एवं जैनविद्या के क्षेत्र में शोध-प्रबन्ध " कोई प्रामाणिक सूची , प्राकृत, अपभ्रंश और जैनविद्या पर शोध - उपाधियों यथा - पीएच. डी., डी. लिट्., विद्यावाचस्पति विद्यावारिधि, डी. फिल् लघु शोधप्रबन्ध ( एम. ए. एवं एम. फिल् के डेजर्टेशन के रूप में ) आदि उपाधियों हेतु अनेक शोध-प्रबन्ध विभिन्न विश्वविद्यालयों में लिखे गये पर पहले उनकी प्रकाशित नहीं हुई थी। भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ने प्राच्य विद्या सम्मेलन, वाराणसी के अवसर पर एक जैन संगोष्ठी का आयोजन 1968 में किया था और ज्ञानपीठ पत्रिका का अक्टूबर 1968 का अंक, संगोष्ठी अंक के रूप में निकला था; जिसमें शोधकार्य तथा शोधरत छात्रों की सूची प्रकाशकों, विद्वानों आदि का परिचय दिया गया था । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी ( उ० प्र० ) से डॉ. सागरमल जैन एवं डॉ. अरुण प्रताप सिंह के सम्पादकत्व में सन् 1983 में एक सूची Doctoral Dissertations in Jaaina and Buddhist Studies के नाम से प्रकाशित हुई थी। इसी प्रकार डॉ. गोकुलचन्द जैन, वाराणसी ने एक सूची संकाय पत्रिका सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के श्रमणविद्या अंक 1983 ई. में छापी थी। पर इसके बाद आगामी संस्करण नहीं निकले। प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन " · . " 17 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1988 में डॉ. कपूरचन्द जैन ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली के आर्थिक सहयोग से ' A Survey of Prakrit & Jainological Research. प्रोजेक्ट पूर्ण किया । जो रिपोर्ट आयोग को भेजी गई, उसमें 425 शोध- प्रबन्धों की सूची थी । 1988 में ही इस रिपोर्ट का प्रकाशन श्री कैलाशचन्द जैन स्मृति न्यास से प्राकृत एवं जैनविद्याः शोध सन्दर्भ नाम से हुआ । मई 1991 में प्राकृत एवं जैनविद्या शोध-सन्दर्भ का दूसरा संस्करण उक्त न्यास ने प्रकाशित किया , जिसमें लगभग 600 देशी तथा 35 विदेशी शोध-प्रबन्धों का परिचय था ; साथ ही जैन-विद्याओं के शोध में संलग्न व विश्वविद्यालयों , संस्थानों , पत्रपत्रिकाओं , प्रकाशकों , शोध-निदेशकों का संक्षिप्त परिचय दिया गया था। शोधरत 55 शोधार्थियों एवं 95 शोध- योग्य विषयों की सूची इसमें दी गई है। इसके बाद लगभग 150 और शोध-प्रबन्धों की जानकारी 1993 में शोध-सन्दर्भ का परिशिष्ट निकाल कर दी गई । इसका तीसरा संस्करण प्रकाशनार्थ तैयार है। वर्तमान में लगभग 73 विश्वविद्यालयों से प्राकृत और जैनविद्याओं में शोध-उपाधियाँ दी गई हैं । पन्द्रह विश्वविद्यालयों में प्राकृत एवं जैनविद्या अध्ययन के लिए स्वतन्त्र या संयुक्त विभाग हैं , सत्रह शोध-संस्थान जैनविद्याओं पर शोध हेतु संलग्न है। गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद में वर्ष 1993-94 अन्तर्राष्ट्रीय जैन अध्ययन केन्द्र की स्थापना की गई है। यह केन्द्र जैन अध्ययन के सन्दर्भ में एक पूर्ण स्थापित केन्द्र होगा । इसमें एम. ए. एम. फिल. विद्यावाचस्पति विद्यावारिधि आदि के पूर्ण कालिक और अंशकालिक पाठ्यक्रम होंगे । पूर्णकालिक पाठ्यक्रमों के लिए छात्रवृत्तियों की भी व्यवस्था की गई है। प्राकृतभाषा और साहित्य , जैनदर्शन, जैन कला , जैन पाण्डुलिपि विज्ञान आदि का गहन अध्ययन अध्यापन यहाँ होगा | जैनविद्या के प्रबन्धों एवं उच्चस्तरीय ग्रन्थों को प्रकाशित करने वाली संस्थायें गिनी चुनी है। इनमें भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली , पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान , वाराणसी ; इंस्टीट्यू ऑफ प्राकृत जैनोलोजी एण्ड अहिंसा , वैशाली (बिहार) , एल. डी. इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी , अहमदाबाद (गुजरात) बी. एल. इन्स्टीटयूट आफ इण्डालाजी , दिल्ली ,श्री कुन्दकुन्द भारती प्राकृत संस्थान, नई दिल्ली , शारदा बेन रिसर्च इन्स्टटीयूट अहमदाबाद , आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान , उदयपुर राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं शोध संस्थान, श्रमणबेलगोला , आदि के नाम लिए जा सकते हैं। भविष्य में सम्भव है कोई ऐसी संस्था/ संस्थायें प्रकाश में आये जो एकल या संयुक्त रूप से प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनविद्या-शोधप्रबन्धों का प्रकाशन करें । अभी तक कुल हुए शोधकार्य का लगभग 20 प्रतिशत ही प्रकाशित है। जैनविद्या शोध के विकास में जैन सिद्धान्तभास्कर आरा , प्राकृतविद्या (दिल्ली) अनेकान्त नई दिल्ली , तुलसीप्रज्ञा लाडनूं , श्रमण ( वाराणसी ) , जैनविद्या श्रीमहावीरजी , अर्हत्वचन इन्दौर , शोधादर्श ( लखनऊ) , जैनजर्नल (अंग्रेजी-कलकत्ता ) तीर्थंकर ( इन्दौर ) जिनवाणी (जयपुर ), सम्बोधि (अहमदाबाद ), जिनवाणी (जयपुर) , जिनमंजरी ( अंग्रेजी-कनाडा ) आदि पत्रिकायें कार्यरत हैं । जैनविद्या के शोध-प्रबन्धों का विषयवार विवरण : (1) संस्कृत भाषा एवं साहित्य 140 (2) प्राकृतभाषा एवं साहित्य-40, (3) अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य- 65, (4) हिन्दी भाषा एवं साहित्य- 90, (5) जैन गुजराती/मराठी /राजस्थानी दक्षिण भारतीय भाषायें- 85 (6) व्याकरण एवं भाषाविज्ञान- 34 (7) जैनागम-30 (8) जैन न्याय/दर्शन- 110 (9) जैन पुराण35 (10) जैन नीति/ आचार/ धर्म/योग-42, (11) जैन इतिहास/ संस्कृति/ कला/ पुरातत्व-70 (12) जैनबौद्ध तुलनात्मक अध्ययन- 20 (13) जैन एवं वैदिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन-25 (14) जैन रामकथा साहित्य- 40 , (15) व्यक्तित्व/ एवं कृतित्व-60 (16) जैनविज्ञान एवं गणित- 12 (17) जैन समाजशास्त्र- 13 (18) जैन अर्थशास्त्र-05 (19) जैनशिक्षाशास्त्र- 06 (20) जैन राजनीति- 14 (21) जैन मनोविज्ञान एवं भूगोल- 07 (22) अन्य - 30 , (23) विदेशी विश्वविद्यालयों से शोध प्रबन्ध लगभग 80 । विशेष विवरण के लिए देखें- 1-प्राकृत एवं जैनविद्या : शोध सन्दर्भ (द्वितीय संस्करण ) : डॉ. कपूरचन्द जैन , प्रकाशक : श्री कैलाशचन्द्र जैन स्मृति न्यास, खतौली 1991 2-प्राकृत एवं जैन विद्या शोध सन्दर्भ ( परिशिष्ट ) 1993 प्राकृत एवं जैनविद्या को आचार्यों एवं मुनियों का अवदान प्राचीन समय में जैनाचार्य एवं मुनियों ने प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध करने और जैनविद्या की समुन्नति में अनुपम योगदान किया है। वर्तमान युग में भी कतिपय आचार्य एवं मुनि इस क्षेत्र में सक्रिय रहे। विगत सदी में जिन जैन सन्तों ने प्राकृत भाषा एवं साहित्य के विकास के कार्य को प्राथमिकता दी उनमें आचार्य राजेन्द्रसूरि, आचार्य आत्माराम जी महाराज के जैनविद्या के ग्रन्थ शोधकर्ताओं के लिए आदर्श हैं । विगत दशक में स्वर्गीय आचार्य श्री आनन्द प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 19 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि जी ने प्राकृत की शिक्षा को अपूर्व गति दी । स्वर्गीय आचार्य श्री तुलसी के सद्प्रयत्नों से प्राकृत आगम और जैनविद्या के अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने स्वयं प्राकृत भाषा एवं साहित्य में अभिवृद्धि की है । स्वर्गीय आचार्य नानेश की प्रेरणा से प्राकृत आगम संस्थान उदयपुर गतिशील हुआ है। आचार्य शीलचन्द्रगणि इस दिशा में सक्रिय सहयोग कर रहे हैं। स्वगीर्य आचार्य देवेन्द्र मुनि जी ने प्राकृत आगम साहित्य पर ग्रन्थ लिखे हैं । दिगम्बर परम्परा में आचार्यश्री तपःपूत दिगम्बर योगी विद्यानन्द जी महाराज प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित हैं । उनके विश्वधर्म की रूपरेखा श्रमण संस्कृति समयसार पिच्छी कमण्डलु, धर्म-निरपेक्ष नहीं " 20 " , सम्प्रदाय निरपेक्ष प्रवचनमाला के दर्जनों प्रकाशित खण्ड, मोहनजोदारो और हरप्पा की संस्कृति सम्राट सिकन्दर और कल्याणमुनि, सम्राट - खारवेल प्रियदर्शी सम्राट अशोक, शर्वबर्म और उनका कातन्त्र - व्याकरण : ऐतिहासिक परिशीलन, जैसी रचनाएँ मील का पत्थर हैं । सन् 1995 से ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में प्रत्येक वर्ष मनाये जाने की योजना उन्ही की प्ररेणा का सफल है । इसी प्रकार ला. ब. शा. राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला का वार्षिक आयोजन प्राकृत विषयक वार्षिक सर्टिफिकेट तथा डिप्लोमा कोर्स के पाठ्यक्रम का प्रारम्भ तथा स्वतन्त्र प्राकृत एवं जैन-विद्या विभाग की स्थापना, प्राकृत एवं जैन विद्या के विविधि विषयों पर शोधकार्य · प्राकृत एवं जैनविद्या के छात्रछात्राओं के लिए सर्व सुविधा सम्पन्न छात्रावास की स्थापना की योजना प्राकृत पाठ्यक्रमों में स्वीकृत ग्रन्थों के प्रकाशन का योजना, गरिष्ठ एवं वरिष्ठ शोधार्थी विद्वानों को एक-एक लाख के पुरुस्कारों के लिए स्वायत्त सेवी संस्थाओं एवं सामाजिक नेताओं के लिए प्ररेणा, शौरसेनी प्राकृत साहित्य संसद की स्थापना तथा उसके माध्यम से दिल्ली में प्राकृत अकादमी की स्थापना और प्राकृत भाषा को संवैधानिक भाषा के रूप में भारत सरकार द्वारा मान्यता प्रदान कराने हेतु मार्गदर्शन आदि आचार्यश्री के ही ऐतिहासिक योगदान हैं, जो प्राकृत भाषा एवं साहित्य के इतिहास में स्वर्णक्षरों में लिखा जावेगा । " " 1 7 मध्य प्रदेश में प्रमुख रुप से जैनधर्म के प्रसार-प्रचार में संलग्न सन्तशिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज कर मुनिसंघ विशाल है। आपके अनेक शिष्य मुनिराज सम्पूर्ण देश में जैनधर्म के विभिन्न पक्षों पर संगोष्ठी आदि कराने की प्रेरणा देते रहते हैं । कतिपय ग्रन्थों को भी पुनर्मुद्रण द्वारा उपलबध प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन · · Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराया गया है। मुनिश्री प्रमाणसागर जी ने • जैन धर्म और दर्शन - नामक पुस्तक भी लिखी है , जो विद्वानों के लिए पठनीय है। पूज्य विद्यासागर जी के ब्रम्हचारियों में भी एक- दो विद्वान् प्राकृत एवं जैनधर्म के गहन अध्ययन में संलग्न है। ब्रम्हचारी विनोद जैन ने शौरसेनी प्राकृत की प्रसिद्ध टीका धवला का पारिभाषिक शब्द-कोश तैयार किया है तथा जैनदर्शन में मार्गणा विषयक लेखन चल रहा है । पूज्य आचार्य श्री जी की प्रेरणा से जैना इण्डिका विश्वकोश के प्रकाशन भी तैयारी चल रही है। दिगम्बर परम्परा के अन्य विद्वान आचार्य एवं सन्त जैनविद्या के अन्य पक्षों पर तो विद्वानों की संगोष्ठियाँ आदि कराते रहते हैं । किन्तु प्राकृतभाषा के प्रचार-प्रचार शिक्षण-शोध में वे उदासीन है। फिर भी समाज में कतिपय शोध संस्थान प्राकृत एवं जैनधर्म के अध्ययन-अनुसंधान के क्षेत्र में सक्रिय हुए हैं । प्रमुख शोध-संस्थान एवं विभाग श्री कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान : आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज की पावन प्रेरणा से सन् 1974 में स्थापित तथा राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (भारत सरकार ) नई दिल्ली तथा कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा क्रमशः मान्यता प्राप्त श्री कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान नई दिल्ली ने प्राकृत भाषा एवं जैन साहित्य के प्रकाशन तथा प्रचार-प्रसार में पिछले लगभग तीन दशकों में अभूतपूर्व कार्य किया है। उसने सन् 1995 से श्रुतपंचमी पर्व को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में मनाये जाने का भारत व्यापी आन्दोलन किया तथा उसके उत्साहवर्धक परिणाम भी सम्मुख आये हैं । कुन्दकुन्द भारती ने सर्वप्रथम अनुभव किया कि भारत सरकार ने मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं की जननी प्राकृत भाषा की दुखद उपेक्षा की है, अतः उसने उसके समाधान हेतु निम्न प्रकार सराहनीय प्रयत्न किये - 1- अखिल भारतीय शौरसेनी प्राकृत संसद की स्थापना, राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मण्डन मिश्र ( पूर्व कुलपति- दिल्ली एवं वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय ) प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन निदेशक- कुन्दकुन्द भारती , दिल्ली कार्याध्यक्ष एवं प्रो. डॉ. प्रेम सुमन जैन , सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर प्रधान सचिव नियुक्त किये गये और उन्होंने भारत सरकार से अनुरोध किया कि वह दिल्ली में संस्कृत अकादमी के समान ही प्राकृत अकादमी की स्थापना करे प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही प्राकृत भाषा को अन्य भारतीय संवैधानिक भाषाओं के समान ही एक संवैधानिक भाषा की प्रतिष्ठा प्रदान करे । 2- आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति ( वार्षिक ) व्याख्यानमाला का आयोजन इसके अन्तर्गत ला. ब. शा. राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली में सन् 1995 से प्रतिवर्ष भारत - विख्यात विशेषज्ञ विद्वान् के दो या तीन शोध- -परक व्याख्यान उक्त संस्कृत विद्यापीठ में आयोजित किये जाते हैं । उक्त व्याख्यानमाला के अन्तर्गत अभी तक प्रो. नथमल टाटिया, डॉ. लक्ष्मीनारायण तिवारी, डॉ॰ भोलाशंकर व्यास, प्रो. राजाराम जैन, डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री प्रो. प्रेम सुमन जैन, उदयपुर के व्याख्यान हो चुके हैं । 3- प्राकृत-शिक्षण राष्ट्रीय संस्कृत - विद्यापीठ नई दिल्ली में आचार्यश्री विद्यानन्द जी की प्रेरणा से तथा प्रो० डॉ. मण्डन मिश्र और कुलपति वाचस्पति उपाध्याय के सत्प्रयत्न से सन् 1995 से प्राकृत विषयक एक- एक वर्षीय सर्टिफिकेट तथा डिप्लोमा कक्षाएँ प्रारम्भ की गई। छात्र / छात्राओं की उत्साहवर्धक अभिरूचि देखकर उक्त विद्यापीठ में सन् 1998-99 से स्वतन्त्र प्राकृत विभाग की स्थापना कर उसमें आचार्य तक की कक्षाएँ प्रारम्भ कर दी गई हैं। प्राकृत भाषा एवं साहित्य के उन्नयन की दिशा में यह प्रयत्न इस सदी के अन्तिम चरण एवं नई सदी के प्रारम्भिक चरण का बड़ा ही मांगलिक कार्य माना जायेगा । डॉ. सुदीप जैन एवं डॉ. जयकुमार उपाध्ये इस प्राकृत विभाग के शिक्षणकार्य में संलग्न हैं । 4- प्रकाशन- श्री कुन्दकुन्द भारती ने अभी तक आचार्य कुन्दकुन्द साहित्य के अतिरिक्त ऐतिहासिक मूल्य के 18 ग्रन्थों एवं उपयोगी ट्रेक्ट्स का प्रकाशन किया है। ऐसे प्रकाशनों में संस्कृत / विद्यापीठ में स्वीकृत पाठ्यक्रमानुसार उसके प्रायः सभी ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया है और उन्हें प्राकृत के प्रचारप्रसार की दृष्टि से छात्र-छात्राओं प्राध्यापकों एवं प्राकृत के जिज्ञासुओं को निःशुल्क वितरण किया जाता है । 5- प्राकृतविद्या पत्रिका श्री कुन्दकुन्द भारती की त्रैमासिक शोध - पत्रिका प्राकृतविद्या सन् 1988 से नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है, जिसमें प्रकाशित मौलिक एवं रोचक शोध सामग्री देश-विदेश में सर्वत्र चर्चित है और पाठक गण अगले अंक की प्राप्ति के लिए व्यग्र रहा करते हैं । इसके संस्थापक सम्पादक प्रो. प्रेम सुमन 22 1 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन उदयपुर हैं और वर्तमान में प्रधान मानद सम्पादक प्रो. राजाराम जैन और तथा मानद सम्पादक डॉ सुदीप जैन हैं । 6-पुरस्कार : विद्वानों की साहित्यिक साधना को उर्जस्वित तथा प्रेरित करने हेतु आचार्य विद्यानन्द जी की प्रेरणा एवं उनके सान्निध्य में कुन्दकुन्द भारती के प्रांगण में 1-1 लाख के दो पुरुस्कारों से विद्वत्ता , गुणवत्ता एवं वरिष्ठता के आधार पर , उसकी प्रवर समिति के निर्णयानुसार सन् 1995 से आचार्य कुन्दकुन्द एवं आचार्य उमास्वामी नामक दो पुरस्कार प्रतिवर्ष शीर्षस्थ विद्वानों को क्रमशः प्राकृत एवं संस्कृत अवदान हेतु प्रदान किये जा रहे हैं। 7- प्राकृत दिवस एवं प्राकृत संगोष्ठियां : आचार्य श्री विद्यानन्द जी की प्रेरणा से 1994 में शौरसेनी प्राकृत संगोष्ठी एवं क्षुतपंचमी को प्राकृत दिवस समारोह राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किये जा रहे हैं , जिनसे प्राकृत के अध्ययन को विशेष गति मिली है। जैनविद्या का केन्द्र कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ , इन्दौर श्री देवकुमार सिंह कासलीवाल द्वारा तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोतीलाल वोरा की उपस्थिति में दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट, इन्दौर के अन्तर्गत अक्टूबर 1987 में कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की स्थापना की गयी । प्रारंभ से ही संस्था का संचालन का महत्वपूर्ण प्रभार मानद सचिव के रूप में डॉ. अनुपम जैन देख रहे हैं । विगत 10 वर्षों में इस संस्थान द्वारा उल्लेखनीय प्रगति दर्ज की गयी है , जो इसे विशिष्ट केन्द्र का दर्जा प्रदान करती है। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ की स्थापना मूलतः शोध संस्थान के रूप में ही की गयी है । इसके अन्तर्गत आधारभूत सुविधाओं के विकास की श्रृंखला में संदर्भ ग्रंथालय (पुस्तकालय) का विकास , त्रैमासिक शोध पत्रिका , अर्हत् वचन के प्रकाशन के साथ शोध गतिविधियों के विकास के क्रम में जैनशास्त्र भंडारों के सूचीकरण हेतु सूचीकरण परियोजना का क्रियान्वयन, व्याख्यानमालाओं का आयोजन, श्रेष्ठ शोध आलेखों के लेखन को प्रोत्साहित करने हेतु अर्हत्वचन पुरस्कार योजना एवं जैन विद्याओं के क्षेत्र में मौलिक लेखन को प्रोत्साहित करने हेतु कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ को शोध केन्द्रों के रूप में मान्यता प्रदान करायी गई हैं । अब तक 3 पीएच. डी. 2. एम. फिल. एवं 5 स्नातकोत्तर स्तर पर शोध कार्यो का यहां संपादन हो चुका है। इसके अतिरिक्त 16 शोधार्थी डी. लिट्/ पी-एच. डी./ एम. फिल. हेतु अध्ययनरत हैं । प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 23 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्राकृत भारती अकादमी, 13 - ए, मेनरोड़, मालवीय नगर, जयपुर प्राकृत भारती अकादमी जयपुर एक स्वयंसेवी पंजीकृत संस्था है । इसकी स्थापना 21 फरवरी 1977 को हुई थी । अकादमी का मुख्य उद्देश्य प्राकृत, संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं तथा अंग्रेजी में उपयोगी साहित्य का प्रकाशन है, जिससे कि यह साहित्य साधारण पाठक एवं विद्वानों तक पहुँच सके। प्राकृत भारती द्वारा अब तक 118 ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं । इनमें से कई पुस्तकों के एकाधिक संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान में लगभग 10 पुस्तकें प्रति वर्ष प्रकाशित की जाती हैं । प्राकृत भारती की गतिविधियों में नियमित प्राकृत भाषा पाठ्यक्रम चलाना भी है । पत्राचार द्वारा जैनालाजी में एम. ए. की कक्षाओं का संचालन भी प्राकृत भारती अकादमी में होता है । इस अकादमी के संचालन में प्रो. कमलचन्द्र सोगानी, पं. विनयसागर एवं श्रीमान् डी. आर. मेहता आदि विद्वानों का विशेष योगदान है । जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूँ जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं मुख्यतः जैनविद्या का अनुसंधान केन्द्र है। यहाॅ जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म-दर्शन, प्राकृत एवं जैनागम अहिंसा अणुव्रत और शांति शोध जीवन विज्ञान, प्रेक्षाध्यान एवं योग और समाज कार्य जैसे रचनात्मक शैक्षणिक विभाग शोध की दिशा में गतिशील हैं । संस्थान जहां बिना सम्प्रदाय जाति पन्थ धर्म और वर्ग का भेद किए सबको समान , 2- सुश्री सुधा जैन 3. समणी स्थितप्रज्ञा 4. श्री प्रद्युम्न शाह सिंह 5. श्री अनिल धर 24 " " प्रशिक्षण देने की व्यवस्था करता है वहां शोधार्थी को विशेष छात्रवृत्ति देकर उसे ज्ञानार्जन की दिशा में प्रोत्साहित भी करता है । संस्थान की स्थापना के बाद अनेक प्रतिभासम्पन्न छात्र छात्राओं को स्नातक, स्नातकोत्तर एवं पीएच. डी. की उपाधियों से अलंकृत कर संस्थान गौरवान्वित हुआ है । अब तक निम्नलिखित छात्र / छात्राओं को पीएच. डी. एवं डी. लिट् उपाधि के लिए योग्य घोषित किया गया है : 1- डॉ. प्रवीण सी. कामदार " " Business ethics & Social Responsibility: Perspectives जैन योग और बौद्ध योग का तुलनात्मक अध्ययन सम्बोधि - एक समीक्षात्मक अध्ययन जैन एवं बौद्ध न्याय का तुलनात्मक अध्ययन गांधी परवर्ती युग में अहिंसा प्रयोग एक समीक्षात्मक अध्ययन प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन · Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. सुश्री निर्मला चौरड़िया स्थानांगसूत्र : एक सांस्कृतिक अध्ययन 7. श्री एस. राजेश कुमार Non- Alignment : A Policy towards worlds peace reference to Anekant 8. श्री ओम प्रकाश टाक गॉधी दर्शन में युवा शक्ति : समीक्षात्मक विश्लेषण 9. समणी कुसुम प्रज्ञा सामायिकनियुक्ति : पाठ सम्पादन एवं परिशीलन 10. समणी निर्वाण प्रज्ञा अहिंसा का शिक्षण-प्रशिक्षण : समीक्षात्मक अध्ययन 11. साध्वी श्रुतयशा नन्दीसूत्र का ज्ञान- मीमांसात्मक विश्लेषण 12. साध्वी मुदित यशा सन्मतितर्क प्रकरण : एक समीक्षात्मक प्रकरण 13. समणी चैतन्य प्रज्ञा Science and Spirituality in the Bhagwati Sutra 14. चिन्ता हरण बेताल Effect of Preksha Meditation or Drug Abuser's Personality. 15. आलोक आनन्द पारिवारिक शान्ति में अनेकान्त की भूमिका __ वर्तमान में संस्थान के सभी विभागों में अनेक शोधार्थी शोध एवं शिक्षण में कार्यरत हैं । आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर समता विभूति आचार्य श्री नानालाल जी महाराज सा के अपने 1981 के उदयपुर वर्षावास में सम्यकज्ञान की अभिवृद्धि हेतु प्रभावशाली उद्बोधन से आगम , अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान की उदयपुर में स्थापना हुई है । यह संस्थान श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ , बीकानेर की प्रमुख प्रवृत्तियों में से एक हैं | इसका प्रमुख उद्देश्य है- अहिंसा एवं समता-दर्शन की पृष्ठभूमि में जैनागमों तथा प्राकृत , अपभ्रंश , संस्कृत, तमिल , कन्नड़ , राजस्थानी , हिन्दी आदि भाषाओं में रचित जैन साहित्य के अध्ययन , शिक्षण एवं अनुसन्धान की प्रवृत्ति को विकसित करना तथा इन विषयों के विद्वान तैयार करना । साथ ही इन भाषाओं के अप्रकाशित साहित्य को आधुनिक शैली में सम्पादित एवं अनुवादित कर प्रकाशित करना । संस्थान में एक समृद्ध पुस्तकालय विकसित किया जा रहा है । वर्तमान में इस पुस्तकालय में लगभग 5000 प्रकाशित पुस्तकें एवं 1500 हस्तलिखित पाण्डुलिपियां हैं । संस्थान के प्रकाशन : 1-प्राकृत भारती- डॉ. प्रेम सुमन जैन एवं डॉ. सुभाष कोठारी , 1991 2-तंदुलवैयालिपइण्णय अनुवादक डॉ. सुभाष कोठारी , 35/ रूपये , 1991 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-चंदावेज्झयंपइण्णयं अनु. डॉ. सुरेश सिसोदिया - 35 रूपया , 1991 4-महापच्चक्खाणपइण्णय अनु. डॉ. सुरेश सिसोदिया , रूपया , 19915-दीवसागरपण्णत्तिपइण्णयं अनु. डॉ. सुरेश सिसोदिया , 40-रूपया , 1993 6-जैन धर्म के सम्प्रदाय - डॉ. सुरेश सिसोदिया , 80-रूपया , 1994 7-गणिविज्जापइण्णयं अनु. डॉ. सुभाष कोठारी , 25-रूपया , 1994 8-गच्छायारपइण्णयं अनु. डॉ. सुरेश सिसोदिया , 40-रूपया , 1994 9-वीरत्थओपइण्णयं अनु. डॉ. सुभाष कोठारी , 20-रूपया , 1995 10-संथारगपइण्णयं अनु. डॉ. सुरेश सिसोदिया , 50-रूपया , 1995 11-प्राकृत व्याकरण डॉ. उदयचन्दजैन , सुरेशचन्द्र सिसोदिया, 1997 12-अंग साहित्य : मनन और मीमांसा ( संगोष्ठी आलेख ) 13-चौबीस तीर्थकर : एक पर्यवेक्षण (संगोष्ठी आलेख ) __ इन ग्रन्थों के सम्पादन में डॉ. सागरमल जैन का सहयोग प्राप्त है। श्री कर्नल डी. एस. बया इन प्रकीर्णकों के अंग्रेजी अनुवाद कार्य में संलग्न हैं। श्री देव कुमार जैन ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट , आरा ( बिहार ) इस संस्थान में प्रो. राजाराम जैन के निर्देशकत्व में वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय आरा से निम्न शोध कार्य चल रहे हैं -डी. लिट् स्तर पर-पूर्व मध्यकालीन जैन संस्कृत- साहित्य में वर्णित भारतीय भूगोल पीएच. डी. स्तर- जैनागम साहित्य का प्रमुख साहित्य एवं उसमें वर्णित भारतीय संस्कृति.। इनके अतिरिक्त भारत विख्यात जैन सिद्धान्त भवन के ग्रन्थागार में संग्रहित कगलीय प्राच्य पाण्डुलिपियों का उसके प्रबन्ध संचालक श्री सुबोध कुमार जैन के अथक प्रयत्नों से तथा डॉ. ऋषभ कुमार फौजदार के सम्पादन सहयोग से सूचीकरण एवं मूल्यांकन तीन खण्डों में प्रकाशित किया जा चुका है। प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन के अभिनव शोधकार्य डॉ जैन ने प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज सम्पादन एवं मूल्यांकन में महारत प्राप्त की है । रइधू ग्रन्थावली के अन्तर्गत उनके 5 ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । वर्तमान में उनके द्वारा सम्पादित पुण्णासवकहा ( महाकवि रइधू ) ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। इसका प्रकाशन दिल्ली की जैनसंस्कृति संरक्षक संस्थान ने किया है। डॉ. जैन के अन्य प्रकाश्यमान ग्रन्थों में विबुधश्रीधर कृत पासणाहचरिउ , शौरसेनी प्राकृत गाथाबद्ध वित्तसारं (893 गाथाएँ), सिद्धतत्थसार ( 1933 गाथाएँ ) अणथमिउकहा एवं बारहभावना प्रमुख हैं । प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपकी विदुषी धर्मपत्नी प्रो. विद्यावती जैन ने दिसम्बर 1998 में बिहार विश्वविद्यालय मुजपफरपुर से जैन हिन्दी साहित्य विषय लेकर डी. लिट् की उपाधि प्राप्त की उनका विषय था- महाकवि देवीदास और उनके अप्रकाशित हिन्दी साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन । आपकी अन्य प्रकाशित रचनाएँ हैं : 1- देवीदास विलास श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन संस्थान वाराणसी 2-मदनजुद्धकाव्य- भारतीय अनेकान्त विद्वत्परिषद् सन् 1998 3 - महावीररास - पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी की प्रेरणा से प्राच्य श्रमण भारती, आरा (बिहार) ने इसका प्रकाशन किया है । 4- पज्जुण्णचरिउ भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली । " 5- बाहुबलि कथा - युगों युगों में - श्रीमहावीरजैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी (राजस्थान) ने इस ग्रन्थ का प्रकाशन किया है। शारदाबहन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर, दर्शन बंगलो, रणकपुर सोसायटी के सामने शाहीबाग, अहमदाबाद संस्थान के प्रमुख प्रकाशन 1-Catalogue of the Manuscripts of Patan Jain Bhandra Parts I-IV संकलनकर्ता - स्वर्गीय मुनि श्री पुण्यविजयजी संपा. मुनि जम्बूविजय जी 1991, पूरासेट का मूल्य - 1600 /- रूपये ; 2-A Treasury of Jain Tales: by Prof V. M. Kulkarni 1994, 200/3- न्यायावतार सूत्र : सिद्धसेन दिवाकर; विवेचक पं. श्री सुखलाल संघवी । 1995 पृष्ठ 48 मूल्य 25 / रूपया । 4-धर्मरत्नकरण्डक : श्रीवर्धमानसूरि, संपा. : पंन्यास मुनिचन्द्र विजयगणि । 1994, पृष्ठ 460 मूल्य 250 /- रूपया । 5- प्राचीन गुजरातना सांस्कृतिक इतिहासनी साधन सामग्री : मुनि श्री जिनविजय 1995, पृष्ठ 104 मूल्य 40 /- रूपया । 6- Concentration : by Virchand Raghavji Gandhi. वीरचन्द राघवजी गांधी द्वारा सन् 1900 में लंदन ( इंगलैंड ) में जैन धर्म में ध्यान विषय पर दिए व्याख्यान 1997 मूल्य 30 /- रूपया । 7- शोधखोलनी पगदंडी पर प्रो. हरिवल्लभ भायाणी : 1997, 150- रूपया 8- उसाणिरुद्धं : रामपाणिवाद; संपा. वी. एम. कुलकर्णी : 1996, 70 रूपया प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन ----- 27 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RESEARCH INSTITUTE OF PRAKRIT , JAINOLOGY AND AHIMSA, BASOKUND, MUZAFFARPUR ( BIHAR ) INDIA Publication 1. RESEARCH BULLETIN No.7 (1990) Price : Rs.70.00 2.प्राकृत गद्य-पद्य-बन्ध ( भाग-3 )संपा. : डॉ. नन्द किशोर , डॉ., लालचन्द जैन, 1992 मूल्य 50/-रूपया । 3. RESEARCH - BULLETIN No. 8 (1992) Rs.105.00 4.रयणसेहरनिवकहा -संपादक : डॉ. राम प्रकाश प्रोद्दार 1993 मूल्य 33 - 5-वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहकत्था -डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव , वर्ष 1993 6- RESEARCH BULLETIN No. 9 (1994 ) Rs.33./7-हिन्दी साहित्य के विकास में जैन कवियों का योगदान , -सम्पा. डॉ. गंदाधर सिंह , 1994 8- अगड़दत्तकहा संपादक एवं अनुवादक : डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव , 1994 9- प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्य ,संपा. डॉ. शैलेन्द्र कुमार राय , 1994 10- प्राकृत छन्द-कोश-संपादक डॉ गदाधर सिंह , 1995 11- RESEARCH BULLETIN No.10 (1995) 12- RESEARCH BULLETIN No.11 (1996) Rs. 56.00 13-प्रशमरति प्रकरण का आलोचनात्मक अध्ययन -संपा. डॉ. मंजुबाला , 1997 14-कुन्दकुन्द के प्रतिनिधि आगम ग्रन्थ – संपा. डॉ. विश्वनाथ चौधरी , 1997 15- RESEARCH BULLETIN No.12 (1997) 16- RESEARCH BULLETIN No.13 (1997) 17- RESEARCH BULLETIN No.14 (19985) L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD -9 Publication 1. Kavyakalpalata Parimala Markarandatika -Dr. R.S. Betai (1998) 2- Tilakamanjari -Dr. N.M. Kansara (1991) Price 410-00 3. Some Topic in the Development of OIA , MIA , NIA --Dr. H. C. Bhayani (1998) Price 75.00 28 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. Paumapahasami Cariyam - Ptkumar Pagariya (1998) Price 250-00 5. Arhat Parsva and Dharnendra Nexus -- Madhusudan Dhaky (1998) 6. Wall Painting of Rajasthan -- Y. K. Shukla (1990) Price 125-00 जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर स्थापना व पाठ्यक्रम : सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय में संचालित यह जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग 1978 से स्थापित है । अ. भा. साधुमार्गी जैन संघ बीकानेर एवं राज्य सरकार जयपुर के प्रारम्भिक सहयोग से विश्वविद्यालय में स्थापित इस विभाग में वर्तमान में आचार्य एवं विभागाध्यक्ष डॉ. प्रेम सुमन जैन, सह आचार्य डॉ. उदयचन्द जैन एवं सह आचार्य डॉ. हुकमचन्द जैन कार्यरत हैं । विगत 20 वर्षों में विभाग से अब तक बी. ए. प्राकृत के 120 एम. ए. प्राकृत के 130, एम. फिल प्राकृत के 11 एवं जैनविद्या में पीएच. डी. के 15 विद्यार्थी सफलतापूर्वक शिक्षण प्राप्त कर चुके हैं। प्राकृत एवं जैनविद्या में प्रमाणपत्र एवं डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में भी लगभग 90 विद्यार्थियों ने शिक्षण प्राप्त किया है । राज्य का यह पहला विभाग है जहाँ पर प्राकृत भाषा व साहित्य तथा जैनविद्या की सभी स्तरों के शिक्षण की व्यवस्था है । समाज में समता समानता और संवेदना तथा राष्ट्र चेतना को विकसित करने के लिए विभाग में पालि, बौद्धधर्म एवं अहिंसा प्रमाण-पत्र पाठ्यक्रम शीघ्र प्रारम्भ किया जा रहा है । शोध कार्य - प्रकाशन : " विभाग के प्राध्यापकों द्वारा प्राकृत एवं जैनविद्या के क्षेत्र में अब तक लगभग 150 शोधपत्रों एवं 35 स्तरीय पुस्तकों का लेखन प्रकाशन किया गया है। विभाग से पर्यावरण संतुलन एवं शाकाहार प्राकृत कथा साहित्य परिशीलन प्राकृत अपभ्रंश और संस्कृति, प्राकृत भाषा एवं साहित्य प्राकृत भारती, कुन्दकुन्द शब्दकोश जैनिज्म बुक 1 इन्ट्रोडक्शन टू प्राकृत जैन साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका प्राकृत व्याकरण प्राकृत स्वयं शिक्षक (तृ. सं.) आदि पुस्तकें प्रकाशन में आयी हैं । प्राकृत अपभ्रंश की पाण्डुलियों के सम्पादन का कार्य भी प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन , " · 29 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पन्न हुआ है । विभाग के शैक्षणिक सहयोग से " प्राकृतविद्या " शोध पत्रिका का विगत दस वर्षों से कुन्दकुन्द भारती , नई दिल्ली से नियमित प्रकाशन भी किया जा रहा है । संगोष्ठी - सम्मेलन : विभाग के स्टाफ ने देश-विदेश की लगभग 60 संगोष्ठियों और सम्मलेनों में भाग लिया है । आचार्य एवं विभागाध्यक्ष डॉ. प्रेम सुमन जैन ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन अमेरिका और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन इटली ( रोम ) में शोधपत्र प्रस्तुत कर साथ ही आष्ट्यिा , जर्मनी , रोम के शोध संस्थानों में जैन धर्म पर व्याख्यान भी दिये हैं । अमेरिका और कनाडा से प्रकाशित अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशनों में डॉ. जैन के लेख भी प्रकाशित हुए हैं । विभाग के सहयोग से राष्ट्रीय प्राकृत सम्मेलन बैंगलोर और राष्ट्रीय प्राकृत सम्मेलन हैदराबाद का आयोजन भी किया गया है , जिनमें विभागाध्यक्ष ने एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर के रूप में योगदान किया है । अन्य प्राध्यापकों ने इनमें सम्मिलित होकर शोधपत्र प्रस्तुत किये हैं । ( 1) जैन आगम पर्यावरण-संतुलन एवं विश्व शांति तथा (2) शौरसेनी प्राकृत भाषा का अध्ययन विषय पर दो राष्ट्रीय संगोष्ठियों के आयोजन में भी विभाग ने सहयोग प्रदान किया है । पी-एच. डी. शोधकर्ता एवं विषय : विभाग से जिन शोधार्थियों ने एम. ए. अथवा पी-एच. डी. उपाधियाँ प्राप्त की हैं वे अब विश्वविद्यालय स्तर पर विभिन्न संस्थानों में शिक्षण और शोधकार्य में संलग्न हैं । उनमें से कतिपय हैं - 1. डॉ. हुकमचन्द जैन , 2. डॉ. सुधा खाब्या 3. डॉ. सुभाष कोठारी . 4. डॉ. सुरेश सिसोदिया , 5. डॉ. जिनेन्द्र जैन , 6. डॉ. कमल कुमार जैन , 7. डॉ. सुदीप जैन 8. डॉ. जय कुमार उपाध्ये , 9. डॉ. फतेहलाल जारोली , 10. डॉ. संतोष गोधा , 11. डॉ. पारसमणि खींचा , 12. डॉ. सरोज जैन , 13. श्री मानमल कुदाल , 14. कर्नल डी. एस. वया 15. डॉ. बीना जैन 16. मनोरमा जैन 17. डॉ. मंजु सिरोया आदि । इस विभाग में निम्नांकित विषयों पर शोधछात्र पी-एच. डी. के लिए पंजीकृत हैं- 1. तिलोयपण्णत्ति का सांस्कृतिक अध्ययन , 2. भगवती आराधना का समीक्षात्मक परिशीलन , 3. आ. नानेश का व्यक्तित्व एवं कृतित्व , 4. महाकवि राजशेखर का संस्कृत-प्राकृत काव्य को अवदान , 5. समीर मुनि व्यक्तित्व एवं कृत्तिव 6. षट्खण्डागम की धवलाटीका का भाषात्मक अध्ययन 7. पर्यावरण और प्राणी-संरक्षण । विभाग के सात शोधछात्र यू. जी. सी. नेट परीक्षा उत्तीर्ण कर प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 30 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुके हैं । वर्तमान में डॉ. कल्पना जैन जूनियर नेशनल फेलोशिप प्राप्त कर रही हैं । विभाग से डॉ. मुनि श्री भुवनेश , डॉ. साध्वी राजश्री तथा डॉ. मुनिश्री कौशल ने भी पी-एच. डी. प्राप्त की है। विस्तार एवं परियोजनाएं : विभाग के स्टाफ द्वारा प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु प्राकृत भाषा एवं साहित्य की महत्वपूर्ण पुस्तकें तैयार की हैं । राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड , अजमेर में "प्राकृत भाषा पाठ्यक्रम समिति " के संयोजक इस विभाग के अध्यक्ष डॉ . प्रेम सुमन जैन रहे हैं। उनके प्रयत्न से राजस्थान लोक सेवा आयोग की स्लेट परीक्षा में भी जैनालाजी एवं प्राकृत विषय का पाठ्यक्रम बनाकर सम्मिलित किया गया है । विभाग का स्टाफ राष्ट्रीय स्तर के प्रमुख प्राकृत शोध संस्थानों की स्थापना एवं संचालन में अकादमिक सहयोग प्रदान कर रहा है। जब कभी विभाग को आवश्यक स्टाफ एवं साधन प्राप्त हों तब विभाग जो शोध योजनाएं सम्पन्न करना चाहेगा उनमें प्रमुख हैं - 1. राजस्थान के ग्रन्थ-भण्डारों की प्राकृत अपभ्रंश पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण , सूचीकरण एवं सम्पादन , 2. प्राकृत कथा विश्वकोष का 10 भागों में सम्पादन एवं प्रकाशन , 3. जैनविद्या एवं प्राकृत में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा पाठ्यक्रम का संचालन , 4. प्राकृत साहित्य का सांस्कृतिक परिशीलन सीरीज के अन्तर्गत जनप्रिय पुस्तिकाओं का निर्माणं एवं प्रकाशन एवं 5. बौद्धधर्म अध्ययन एवं अहिंसा शोधकेन्द्र का संचालन आदि । विभाग के प्राध्यापक वर्तमान में निम्न शोधकार्य योजना में संलग्न हैं - 1. भगवती आराधना का सम्पादन एवं अनुवाद - प्रो. प्रेम सुमन जैन 2. मलयसुंदरीचरियं का आलोचनात्मक सम्पादन – डॉ. प्रेम सुमन जैन 3. पंचास्तिकाय का सम्पादन एवं अनुवाद - डॉ. उदयचन्द जैन विभाग में अ. भा. दिगम्बर जैन सिद्धान्त संरक्षिणी सभा , कोटा से प्राप्त स्थायी अनुदान से एक अपभ्रंश अनुसंधान योजना भी कार्यरत है , जिसमें सुकुमालचरिउ का सम्पादन-अनुवाद कार्य हुआ है । विभाग में कई महत्वपूर्ण परियोजनाएँ भी सम्पन्न की गयी हैं। यथा प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 31 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोधप्रभारी - प्रो . प्रेम सुमन जैन - (1) अपभ्रंश ग्रन्थों की शब्दानुक्रमणिका , (2) शौरसेनी प्राकृत भाषा और व्याकरण (3) जैनविद्या विश्वकोश में महाराष्ट्री प्राकृत की प्रवृष्टियाँ , (4) जैन संस्कृति और पर्यावरण -संरक्षण । शोधप्रभारी - डॉ. उदयचन्द जैन(1) शौरसेनी साहित्य शब्दकोश , (2) आ. ज्ञानसागर संस्कृत शब्दकोश (3) प्राकृत व्याकरण , (4) जैन आगम निर्वचनकोश। विभाग के सह आचार्य डॉ. उदयचन्द जैन विगत 10 वर्षों से प्राकृत में काव्य रचना भी कर रहे हैं। आपकी प्राकृत रचनाओं में 1-जिण धम्मदंसण 2बाहुबली महाकाव्य , 3–णाणसायर महाकाव्य आदि प्रकाशन के लिए तैयार हैं । Jain Academy Jain Academy , Satellite , 2 A2 , Court Chambers, 35, New Marine Lines , Bombay -400020. The most important activity of Jain Academty is to introduce study in Jain religion at graduate and post- gradiate levels such as M. A. , M Phill. , Ph. D and to carry on study and research in hand written books, printed books and other languages lying stored in abundant measure but not studied and researched so for . Moreover, there are plans for various conferences and publication. A goods library on Jainism is to be set up . Scholarships are to be given to needy students. In short it is our desire to make Universities and other Educational Institutions Sacred places by creating facilities for study and research in Jain Religion . De Montfor In University U. K. The Jain Academy, U. K. was Launched in 1993 to promote the study of Jainism and dissemination of Jain Values . It was successful in establishing 3 years modular courses in the school of Arts & Humanities at the De Montfort University , Leicester in 1994 and Jain Academy Educational & Research Centre at the Bombay University in 1996. It had negotiated the establishment of centre for Jain studies in the school of 32 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Oriental & African Studies at Landon Universities and subject to resources available, this centre has started from september, 1999. It has collaborated with the Jain Academy Foundation of North America for Ecological Conferences in Harward University, publication of translated 2 books on Jainism in French and has been collaboraring for the encylopedia of Jainism in 7 volumes. RESEARCH FOUNDATION FOR JAINOLOGY (Regd.) "Sugan House 18/1, Ramanuja lyer Street, Sowcarpet, Chennai -600079. Ph: 5221294 Research Foundation for Jainology has created a new independent Department of Jainology in the university of Madras and further given aid in the maintenance, improvement and development of the said Department of Jainology. DEPARTMENT OF JAINOLOGY, UNIVERSITY OF MADRAS The Department of Jainology, University has its courses as mentioned bellow: a. Certificate Course in Jainology, c-M.A. Course in Jainology, e. Researches for Ph.D. in Jainology f Certificate Courses in Jainology in English & Tamil through Correspondence. So far, more than 50 scholars (M.A., M.Phill, & Ph.D.) have come out successfully from this Department. The Foundation has been instrumental in inviting eminent scholars to deliver lectures on Jainism to assist the students and scholars of Jainology in their research works. PUBLICATIONS The series of the lectures and eminent scholar's script were printed and published by the Department of Jainology and the Foundation as follow. b. Deiploma Course in Jainology, d. M. Phill. Course in Jainology, 1. LECTURES ON JAINISM by Dr. Nathmal Tatia, Ladnun. 2. JAINA LOGIC by Dr. Bhagchandra Jain," Basker", Nagpur. प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन - 33 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3- AN INTRODUCTIONS TO THE UTTARAJJHAYANA by Dr. R. P. Poddar 4- JAINA INSCRIPTIONS IN TAMILNADU by Dr. A.Ekambaranathan 5-JINAWANI KI MOTI by Sri Dulichand Jain, Chennai 6- ASPECTS OF JAINA PHILOSOPHY by Dr. Jayandra Soni, Germany 7- ACHARYA KUNDAKUNDA & JAINA PHILOSPHY by Dr. Jayanthilal Jain 8-PEARLS OF JAINA WISDOM by Sri Dulichand Jain, Chennai. 9- CHOZHAR AATCHIYIL SAMANA SAMAYA VALARCHI --by Dr. A. Ekambaranathan 10- SPRINGS OF JAINA WISDOM by Sri Dulichand Jain, Chennai. The Bhogilal Leherchand Institute on Indology 20th km. G. T. Karnal road, Alipur Delhi --110036 The Institute was started at Patan in Gujarat, the native place of Shri Bhogilal Leherchand in 1980. It was headed by the eminent Indologist, Dr. V. M. Kulkarni. However, in 1984, inspired by the suggestion of Sadhvishree, it was shifted to the complex of the Vijay Vallabh Smarak at Delhi. The aim was to give concrete shape to the ideals expressed by the revered Acharyashreeji . The academic programme of the Institute is to initiate, organize and give a fillip to research in Indological subjects in general and Jainological projects in particular. The Institute will train new people into research in Jain Studies. Prakrit Summer Schools held every year is the first step in that direction. The study pf Prakrit is central to the study of Jain Literature as most of Jain Literature is a Prakrit. With a view to introducing Prakrit language and Literature to young scholars BLII has been organizing Summer Schools in Prakrit language and literature every year since 1989. The faculty is drawn from emienent Sanskritists, Prakritists, linguists and grammarians. Past faculty included Pandit D D Malvania, Professors Prem Singh, KR Chandra, R. P. Jain, SR Banerjee, Prem Suman Jain Jitendra B. Shah, Sagarmal Jain, K.C. Sogani, Namwar Singh and others. Students come from all over India to attend the school .They include प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 34 " Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mostly lectures , researchers, graduates and post- graduates. The enrolment in the schools from 1989 to 1999 has been more than 180 for the Elementary Course and 80 for the Advanced Course . The Institute has a rich collection of more than ten thousand manuscripts and granthas, mostly in Prakrit. These have been acquired from various Bhandaras including those brought over from Pakistan. An Annual award of Rs. 51,000 named after Acharya Hemachandra Suri, 11 th century Prakrit grammarian, to be presented to a scholar of Jainology has been insituted with a generous donation from Jaswanta Dharmarth Trust. Awards are given for outstanding services to Art, Culture , Literature and History of Jainology. The first award for the year 1995 was given to Professor H. C. Bhayani. The award for 1996 went to Professor M A Dhaky. पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान , वाराणसी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनविद्या के उच्चानुशीलन एवं शोधकेन्द्र के रूप में देश का प्रथम एवं प्रतिष्ठित संस्थान है । यह सुविख्यात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त है । भगवान् पार्श्वनाथ की जन्मस्थली पवित्र नगरी वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के समीप स्थित यह शोध संस्थान ज्ञान-साधना का अनुपम केन्द्र है । जैन धर्म , दर्शन , साहित्य इतिहास और संस्कृति के सम्बन्ध में शोधात्मक प्रवृत्तियाँ यहाँ पर संचालित होती जैनविद्या के शोध , अध्ययन एवं प्रकाशन के क्षेत्र में पिछले छह दशकों से संलग्न पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयन्ती के अवसर पर विद्यापीठ के पूर्व निदेशक प्रो. सागरमल जैन एवं मंत्री श्री भूपेन्द्रनाथ जैन के अभिनन्दन , विद्यापीठ के नवीन प्रकाशनों का विमोचन , जैन अध्ययन : समीक्षा एवं सम्भावनायें विषय पर त्रिदिवसीय ( 5-7 अप्रैल 1998 ) राष्ट्रीय संगोष्ठी तथा विद्यापीठ के सभी शोध छात्रों के पुनर्मिलन आदि कार्यक्रमों का भव्य आयोजन किया गया । प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 35 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No अभिनव प्रकाशन 1- प्रो. सागरमलन जैन अभिनन्दन ग्रन्थ 2- श्री भूपेन्द्र नाथ जैन अभिनन्दन ग्रन्थ 3- जैन साधना में तंत्र -डॉ. सागरमल जैन 4- जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय -डॉ. सागरमल जैन 5- हिन्दी जैन साहित्य का बृहद इतिहास भाग 3 डॉ. शीतिकंठ मिश्र 6- पंचाशक प्रकरण ( हिन्दी अनुवाद ) -डॉ. दीनानाथ शर्मा 7- दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति -डॉ. अशोक कुमार सिंह 8- नवतत्व प्रकरण ( अंग्रेजी अनुवाद ) -डॉ. प्रकाश पाण्डेय 9- सिद्धसेनदिवाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व -डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय 10- वसुदेवहिन्डी : एक समीक्षात्मक अध्ययन -डॉ. कमल जैन 11- पंचाध्यायी में प्रतिपादित जैन दर्शन - डॉ. मनोरमा जैन इसके अतिरिक्त इस अवसर पर एक भव्य स्मारिका का भी प्रकाशन किया गया , जिसमें विगत 60 वर्षों के विद्यापीठ के विकास इतिहास का लेखा-जोखा , विद्वानों के अभिमत , विद्यापीठ द्वारा तैयार कराये गये शोध प्रबन्धों के सार आदि का विस्तृत विवरण है । इन प्रमुख शोध संस्थानों एवं विभागों के अतिरिक्त प्राकृत एवं जैनविद्या के अध्ययन , अनुसंधान , शिक्षण में संलग्न देश में अन्य संस्थान एवं विभाग भी हैं । उनके पूर्ण विवरण उपलब्ध न होने से उनका यहाँ उल्लेख नहीं हो पाया है। जैनालाजी एवं प्राकृत विभाग मैसूर,, जैनालाजी विभाग धारवाड़ , पालि-प्राकृत विभाग अहमदाबाद , पालि- प्राकृत विभाग , नागपुर , जैन अध्ययन केन्द्र , जयपुर , प्राकृत और जैनागम विभाग वाराणसी , जैनदर्शन विभाग वाराणसी , जैनदर्शन विभाग , नई दिल्ली , संस्कृत-प्राकृत विभाग आरा , वीरसेवा मंदिर नई दिल्ली , भारतीय ज्ञानपीठ ,नई दिल्ली , प्राकृत जैनविद्या विकास फण्ड , अहमदाबाद , गणेश्प प्रसाद वर्णी संस्थान , वाराणसी , प्राकृत परीक्षा बोर्ड , पाथर्डी ( अहमदनगर ), सन्मतितीर्थ , पूना आदि विभागों और संस्थानों का भी प्राकृत और जैनविद्या के विकास में महत्ती भूमिका रही है । इनके प्रकाशनों का भी विशेष महत्व है। 36 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगोष्ठी/सम्मेलन/व्यख्यानमाला एवं पुरस्कार आयोजन प्रथम राष्ट्रीय प्राकृत सम्मेलन (1990) स्वामी भट्टारक चारूकीर्ति जी , श्रवणबेलगोला की अध्यक्षता में स्थापित प्राकृत ज्ञानभारती एजूकेशन ट्रस्ट , बैंगलोर द्वारा आयोजित प्रथम राष्ट्रीय प्राकृत सम्मेलन 8 एवं 9 दिसम्बर 1990 को बैंगलोर में सम्पन्न हुआ । सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए न्यायमूर्ति इ.एस. वैंकटारमया ने कहा कि प्राकृत को वही स्थान और सम्मान मिलना चाहिए जो देश की अन्य भाषाओं को प्राप्त है। सम्मेलन के अध्यक्ष प्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. ए. एम. घाटगे ( पूना ) ने भाषात्मक, साहित्यिक एवं दार्शनिक पक्ष की दृष्टि से प्राकृत अध्ययन को गति देने की प्रेरणा अपने अध्यक्षीय भाषण में दी । इस सम्मेलन में देश-विदेश के लगभग 70 प्राकृत विद्वान, शिक्षक एवं शोधछात्र सम्मिलित हुए । हिन्दी , अंग्रेजी एवं कन्नड़ में शोध-पत्र पढ़े गये एवं सम्मलेन के कार्यकारी निदेशक डॉ. प्रेम सुमन जैन ( उदयपुर ) ने प्राकृत भाषा में भी अपना प्रारम्भिक वक्तव्य दिया ।। इस सम्मेलन में ट्रस्ट द्वारा स्थापित प्राकृत ज्ञान भारती पुरस्कार 1990 के इन 10 वयोवृद्ध विद्वानों को धर्मस्थल के धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र हेगड़े द्वारा प्रदान किये गये- डॉ. जगदीशचन्द्र , पं. दलसुख भाई मालवणिया , पं. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री , डॉ. नथमल टाटिया डॉ. राजाराम जैन , डॉ. के. आर. चन्द्रा , डॉ. बी. के. खडबडी , डॉ. एम. डी. बसन्तराज , डॉ. जे. सी. सिकदर एवं डॉ. एच. सी. भायाणी । स्वामी भट्टारक चारूकीर्ति जी ने प्रतिवर्ष प्राकृत ज्ञानभारती पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की तथा सम्मेलन के संयोजक एवं ट्रस्टी डॉ. हम्पा नागराजैया ने बताया कि यह प्राकृत सम्मेलन प्रति दो वर्ष में आयोजित होता रहेगा । सम्मेलन के अवसर पर प्राकृत की प्रकाशित लगभग 1500 पुस्तकों की प्रदर्शनी भी आयोजित की गयी। ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित (1) प्राकृत साहित्य की भूमिका -डॉ. प्रेम सुमन जैन (2) प्राकृत साहित्य कइविडि –शुभचन्द्र (3) प्राकृत प्रवेशिका (कन्नड़) (4) कुन्दकुन्द प्रशस्ति -(डॉ.) जयचन्द्र कन्नड़ (5) प्राकृतभारती (सम्मेलन स्मारिका ) एवं प्राकृत अध्ययन प्रसार संस्थान उदयपुर द्वारा प्रकाशित (6) प्राकृतविद्या त्रैमासिक पत्रिका का सम्मेलन विशेषांक इन छ: प्रकाशनों का विमोचन भी इस अवसर पर किया गया । सम्मेलन की संतुतियों में नेशनल प्राकृत अकादमी की स्थापना पर विशेष बल दिया गया है। प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय राष्ट्रीय प्राकृत सम्मेलन (1993) हैदराबाद में द्वितीय राष्ट्रीय प्राकृत सम्मेलन 15 16 एवं 17 जून. 1993 को सम्पन्न हुआ । प्रसिद्ध भाषाविद् प्रोफेसर जगदीश चन्द्र जैन (बम्बई) ने प्राकृत साहित्य के अनुसन्धान की नई दिशाओं पर और उसके सांस्कृतिक मूल्यांकन पर अपने अध्यक्षीय भाषण विशेष प्रकाश डाला । डॉ. भागचन्द्र भास्कर ने अपना स्वागत भाषण दिया तथा सम्मेलन के कार्यकारी निदेशक डॉ. प्रेम सुमन जैन ने सम्मेलन के प्रतिपाद्य विषय को स्पष्ट करते हुए विज्ञान और संस्कृति के विभिन्न आयाम प्राकृत साहित्य में उद्घाटित करने की बात भी कही । सम्मेलन में देश के ख्याति प्राप्त 60 प्राकृत विद्वान शिक्षाविद् पत्रकार वैज्ञानिक समाज-शास्त्री एवं शोध छात्र सम्मिलित हुए । विद्वानों ने शोध-पत्र प्रस्तुत किए । विद्वानों की ओर से सम्मेलन की संस्तुतियाँ प्रोफेसर हम्पा नागराजैया ने प्रस्तुत कीं जिनमें (1) नेशनल प्राकृत अकादमी की स्थापना, (2) राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृत विद्वानों का सम्मान ( 3 ) वृहत प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ का निर्माण (4) प्राकृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद कार्य तथा (5) प्राकृत पाण्डुलिपियों की " 38 · सुरक्षा व्यवस्था आदि प्रमुख हैं । प्राकृत ज्ञानभारती एजुकेशन ट्रस्ट द्वारा- प्राकृत ज्ञानभारती, अवार्ड 93 प्राच्य विद्या के जाने माने इन पाँच मनीषियों को प्रदान किये गये : -- " " 1. प्रो. डॉ. एम. ए. घटगे पूना ( प्राकृत व्याकरण और शब्दकोष के लिये ), 2. प्रो. एल. सी. जैन. जबलपुर - ( प्राकृत के वैज्ञानिक अध्ययन के लिये ), 3. प्रो एम. ए. ढाकी, वाराणसी - ( प्राकृत परम्परा की कला के अध्ययन हेतु ) 4. डॉ. प्रेम सुमन जैन, उदयपुर - ( प्राकृत पत्रकारिता शिक्षा - शोध हेतु ), और 5. श्रीमती डॉ. के. कमला, हैदराबाद (दक्षिण भारतीय भाषाओं और प्राकृत के विशेष अध्ययन के लिए ) । प्रत्येक विद्वान को ग्यारह हजार रूपये, स्मृति-चिन्ह श्रीफल और मानपत्र भेंट किया गया । " " · " शाल आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के जैनदर्शन विभाग के तत्वाधान में दिनांक 23 एवं 24 मार्च 1995 को आयोजित द्विदिवसीय प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला के अवसर पर बोलते हुए आचार्य श्री विद्यानन्द जी ने अपने मंगल आशीवर्चन में कहा कि आचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन , Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृति में स्थापित यह शौरसेनी प्राकृत विषयक व्याख्यानमाला इस देश की मूलभाषा शौरसेनी प्राकृत का स्वरूप और महत्व रेखांकित करेगी। प्राकृत और संस्कृत- दोनों इस देश की प्राचीन भाषायें हैं । ऋषियों , मुनियों , साहित्यकारों एवं वैयाकरणों ने दोनों को भरपूर सम्मान दिया है। भले ही आज संस्कृत का बोलबाला हो , किन्तु यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी होगी कि प्राकृत के बिना संस्कृत पंगु है। क्योंकि वेदों में प्राकृत-संस्कृत दोनों का प्रयोग है , यदि प्राकृत के शब्दों को वेदों से निकल दिया जाये , तो वे अपूर्ण रह जायेंगे । इसी तरह भास एवं कालिदास आदि के नाटकों से प्राकृत के अंश अलग कर दिये जायें , तो उनमें कुछ नहीं बचेगा , उनका स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा। हमारे देश के प्राचीन ऋषियों , मुनियों एवं मनीषियों की दोनों भाषाओं के प्रति समान दृष्टि रही , किन्तु आज दृष्टि का संतुलन परम्परा के अनुरूप नहीं है। प्राकृत के स्वरूप एवं महत्व को हमें नये सिरे से समझना व समझाना होगा। __आचार्य श्री कुन्दकुन्द की स्मृति में स्थापित इस व्याख्यानमाला के प्रथम दिन व्याख्यानमाला का उद्घाटन करते हुए विद्यापीठ के कुलाधिपति आचार्य वी. वेंकटाचलम् ने कहा कि " संस्कृत विद्यापीठ में ही नहीं , अपितु देश के हर विश्वविद्यालय , महाविद्यालय एवं शिक्षण संस्थानों में प्राकृत के अध्ययन की स्वतन्त्र एवं परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। विद्यापीठ के कुलपति प्रो. वाचस्पति उपाध्याय ने विद्यापीठ की विभिन्न प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए बताया कि " शौरसेनी प्राकृत को लेकर स्थापित यह आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला एक स्वर्णिम अध्याय हैं, जिसे आचार्य श्री ने विद्यापीठ के इतिहास में जोड़ा है। उन्होंने वेदों , उपनिषदों एवं अन्य ग्रन्थों से उदाहरण देकर बताया कि संस्कृत और प्राकृत का अभेदान्वय सम्बन्ध है। व्याख्यानमाला के प्रथम सत्र के अध्यक्ष प्रख्यात भाषाशास्त्री एवं समालोचक तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याय के भाषाविभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. नामवर सिंह ने भाषावैज्ञानिक पृष्ठभूमि में प्राकृत के विशिष्ट महत्व को रेखांकित करते हुए बताया कि शौरसेनी प्राकृत भाषा से ही इस देश की अन्य क्षेत्रीय प्राकृतों , अपभ्रंशों एवं आधुनिक बोलियों का विकास हुआ है। उन्होंने सावधान किया कि भाषायें किसी धर्म या जाति की नहीं होती है, वे हर किसी की सम्पत्ति होती हैं ; अतः ब्राह्मणों की संस्कृत या जैन शौरसेनी जैसे प्रयोग बेहद संकीर्ण चिन्तन है , तथा भाषिक मानदण्डों के कतई विरुद्ध हैं । दो दिन की इस व्याख्यानमाला के प्रमुख वक्ता डॉ. लक्ष्मीनारायण तिवारी निदेशक , भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय विद्या संस्थान , नई दिल्ली ने अपने दो प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदुष्यपूर्ण सारगर्भित व्याख्यान प्रदान किये । जैनधर्म द्वारा लोकभाषा की प्रतिष्ठा विषयक अपने प्रथम व्याख्यान में डॉ. ने देश के भाषायी, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं भाषावैज्ञानिक परम्परा का विशद परिचय देते हुए लोकभाषा का स्वरूप एवं महत्व रेखांकित किया तथा बताया कि जैनाचार्यो ने लोकभाषा को अपने साहित्य में अपनाकर उसे साहित्यिक प्रतिष्ठा प्रदान की है। इसके पोषण में उन्होंने अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये । विविध प्राकृतें एवं शौरेसनी प्राकृत विषयक अपनें द्वितीय व्याख्यान में डॉ. तिवारी ने स्पष्ट किया कि सभी प्राकृतों में शौरसेनी प्राकृत जो कि बाद में दिगम्बर जैनों के आगमों की भाषा बनी और जिसका नाटककारों ने सर्वाधिक प्रयोग किया नारायण श्रीकृष्ण से भी पूर्व इस देश में " प्रचलित थी । नारायण श्रीकृष्ण का जन्म ही उस शूरसेन प्रदेश में हुआ था जहाँ की भाषा शौरसेनी प्राकृत थी । द्वितीय दिन के व्याख्यानसत्र की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय के भाषाविभाग के अध्यक्ष प्रो. प्रेमसिंह ने की। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने शौरेसनी प्राकृत के साहित्य का देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद कर उसके व्यापक प्रचार-प्रसार की प्रेरणा दी । · प्राकृत भाषा दिवस पर पारित प्रस्ताव 3 जून 1995 को श्रुतपंचमी - प्राकृतभाषादिवस के सुअवसर पर श्री कुन्दकुन्द भारती नई दिल्ली के तत्वाधान में आयोजित देशभर के प्राकृतभाषा के विद्वानों एवं विद्यानुरागियों के सम्मेलन में प्राकृतभाषा एवं साहित्य की समुन्नति के लिए निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत कर भारत सरकार से उनको लागू करने के लिए प्रेषित किये गये 40 1 :- प्राकृत भाषा इस दकेश की प्राचीनतम जनभाषा है, इसका साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। किन्तु इसके मानविकी, कला और विज्ञान - सम्बन्धी साहित्य के समीचीन प्रचार- प्रसार, अध्ययन - अनुशीलन और शोध - खोज की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है । अतः यह सम्मेलन भारत सरकार से यह अनुरोध करता है कि अन्य भाषाओं की अकादमियों की तरह भारत सरकार द्वारा अपने राष्ट्र की प्राचीनतम जनभाषा - प्राकृत के व्यापक प्रचार- प्रसार और सम्यक् मूल्यांकन हेतु राष्ट्रीय प्राकृतभाषा अकादमी की स्थापना की जाय । 2 :- भारतीय संविधान में 14 भाषायें परिगणित की गई हैं । कुछ दिन पूर्व इस सूची में वृद्धि होकर नेपाली, कोंकणी एवं मणिपुरी को जोड़कर यह संख्या 17 हो गई है। किन्तु इस राष्ट्र की प्राचीनतम जनभाषा प्राकृत अब भी उपेक्षित है । निरन्तर उपेक्षा के कारण देश की इस मूलभाषा प्राकृत का साहित्य प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं विद्वान लुप्त होते जा रहे हैं । अतः यह सम्मेलन प्रस्ताव करता है कि भारतीय संविधान में परिगणित भाषाओं की अनुसूची में प्राकृत को भी परिगणित कर सम्मिलित किया जाय और शिक्षण , अनुसंधान , पुरस्कार आदि की वे सभी सुविधायें प्राकृत को भी प्रदान की जायें , जो अन्य भारतीय भाषाओं को प्रदान की जा रही हैं । 3 :-यह सम्मेलन भारत सरकार से यह भी अनुरोध करता है कि प्राकृतभाषा एवं साहित्य के अभ्युत्थान एवं संवर्द्धन के लिए वह पाँच करोड़ रूपये वार्षिक स्वतन्त्र मद का प्रावधान शिक्षा विभाग के सहायता मद में किया जाये । ___4 :-सम्मेलन यह भी प्रस्ताव करता है कि प्रतिवर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति महोदय की ओर से बीस हजार रूपये वार्षिक मानदेय के साथ दिये जाने वाले ' सम्मान- प्रमाण पत्र प्राकृतभाषा और साहित्य के पाँच उच्चकोटि के विद्वानों को भी प्रतिवर्ष प्रदान किये जायें । प. फूलचन्द शास्त्री स्मृति व्याख्यानमाला - सितम्बर 1-3 1995 को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के निकट नरिया स्थित श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन शोध संस्थान के तत्वाधान में आयोजित उक्त व्याख्यानमाला का उद्घाटन पद्मभूषण पं. बलदेव उपाध्याय ने किया और प्रो. उदयचन्द जैन द्वारा अनुदित ग्रन्थ स्वयंभूस्तोत्र का विमोचन भी किया । भीण्डर ( राजस्थान ) के पं. जवाहरलाल सिद्धान्तशास्त्री ने जैन सिद्धान्त के विभिन्न विषयों पर तीन व्याख्यान प्रस्तुत किये । आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला दिसम्बर 15 और 16 फरवरी 1996 को श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय ) में आचार्य श्री विद्यानन्द जी महाराज के सान्निध्य में द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया , जिसमें जैनदर्शन के अन्तर्राष्ट्रिय विद्वान् भाषाशास्त्री प्रो. नथमल टाटिया ने दो सत्रों में भारतीय भाषाशास्त्र एवं शौरसेनी प्राकृत और शौरसेनी प्राकृत एवं संस्कृत में पारस्परिक संबंध शीर्षकों से दो शोधपत्रों का क्रमशः वाचन किया । समारोह के दोनो सत्रों की अध्यक्षता क्रमशः डॉ. प्रेम सिंह ( अध्यक्ष भाषा विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय ) एवं डॉ विमल प्रकाश जैन (जबलपुर विश्वविद्यालय ) ने की । मुख्य अतिथि के रूप में साहू रमेशचन्द्र जी जैन पधारे। इस अवसर पर आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने कहा कि शौरसेनी प्राकृत प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; अन्य समस्त अन्य समस्त प्राकृत भाषाओं की मूलप्रकृति है, उनकी जननी है प्राकृतों ने इसी से अपना स्वरूप निर्माण किया है। वस्तुतः शौरसेनी प्राकृतभाषा में निबद्ध साहित्य में भारतीय संस्कृति, दर्शन कला इतिहास एवं ज्ञान - विज्ञान के अनेकों अज्ञात रहस्य छिपे हुये हैं, जिनका ज्ञान शौरसेनी प्राकृतभाषा एवं उसके साहित्य के विशद् अध्ययन अनुसन्धान एवं प्रचार- प्रसार के बिना नितान्त असम्भव है । प्रो० नथमल टांटिया ने प्राकृत भाषा के स्वरूप एवं महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि शौरसेनी प्राकृत ही प्राचीनकाल में सामान्यतः प्राकृत संज्ञा से व्यवहृत होती थी । न केवल नाट्य - साहित्य अपितु प्राचीन आगम - साहित्य की भाषा भी शौरसेनी प्राकृत ही थी । कन्नड़ ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों की प्रशिक्षण कार्यशाला कुन्दकुन्द भारती के द्वारा कन्नड़ ताड़पत्रीय प्रतिलिपियों के विशेषज्ञ जैन विद्वानों की विरलता को ध्यान में रखते हुए पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज की पावन प्ररेणा एवं आशीर्वाद से कन्नड ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों के अध्ययन एवं पाठ- सम्पादन का एक तीन दिवसीय प्रशिक्षण कार्यशाला 22 जुलाई 1996 को आयोजित की गयी । इसमें प्रशिक्षण - हेतु देश के मूर्धन्य कन्नड़ ताडपत्रीय प्रतिलिपि - विशेषज्ञ संस्कृत प्राकृत एवं हिन्दी भषा के निष्णात विद्वान् पं. देवकुमार जी शास्त्री मूडबिद्री ( दक्षिण कर्नाटक ) कुन्दकुन्द भारती में पधारे । संस्थान के विद्वान् डॉ. सुदीप जैन ने भी इस कार्य में अपना सक्रिय सहयोग दिया । 127 " पं. फूलचन्द्र शास्त्री स्मृति व्याख्यानमाला श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन शोध संस्थान नरिया वाराणसी के तत्वाधान में दिनांक 2-3 अक्टूबर 1999 को सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री स्मृति चतुर्थ व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया । इस अवसर पर मद्रास एवं मैसूर विश्वविद्यालय के प्राकृत एवं जैनविद्या विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो. एम. डी. वसन्तराज ने गुरूपरम्परा से प्राप्त जैनागम नामक विषय पर तीन व्याख्यान प्रस्तुत किये, जिनमें से एक की अध्यक्षता पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक प्रो. भागचन्द्र जैन भास्कर ने की । 42 · " 7 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द राष्ट्रीय संगोष्ठी आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्त्राब्दी समारोह के शुभावसर पर सरधना की जैन समाज ने परमपूज्य उपाध्याय 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज एवं परमपूज्य मुनिवर 108 श्री वैराग्यसागर जी महाराज के ससंघ पावन सान्निध्य में आचार्य कुन्दकुन्द के अवदान को जन-जन तक पहुंचाने की पवित्र भावना से सरधना ( मेरठ) में 25-26 मार्च 1990 को एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया था । इस संगोष्ठी में देश के ख्याति- लब्ध मनीषियों ने भाग लेकर अपने अनुसंधानपरक आलेखों का वाचन किया । अहिंसा एवं अपरिग्रह पर दिल्ली में संगोष्ठी श्री कुन्दकुन्द भारती के सहयोग से श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ , मानित विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में दो दिवसीय संगोष्ठी का सफल आयोजन हुआ। इसमें विचारणीय विषय , अहिंसा और अपरिग्रह था । दिनांक 5 जनवरी 1993 मंगलवार को पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज का बड़े उत्साह एवं श्रद्धा के साथ अभिनन्दन किया गया। संस्कृत काव्य में रचित अभिनन्दन का पठन सुप्रसिद्ध संस्कृत गीतकार एवं कवि डॉ. रमाकान्त शुक्ल ने किया । संगोष्ठी का उद्घाटन नवभारत टाइम्स के सम्पादक डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने किया । सभा की अध्यक्षता कुलपति डॉ. मण्डल मिश्र ने की। मुख्य अतिथि पं. नवल किशोर शर्मा राष्ट्रीय महासचिव , अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि सिक्यूलर का अनुवाद आचार्य श्री विद्यानन्द ने सम्प्रदाय निरपेक्ष किया है , जो सटीक एवं उचित है । स्वतंत्रता के 44 वर्ष बाद हमें यह नई बात मालूम हुई है। पूज्य आचार्य श्री ने कहा कि सत्य बोलना धर्म है , चोरी न करना धर्म है , हिंसा न करना धर्म है , क्या भारतीय संविधान हमें धर्म से निरपेक्ष रहने और असत्य भाषण चोरी करने, हिंसा करने की छूट देता है ? यह विचारणीय प्रश्न है। भारत सम्प्रदाय निरपेक्ष राष्ट्र है। संगोष्ठी के प्रथम सत्र में श्री अक्षयकुमार जैन अध्यक्ष थे और डॉ. दयानन्द भार्गव तथा डॉ, प्रेम सुमन जैन , उदयपुर के शोध-पत्रों के वाचन एवं भाषण अत्यन्त ज्ञानवर्धक रहे । प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन योग एवं साधना पर मद्रास में संगोष्ठी रिसर्च फाउन्डेशन फार जैनालोजी मद्रास के सहयोग से जैनालॉजी विभाग , मद्रास विश्वविद्यालय ने 22 एवं 23 जनवरी ,1993 को मद्रास में अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया इसका विषय था- जैन योग एवं साधना । पूज्य शिवमुनि जी महाराज के सान्निध्य में कुलपति डॉ. एस. सतीख ने संगोष्ठी की अध्यक्षता की । संगोष्ठी में श्री बी. शेखर , डॉ. अशोक कुमार सिंह , डॉ. बी. सी. जैन सुश्री प्रिया जैन , डॉ , धरणेन्दैया , डॉ रविन्द्र कुमार जैन , सुश्री वर्षा मनीलाल आदि विद्वानों ने ईसाई , बौद्ध एवं जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में योग एवं साधना के विभिन्न पक्षों पर अपने शोधपत्र प्रस्तुत किये । तमिलनाडु के डी. आई. जी. श्री एस. श्रीपाल ने समापन वक्तव्य दिया , जिसकी अध्यक्षता रजिस्ट्रार डॉ. पी. गोबादरजूलु ने की। संगोष्ठी का सफल संयोजन जैनोलोजी विभाग के अध्यक्ष डॉ एन. वसुपाल ने किया। संगोष्ठी के पूर्व इसी जैनोलोजी विभाग में धारवाड़ के प्रोफेसर डॉ. ए. एस. धरणेन्द्रैया ने 21 जनवरी 93 को जैन साइकोलाजी पर विस्तार व्याख्यान भी दिये । ये व्याख्यान महासती ताराबाई स्वामी व्याख्यानमाला के अन्तर्गत दिये गये । शाकाहार के दार्शनिक आयाम पर संगोष्ठी इण्डियन कौंसिल ऑफ फिलासोफिकल रिसर्च इंस्टीटयूट एवं राजस्थान विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के तत्वाधान में प्रो. दयाकृष्ण के निर्देशन में 5 व 6 जनवरी 1993 को शाकाहार के दार्शनिक आयाम विषय एक सेमिनार आयोजित किया गया , जिसमें लन्दन के प्रमुख दार्शनिक रिचर्ड सोबरावजी ने तीसरी शती के ग्रीक दार्शनिक पोरफरी की शाकाहार सम्बन्धी पुस्तक पर विशेष व्याख्यान दिया । इस सेमिनार में प्रो. वी. आर मेहता , डॉ. एम. के. सिंधी , डॉ. के. एल. शर्मा , डॉ. आर. एस. भटनागर , डॉ. सरला कल्ला , डॉ. योगेश गुप्ता , डॉ. लोकनाथन , राजकुमार जैन आदि विद्वानों ने भाग लिया । भगवान् ऋषभदेव की परम्परा पर राष्ट्रीय संगोष्ठी पूज्या गणिनी आर्यिकाशिरोमणि ज्ञानमती माता जी के सान्निध्य में पावन तीर्थ अयोध्या में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर एवं अवध विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में 27 से 30 अक्टूबर 1993 तक एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गयी । इस संगोष्ठी में भारतीय इतिहास , संस्कृति और 44 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के परिप्रेक्ष्य में भगवान् ऋषभदेव के जीवन-दर्शन तथ नियमसार की स्याद्वादचन्द्रिका टीका पर विद्वानों ने शोध-पत्र प्रस्तुत किये। डॉ. गोकुल चन्द्र जैन ( वाराणसी ) , डॉ. शेखर चन्द्र जैन ( अहमदाबाद ) , डॉ. भागचन्द्र भागेन्दु ( दमोह ), डॉ. श्रेयांस जैन ( बड़ौत ) , डॉ. रमेशचन्द्र जैन ( बिजनौर ) , डॉ. उदयचन्द जैन , ( उदयपुर), डॉ. कल्पना जैन ( भोपाल ) आदि अनेक विद्वान् संगोष्ठी में आमन्त्रित थे । डॉ. अनुपम जैन ( सारंगपुर ) के संयोजन में यह संगोष्ठी सार्थक रूप से सम्पन्न हुई । पर्यावरण संरक्षण : महावीर की दृष्टि पर गोष्ठी महावीर इण्टरनेशनल के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर 30 अक्टूबर 1993 को उदयपुर में पर्यावरण संरक्षण-महावीर की दृष्टि विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की गयी , जिसकी अध्यक्षता प्रोफेसर के. सी. सौगानी ने की । इस परिचर्चा में डॉ. प्रेम सुमन जैन ( उदयपुर ) , श्री सतीश कुमार जैन (दिल्ली). डॉ सुषमा सिंघवी ( उदयपुर ) , श्रीमान् आर. एस. कुम्मट ( जयपुर ) आदि ने भी व्याख्यान दिये परिचर्चा का निष्कर्ष था कि महावीर की अपरिग्रहवृत्ति (तृष्णाक्षय ), अहिंसा , शाकाहार एवं मानसिक शक्ति युक्त जीवनशैली से ही पर्यावरण संतुलित रह सकता है। इसी से देश की वन-सम्पदा एवं प्राणी जगत् सुरक्षित हो सकेगा । पर्यावरण और जैन जीवन-पद्धति संगोष्ठी श्री अखिल भारतीय जैन विद्वत परिषद् एवं श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ जयपुर की ओर से पूज्य आचार्य श्री हीराचन्द जी महाराज सा के सान्निध्य में 22 ,23 एवं 24 अक्टूबर 1993 को जयपुर में पर्यावरण और जैन जीवन-पद्धति विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की गयी। इसका उद्घाटन उद्बोधन पूर्व कुलपति डॉ. कल्याणमल लोढ़ा ने प्रदान किया । अपभ्रंश अकादमी के निदेशक प्रो. के. सी. सौगानी ने आचारांग और वनस्पति पर व्याख्यान दिया । संगोष्ठी में सुखाड़िया विश्वविद्यालय में कला महाविद्यालय के अधिष्ठाता डॉ. प्रेम सुमन जैन , लोककलाविद् डॉ महेन्द्र भानावत , डॉ. उदयचन्द जैन , डॉ. सुषमा सिंघवी , श्री चंचलमल चौरडिया , पं. कन्हैयालाल दक आदि पचास विद्वानों ने भाग लिया । प्रोफेसर नरेन्द्र भानावत की उपस्थिति और मार्गदर्शन प्रेरणादायक रहा । समापन वक्तत्व स्वास्थ्य सचिव श्री आर. एस. कुम्मट ने प्रदान किया। प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 45 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र के विभिन्न आयाम' विषय पर संगोष्ठी - श्री अम्बा गुरू शोध संस्थान उदयपुर के तत्वाधान में पूज्य श्री सौभाग्यमुनि जी ' कुमुद ' के पावन सान्निध्य में 20 एवं 21 नवम्बर 1993 को मावली ( उदयपुर) में एक द्वि-दिवसीय संगोष्ठी आयोजित की गई । इस संगोष्ठी में अर्धमागधी आगम भगवतीसूत्र के विभिन्न आयाम विषय पर विद्वानों ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किये । प्रकीर्णक साहित्य- विषय संगोष्ठी सम्पन्न आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान , उदयपुर द्वारा आयोजित प्रकीर्णक साहित्य अध्ययन एवं समीक्षा विषयक द्वि-दिवसीय संगोष्ठी रविवार 3 अप्रैल 1994 को सम्पन्न हो गई । संगोष्ठी का उद्घाटन शनिवार 2 अप्रैल 1994 को जवाहर जैन सीनियर सैकण्डरी स्कूल के सभागार में हुआ। समारोह के अध्यक्ष मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आर. के. राय थे। उन्होंने कहा कि प्रकीर्णक ग्रन्थों का समाज में अधिकाधिक उपयोग हो तभी इस संगोष्ठी की सार्थकता है। द्वितीय राष्ट्रीय शौरसेनी प्राकृत संगोष्ठी भारत की राजधानी नई दिल्ली में श्रुतपन्चमी प्राकृतभाषा दिवस की पूर्वबेला में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज एवं मुनिश्री कनकोज्जवलनन्दि जी के पावन सान्निध्य में आयोजित द्वितीय राष्ट्रीय शौरसेनी प्राकृत संगोष्ठी अत्यन्त गरिमापूर्ण उल्लासमय वातावरण में सम्पन्न हुई । दिनांक 21 मई 1996 को आयोजित इस एकदिवसीय राष्ट्रीय शौरसेनी प्राकृत संगोष्ठी का कार्यक्रम अत्यन्त व्यस्त रहा । इसमें कुल चार सत्रों में लब्धख्यात विद्वानों/ विदुषियों ने अपने गवेषणापूर्ण शोधपत्रों का वाचन किया तथा समागत एवं स्थानीय विद्वानों की सार्थक परिचर्या से इसकी श्रीवृद्धि हुई । इस अवसर पर मंगल आशीर्वचन प्रदान करते हुए पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने कहा कि सिन्धु- सभ्यता के समय में अर्थात् आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व प्राकृतभाषा ही इस देश की जनभाषा थी- यह तथ्य शोधकर्ताओं ने प्रमाणित कर दिया है तथा सम्राट अशोक एवं सम्राट खारबेल जैसे महाप्रतापी राजाओं ने इस भाषा में राजाज्ञा प्रदान की , जिनके शिलालेखीय प्रमाण आज भी देशभर में प्राप्त होते है। भास , कालिदास जैसे साहित्यिक कवियों तथा पुष्पदन्त- भूतवलि, कुन्दकुन्द जैसे महान् तपस्वी सन्तों के साहित्य 46 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का माध्यम भी यह भाषा रही है। अतः समग्र भारतीय चेतना का साक्षात्कार करने के लिए देशवासियों को प्राकृतभाषा को सीखना- समझना होगा । विद्वद्गण भी इस दिशा में पूर्ण यत्न करें तथा शैक्षणिक योजना की क्रमबद्ध रूपरेखा बनाकर उसके अनुपालन में लग जायें ; क्योंकि इस कार्य का मूल दायित्व उन्हीं का है। अखिल भारतीय शौरसेनी प्राकृत काव्यगोष्ठी शौरसेनी प्राकृत की राष्ट्रीय संस्था अखिल भारतीय शौरसेनी प्राकृत विद्वत्संसद ने श्री कुन्दकुन्द भारतीय, नई दिल्ली के तत्वाधान में · श्रुतपन्चमी ; प्राकृतभाषा दिवस के सुअवसर पर लगातार दूसरे वर्ष अखिल भारतीय शौरसेनी प्राकृत काव्यगोष्ठी का भव्य आयोजन किया। पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज एवं मुनिश्री कनकोज्जवलनंदि जी के पावन सान्निध्य में ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी दिनांक 22 मई 96 बुधवार को आयोजित इस काव्यगोष्ठी की अध्यक्षता सुविख्यात विचारक प्रो. (डॉ.) वाचस्पति उपाध्याय , कुलपति श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ , नई दिल्ली ने की । काव्यगोष्ठी के प्रारम्भ में कुमारी चन्दना जैन ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की एवं पं. बाहुबलि उपाध्ये ने मंगलाचरण स्वरूप शौरसेनी प्राकृत- निबद्ध दसणपाठ का सस्वर वाचन किया। तदुपरान्त आकाशवाणी नई दिल्ली के कार्यक्रम निदेशक श्री हरिचरण वर्मा पुरूदेव मंगल एवं श्रुतभक्ति ( अमृत झरै , झुरि-झुरि ) की संगीतमय प्रस्तुति सम्पूर्ण सभा को मंत्रमुग्ध कर दिया । काव्यगोष्ठी में सर्वप्रथम डॉ. विद्यावती जैन आरा ( बिहार ), डॉ. उदयचन्द जैन, उदयपुर ( राज. ) , मुनिश्री कनकोज्जवलनंदि जी , प्रो. भागचन्द जैन भास्कर , डॉ. हरीराम आचार्य, जयपुर ( राज. ) , डॉ. रवीन्द्र नागर , डॉ. दामोदर शास्त्री, डॉ. प्रेम सुमन जैन , उदयपुर , डॉ. राजाराम जैन , आरा आदि प्राकृत विद्वान कवियों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की । संस्कृत विद्यापीठ में प्राकृतभाषा विभाग का शुभारम्भ श्री लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ मानित विश्वविद्यालय नई दिल्ली 16 सत्र 1998-99 से प्राकृतभाषा के स्वतंत्र विभाग का शुभारम्भ केन्द्र सरकार की अनुमति से विधि सम्मत तरीके से हुआ है। इसकी स्थापना के पूर्व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नियमावली के अनुसार प्रयोग के तौर पर प्राकृतभाषा के अंशकालीन पाठ्यक्रम ( प्रमाणपत्रीय एवं डिप्लोमा पाठ्यक्रम ) प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन वर्ष पूर्व सत्र 1996-97 से प्रारंभ किये गये थे । दो वर्षो में उनकी सक्रियता पाठ्यपुस्तकों के निर्माण, जनरुचि एवं सफल संचालन को दृष्टिगत रखते हुए पूरी रिपोर्ट के आधार पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं केन्द्र सरकार ने इस विभाग की स्थापना की स्वीकृति प्रदान की अपेक्षित संसाधन भी विद्यापीठ को प्रदान किये । प्राकृतभाषा विभाग में उपाचार्य रीडर पद पर डा. सुदीप जैन की नियुक्ति हुई है तथा व्याख्याता लेक्चरर पद पर डॉ. पं. जयकुमार उपाध्ये की नियुक्ति हुई है। शौरसेनी प्राकृत विद्वत्संसद का गठन . भारत की प्राचीनतम जनभाषा शौरसेनी प्राकृत विगत कुछ दिनों से विद्वत् जगत् में चर्चा की केन्द्र बनी तो एक उपयुक्त मंच की अनिवार्य आवश्यकता का अनुभव हुआ । फलस्वरूप 22 अप्रैल 95 को पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के अमृत महोत्सव के प्रसंग में एक सारस्वत संस्था का गठन हुआ जिसका नामकरण हुआ- शौरसेनी प्राकृत विद्वत्संसद संसद की ग्यारह सदस्यीय प्रथम कार्यकारिणी इस प्रकार है- प्रो. डॉ. मण्डन मिश्र --अध्यक्ष प्रो. डॉ. राजाराम जैन कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. प्रेम सुमन जैन । इस " · - प्रधान सचिव, डॉ. सुदीप जैन - सहसचिव तथा पं. बलभद्र जैन, नई दिल्ली, प्रो. डॉ. नथमल टाटिया लाडनूँ, प्रो. डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच, प्रो डॉ. वाचस्पति उपाध्याय, नई दिल्ली, प्रो. लक्ष्मीनारायण तिवारी, दिल्ली, प्रो. डॉ भागचन्द जैन भास्कर नागपुर, डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी वाराणसी- सभी सदस्यगण | 48 " काउन्सिल ऑफ जैन इन्स्टीट्यूट्स सम्प्रदाय निरपेक्ष मात्र जैनत्व के सिद्धान्तों के प्रचार- प्रसार हेतु काउन्सिल ऑफ जैन इन्स्टीट्यूटस ( C JAIN ) की स्थापना हुई हैं जो अहमदाबाद में डॉ॰ सागरमल जैन, डॉ प्रेम सुमन जैन एवं डॉ. शेखर चन्द्र जैन के मार्गदर्शन में काम करेगी । इसका उद्देश्य विश्व में जैन रिसर्च के कार्य को अंजाम देना तथा आधुनिक संचार माध्यमों से पूरे विश्व के शोध केन्द्रों की रिसर्च की पूरी जानकारी इन्टरनेट पर उपलब्ध कराना है । प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन O Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवनेश्वर में खारवेल महोत्सव एवं राष्ट्रीय संगोष्ठी ऋषभदेव फाउण्डेशन , नई दिल्ली तथा एड्वांस सेन्टर फॉर इण्डोलाजिकल स्टडीज , भुवनेश्वर के संयुक्त तत्वाधान में भुवनेश्वर में भ. ऋषभदेव के निर्वाणोत्सव के अवसर पर 16-18 जनवरी 1999 को एक त्रिदिवसीय खारबेल महोत्सव एवं राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया । समारोह के मुख्य अतिथि उड़ीसा के महामहिम राज्यपाल श्री सी रंगराजन ने भारतीय संस्कृति पर जैन धर्म का व्यापक प्रभाव स्वीकारते हुए और उसे उसका अभिन्न अंग मानते हुए कहा कि उड़ीसा में उसका अत्यन्त गौरवशाली इतिहास रहा है। ईसा पूर्व दूसरी शती में सम्राट खारवेल कलिंग का एक ऐसा प्रतापशाली जैन सम्राट था जिसने प्रायः सारे भारत को एक सूत्र में बांध कर कल्याणकारी शासन की स्थापना की थी । गोष्ठी में देश भर से आये तीस से अधिक प्रख्यात विद्वानों तथा पुरातत्वविदों के शोध आलेख प्रस्तुत किये गये । इन्साइक्लोपीडिया जैनिका श्री दिगम्बर जैन सिद्धोदय रेवातट सिद्धक्षेत्र नेमावर देवास मध्य प्रदेश में 22 अप्रैल 1999 को श्री आचार्य विद्यासागर जी महाराज के संसघ सान्निध्य में सर्वोदय जैन विद्यापीठ , के तत्वाधान में संकलित होने वाले इन्साइक्लोपीडिया जैनिका · एवं जैन विद्या विश्वकोश परियोजना का शुभारम्भ एक कार्यशाला के रूप में हुआ । परियोजना के अकादमिक संयोजक एवं प्रशासक डॉ. वृषभ प्रसाद जैन , लखनऊ ने मंगलाचरण के बाद इस पूरी परियोजना के महत्व तथा अकादमिक पक्ष की जानकारी दी। आपने बताया कि यह परियोजना अन्तर्राष्ट्रीय मापदण्डों के अनुरूप होगी और हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनो भाषाओं में कोश प्रकाशित होगा । इस विश्वकोश में जैन धर्म एवं संस्कृति से सम्बन्धित प्रत्येक बिन्दु को समाहित करने का पूर्ण यत्न किया जायेगा। ENCYLOPEDIA OF JAINISM ENCYLOPEDIA OF JAINISM will have scholarly input, will be well researched and edited and will be written in simple English. It will have unbiased views from all sects of Jainism. Its Chief Editors will be Dr. Kamal Chand Sogani and each volume will have distinguished authors: प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 49 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. History of Jainism by Dr. K. C. Jain 2- Philosophy & Psychology by Dr. M. D. Vasantha Raj 3- Religion & Ethics by Dr. Kamal Chand Sogani 4- Logic & Epistemology by Dr. Dharam Chand Jain 5- Language & Literature Vol.1 by Dr. Raja Ram Jain 6- Language & Literature Vol.2 by R. .Soorideva 7- Manuscripts and Inscriptions by M. Vinay Sagar 8- Arts and Architecture ___ by Dr. R.C. Sharma 9- Science in Jain Literature by Dr. Anupam Jain 10- Contemporary Philosophy, by Dr. Bhagchand Jain ( Bhasker) Religion & Culture 11-Jain Society by Dr. Vilas Sangave The ENCYCLOPEDIA OF JAINISM will be published by the World Council of Jain Academies (WCJA). राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं संशोधन संस्थान , श्रवणबेलगोला राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं संशोधन संस्थान , श्रवणबेलगोला को पी. एच.डी. उपाधि के शोध कार्य हेतु मैसूर विश्वविद्यालय ने मान्यता प्रदान कर दी है। राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं संशोधन संस्थान , श्रवणबेलगोला में 2-3 जनवरी 1999 को प्राकृत भाषा की पुवागम की परम्परा राष्ट्रीय विचारगोष्ठी श्रवणगेलगोला के कर्मयोगी स्वस्ति श्री चारूकीर्ति भट्टारक जी की अध्यक्षता में हुई । इसमें जैन आगमों की परम्परा और 12 अंग व 14 पूर्वो के बारे में विद्वानों द्वारा विस्तृत चर्चा की गई । यह संस्थान 1993 से प्राकृत शिक्षण और शोध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कर रहा है। इस संस्थान से प्राकृत और जैन धर्म की शोधपूर्ण पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं । उमास्वाति स्वामी पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी भोगीलाल लहेरचंद इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डोलाजी , दिल्ली के तत्वाधान में 4-6 जनवरी 1999 को आ. उमास्वाति और उनका अवदान पर एक द्विदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न हुई जिसमें देश के अनेक मूर्धन्य विद्वानों 50 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ-साथ जापान, फ्रांस, इंगलैण्ड और अमेरिका से पधारे विद्वानों ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किये । संगोष्ठी का उद्घाटन प्रख्यात विधिवेत्ता डॉ. एल. एम. सिंघवी ने किया और इसमें 21 शोध पत्रों के वाचन और उन पर गम्भीर चर्चा के साथ 4 विशेष व्याख्यान भी हुए । आचार्य श्री विद्यानन्द शौरसेनी प्राकृत पुरस्कार प्राकृत भाषा एंव साहित्य के गवेषी मूर्धन्य विद्वान् प्रो. बी. के. खडबडी को वर्ष 1997 का आचार्य विद्यानन्द पुरस्कार समर्पित करते हुए समारोह के मुख्य अतिथि उपराज्यपाल महामहिम श्री विजय कपूर ने कहा कि किसी भी देश की सभ्यता, संस्कृति और समाज को समुचित ढंग से समझने के लिए वहाँ के प्राचीन भाषा- साहित्य को जानना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि भारत में प्राचीन भाषा पर शोध और अध्ययन के लिए अपेक्षित प्रयास नहीं हुआ है। यूरोपीय देशों में लेटिन भाषा पर काफी शोध कार्य करने और प्रचार करने की व्यवस्था है क्योंकि यह कई यूरोपीय भाषाओं की जननी है । उन्होंने कहा कि प्राकृत से अनेक आधुनिक प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों का विकास हुआ है इसलिए इसका व्यापक अध्ययन जरूरी है । प्रो. खडबडी को आचार्य विद्यानन्द शौरसेनी प्राकृत पुरस्कार और प्राकृतप्राज्ञ की उपाधि से अलंकृत किया गया । 51 हजार रूपये का यह पुरस्कार प्राचीन भाषाओं के संरक्षण एंव प्रकाशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली देश की सुप्रसिद्ध साहित्यिक संस्था भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा स्थापित है और प्रतिवर्ष श्री कुन्दकुन्द भारती के तत्वाधान में प्राकृत भाषा के एक विद्वान् को दिया जाता है । 1996 को यह पुरस्कार प्रो. एम. डी. वसन्तराज को दिया गया था । आचार्य कुन्दकुन्द पुरस्कार सोलापुर ( महाराष्ट् ) के " गॉधी नाथा रंगजी जनमंगल प्रतिष्ठान द्वारा प्रदत्त वर्ष 1995 का चतुर्थ 51,000 / - राशि का आचार्य कुन्दकुन्द पुरस्कार जैन दर्शन एवं न्यायशास्त्र के सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं सुपरिचित लेखक डॉ. दरबारी लाल कोठिया ( 85 वर्ष) को उनकी विशिष्ठ साहित्यिक सेवाओं के लिए भेंट किया गया एवं उन्हें " न्यायसिन्धु " की उपाधि से अलंकृत किया गया । 24 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 51 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार श्री दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट , इन्दौर द्वारा जैन साहित्य के सृजन , अध्ययन/ अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के अन्तर्गत रूपये 25000/- का कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुरस्कार “प्रतिवर्ष देने का निर्णय 1992 में लिया गया था । जिसमें नगद राशि के अतिरिक्त लेखक को प्रशस्तिपत्र , स्मृति चिन्ह , शाल , श्रीफल भेंट कर सम्मानित किया जाता है। गत् 4 वर्षों के पुरस्कारों का विवरण निम्नवत् है1993 पुरस्कृत विद्वान- संहितासूरि पं. नाथूलाल जैन , शास्त्री इन्दौर पुरस्कृत कृति - प्रतिष्ठा प्रदीप 1994 पुरस्कृत विद्वान- प्रोफेसर लक्ष्मी चन्द्र जेन , जबलपुर पुरस्कृत कृति – The Tao of Jaina Sciences 1995 पुरस्कृत विद्वान- प्रोफेसर भाग चन्द्र जैन भास्कर , नागपुर पुरस्कृत कृति - जैन इतिहास , संस्कृति एवं पुरातत्व ( पांडुलिपि ) 1996 पुरस्कृत विद्वान- डॉ. उदयचन्द जैन , उदयपुर पुरस्कृत कृति - जैन धर्म स्वरूप विश्लेषण एवं पर्यावरण संरक्षण एवं पुरस्कृत विद्वान्- आचार्य गोपीलाल अमर , दिल्ली पुरस्कृ त कृति Jaina Solution to ther Pollution of Environment अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर के पुरस्कार श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर के अन्तर्गत स्व. प्रदीप कुमार रामपुरिया स्मृति साहित्य पुरस्कार , पुरस्कार राशि 51,000/-एवं स्व. चम्पालाल सांड स्मृति साहित्य पुरस्कार , पुरस्कार राशि 51,000/(क) स्व. प्रदीप कुमार रामपुरिया स्मृति साहित्य पुरस्कार में पुरस्कृत की जाने वाली रचनाएँ- जैन धर्म और , दर्शन , जैन इतिहास, कला एवं संस्कृति तथा जैन साहित्य-काव्य , कथा , निबन्ध , नाटक , संस्मरण एवं जीवनी आदि के संबंध में लिखित कोई भी मौलिक ग्रन्थ । (ख) स्व. चम्पालाल सांड स्मृति साहित्य पुरस्कार में पुरस्कृत की जाने वाली रचनाएँ -नैतिकता सदाचार , संस्कृति सम्बन्धित किसी भी उपाधि सापेक्ष एवं उपाधि निरपेक्ष लिखित शोध प्रबन्ध , शोध समीक्षा , कथानक एवं सम्पादित , अनुवादित ग्रन्थ । 52 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं जैन धर्म अध्ययन विदेशों में अध्ययन केन्द्र एवं अन्य प्रवृत्तियां : लगभग दो सौ वर्षो तक पाश्चात्य विद्वानों द्वारा जैनविद्या पर किया गया अध्ययन भारत एवं विदेशों में जैनविद्या के प्रचार-प्रसार में पर्याप्त उपयोगी रहा है। इन विद्वानों के कार्यो एवं लगन को देखकर भारतीय विद्वान् भी जैनविद्या के अध्ययन में जुटे । परिणामस्वरूप न केवल प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य के सैकड़ों ग्रन्थ प्रकाश में आये, अपितु भारतीय विद्या के अध्ययन के लिए जैनविद्या के अध्ययन की अनिवार्यता अब अनुभव की जाने लगी है। डॉ. पी. एल. वैद्या , डॉ. एच. डी. बेलणकर , डॉ. एच. एल. जैन , डॉ. ए. एन. उपाध्ये, डॉ. जी. बी. तगारे . मुनि पुण्यविजय एवं मुनि जिनविजय , डॉ. नथमल टाटिया , पं. दलसुख भाई मालवणिया आदि विद्वानों के कार्यो को इस क्षेत्र में सदा स्मरण किया जावेगा । विदेशों में भी वर्तमान में जैनविद्या के अध्ययन ने जोर पकड़ा है। पूर्व जर्मनी में फी युनिवर्सिटी बर्लिन में प्रोफेसर डॉ. क्लोस बुहन जैन लिटरेचर एण्ड माइथोलाजी , इंडियन आर्ट एण्ड इकोनोग्राफी का अध्यापन कार्य कर रहे हैं। उनके सहयोगी डॉ. सी. बी. त्रिपाठी बुद्धिस्ट- जैन लिटरेचर तथा डॉ. मोनीका जार्डन ने जैन लिटरेचर के अध्यापन का कार्य किया है । पश्चिमी जर्मनी हमबर्ग में डॉ. एल. आल्सडार्फ स्वयं जैनविद्या के अध्ययन-अध्यापन में संलग्न रहे उत्त्राध्ययननियुक्ति पर उन्होंने कार्य किया। उनके छात्र श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन ग्रन्थों पर शोध कर रहे हैं । प्राकृत भाषाओं का विशेष अध्ययन बेलजियम में किया जा रहा है। वहाँ पर डॉ जे. डेल्यू जैनिज्म तथा प्राकृत पर, डॉ. एल. डी. राय क्लासिकल संस्कृत एण्ड प्राकृत पर , प्रो. डॉ. आर फोहले क्लासिकल संस्कृत प्राकृत एण्ड इंडियन रिलीजन पर तथा प्रो. डॉ. ए. श्चार्ये एशियण्ट इंडियन लैंग्वेजेज एण्ड लिटरेचर , वैदिक क्लासिकल संस्कृत एण्ड प्राकृत पर अध्ययन–अनुसन्धान कर रहे हैं । इसी प्रकार पेनीसिलवानिया युनिवर्सिटी में प्रो. नार्मन ब्राउन के निर्देशन में प्राकृत तथा जैन साहित्य में शोधकार्य हुआ है। इटली में प्रो. डॉ. वितरो विसानी एवं प्रो. ओकार बोटो जैनविद्या के अध्ययन में संलग्न हैं। आस्ट्रेलिया में प्रो. ई. फाउल्लर वेना जैनविद्या के विद्वान हैं । पेरिस में प्रो. डॉ. वाल्टर वार्ड भारतीय विद्या के अध्ययन के साथ-साथ जैनिज्म पर भी शोध-कार्य में संलग्न है। प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जापान में जैनविद्या का अध्ययन बौद्धधर्म के साथ चीनी एवं तिब्बतन स्रोतों के आधार पर हुआ। इसके प्रवर्तक थे प्रो. जे. सुजुकी जिन्होंने जैन सेक्रेड बुक्स के नाम से लगभग 250 पृष्ठ की पुस्तक लिखी। वह 1920 ई. में वर्ल्डस सेकेड बुक्स ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हुई । सुजुकी ने तत्वार्थधिगमसूत्र , योगशास्त्र एवं कल्पसूत्र का जापानी अनुवाद भी अपनी भूमिकाओं के साथ प्रकाशित किया । जैनविद्या पर कार्य करने वाले दूसरे जापानी विद्वान् तुहुकु विश्वविद्यालय में भारतीय विद्या के अध्यक्ष डॉ. ई कनकुरा हैं । इन्होंने सन् 1939 में प्रकाशित हिस्ट्री आफ स्प्रिचुअल सिविलाइजेनशन आफ एशियण्ट इंडिया के नवें अध्याय में जैनधर्म के सिद्धान्तों की विवेचना की है तथा आपकी द स्टडी आफ जैनिज्म कृति 1940 में प्रकाश में आयी। 1944 ई. में तत्वार्थधिगमसूत्र एवं न्यायावतार का जापानी अनुवाद भी आपने किया है। बीसवीं शताब्दी के छठे एवं सातवें दशक में भी जैनविद्या पर महत्वपूर्ण कार्य जापान में हुआ है। तेशो विश्वविद्यालय के प्रो. एस. मत्सुनामी ने बौद्धधर्म और जैनधर्म का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। ए स्टडी आन ध्यान इन दिगम्बर सेक्ट 1961 , एथिक्स आफ जैनिज्म एण्ड बुद्धिज्म 1963 तथा इसिभासियाइ 1966 एवं दसवेयालियसुत्त 1968 का जापानी अनुवाद जैनविद्या पर आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं । सन् 1970 ई. में डॉ. एच. उइ. की पुस्तक स्टडी आफ इंडियन फिलासफी प्रकाश में आयी। उसके दूसरे एवं तीसरे भाग में उन्होंने जैनधर्म के सम्बन्ध में अध्ययन प्रस्तुत किया है। टोकियो विश्वविद्यालय के प्रो. डॉ. एच. नकमुरा तथा प्रो. युतक ओजिहारा वर्तमान में जैनविद्या के अध्ययन में अभिरुचि रखते हैं । उनके लेखों में जैनधर्म का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। श्री अत्सुशी उनो भी जैनविद्या के उत्साही विद्वान हैं । इन्होंने वीतरागस्तुति हेमचन्द्र , प्रवचनसार , पंचास्तिकायसार तथा सर्वदर्शनसंग्रह के तृतीय अध्याय का जापानी अनुवाद प्रस्तुत किया है। कुछ जैनधर्म सम्बन्धी लेख भी लिखे हैं। सन् 1961 में कर्म डॉक्टाइन इन जैनिज्म नामक पुस्तक भी आपने लिखी हैं। डॉ. फाईलिस ग्रानोफ ( कनाडा ) ने प्राकृत कथा साहित्य पर कार्य करने वाले विदेशी विद्वानों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है। डॉ. नलिनी बलवीर ने 1986 में पेरिस विश्वविद्यालय में आवश्यक चूर्णी की कथाओं पर शोधप्रबन्ध प्रस्तुत किया है। उन्हीं के शिष्य क्रिस्ताइन चोनाकी ने 1992 में जिनभद्रसूरी के विविध तीर्थकल्प का आलोचनात्मक संस्करण तैयार किया है फ्रेंच अनुवाद के साथ । बेल्जियम से क्रिसवान लाअर ने पुरातनप्रबन्धसंग्रह पर 54 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य किया है। 1984 में " इण्डोलाजीकल टाउरिनसिया " पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसमें क्लौस त्रुहन , गुस्तेव रोथ , कोलेट कैया , के आर नारायण , नलिनी बलवीर , कोलेन मेरोफर, जीन फिलोजाट आदि विद्वानों के जैन कथा साहित्य पर विशेष शोध आलेख प्रकाशित हुए हैं। प्रो. फाइलिस ग्रानोफ की पुस्तक मोंक्स एण्ड मेजिसियनस्- रिलीजियस बाईयोग्राफीस् इन एशिया " 1989 में प्रकाशित हुई , उसमें जैन इतिहास की अच्छी सामग्री है। 1988 में विलियम बी. बोली की सूयगडाओ पुस्तक प्रकाशित हुई है। गुस्तव रोथ ने 1983 में ज्ञाताधर्मकथा की मल्लीकथा पर पुस्तक जर्मनी से प्रकाशित की है। हारवर्ड विश्वविद्यालय में जेन अध्ययन पर कार्यशाला ___ 23 से 25 मार्च 1990 को सेन्टर फार द् स्टडी आफ वर्ल्ड रिलीजन्स , हारवर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका द्वारा जैन अध्ययन कार्यशाला का आयोजन किया गया जिसमें अमेरिका , कनाडा और इंगलैण्ड आदि के विद्वानों ने जैनधर्म के विभिन्न पक्षों पर अपने आलेख प्रस्तुत किये। जाने ई कार्ट ( हारवर्ड वि.वि.) रफ स्आल ( शिकागो ), पाल डुनदास , (इडनवर्ग विश्वविद्यालय ) आदि विद्वानों ने भारत और विश्व के सन्दर्भ में जैनधर्म की समीक्षा की है। पिट्सवर्ग (पेनसिलवानिया ) में आयोजित जैन सम्मेलन 1 से 4 जुलाई 1993 में पिट्सवर्ग ( अमेरिका) में JAINA का 7वाँ जैन सम्मेलन आयोजित हुआ । मध्यप्रदेश ( भारत ) के मुख्यमन्त्री श्री सुन्दरलाल पटवा सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे । डॉ. कुमारपाल देशाई ( भारत ) ने विषय प्रवर्तन करते हुए जैनधर्म की परम्परा और उसके मूल्यों पर प्रकाश डाला । इस सम्मेलन का प्रमुख विषय था- - जैनधर्म – अतीत , वर्तमान और भविष्य । सान्ता बारबरा , केलिफोर्निया के प्रोफेसर डॉ. नोइल किंग ने नार्थ अमेरिका में जैनधर्म के इतिहास पर अपना व्याख्यान दिया तथा डेनीसन कालेज ओहिओ के प्रोफेसर जान कार्ट ने नार्थ अमेरिका में जैनिज्म पर प्रकाश डाला | डॉ. निखेल तोवियास (अहिंसा फिल्म के प्रोडयूसर ) डॉ. क्रामबेल क्राफोर्ड ( हवाई विश्वविद्यालय) जैसे दिग्गज विद्वानों ने भी जैनधर्म पर व्याख्यान दिए । शिकागो में आयोजित जैन सम्मेलन 28 जून से 2 जुलाई 1995 को JAINA का आठवां अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन शिकागो में आयोजित हुआ । इस सम्मेलन का प्रमुख विषय था - प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का द्वारा शांन्ति " । इस सम्मेलन में सभी सम्प्रदायों के लगभग 12 हजार जैन शिक्षाविद सम्मिलित हुए । युवा पीढ़ी के विद्वानों का इसमें विशेष योगदान रहा । 21वीं शताब्दी में जैनधर्म , जैनधर्म और युवा पीढ़ी , जीवन और शाकाहार आदि विषयों पर सम्मेलन में विचार-विमर्श किया गया । छठा जैन विश्व सम्मेलन , दिल्ली में ___ 24-26 दिसम्बर 1995 में वर्ल्ड जैन कांग्रेस और अहिंसा इन्टरनेशनल द्वारा छठा जैन विश्व सम्मेलन आयोजित किया गया । इसमें अमेरिका , इंगलैण्ड, कन्नाडा , जर्मनी , नेपाल और भारत के शताधिक जैन विद्वानों ने भाग लिया। सम्मेलन का प्रमुख विषय था- - 21 वीं सदी में जैन · । सम्मेलन में जैनधर्म और काल का विश्व , शान्ति अहिंसा स्वास्थ्य और शाकाहार , जैनधर्म और नारी , जैन साहित्य और राष्ट्र आदि विषयों पर विद्वानों ने विचार व्यक्त किये । अहिंसा वाइस के सम्पादक श्री सतीश जैन ने इस अवसर पर एक स्मारिका भी प्रकाशित की। हारवर्ड विश्वविद्यालय में जैनधर्म सम्मेलन हारवर्ड विश्वविद्यालय , अमेरिका में 10-12 जुलाई 1998 को वहां के सेन्टर फार द स्टडी आफ वर्ल्ड रिलीजन्स केन्द्र ने - जैनधर्म और पर्यावरण " पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया । जाफना के अध्यक्ष डॉ सुलेख जैन और जैन अकेडेमी यू. के. के सदस्यों ने इस सम्मेलन को आयोजित किया । सम्मेलन के संयोजक प्रो. क्रिस्टोफर कीचौपाल ( हारवर्ड विश्वविद्यालय ) के अतिरिक्त , प्रो. क्राफोर्ड , प्रो. किम आर. स्कूग , प्रो. जान कोलर , जानकार्ट , प्रो. पदमनाभ जैनी , प्रो. क्रिस्टी बेली , पालन डनदास आदि विद्वानों ने इस सम्मेलन में जैनधर्म और पर्यावरण संतुलन पर अपने विचार व्यक्त किये । जैना का 10 वां अधिवेशन ___ JAINA का 10 वां अधिवेशन 4 जुलाई 1999 को फिलाडेलफिया (अमेरिका) में सम्पन्न हुआ, जिसमें लगभग 8000 जैन शिक्षाविदों ने भाग लिया। अमेरिका , यूरोप , भारत और अन्य देशों से अनेक जैनविद्या के विद्वान इसमें सम्मिलित हुए । इस सम्मेलन का मुख्य विषय था- नई सहस्त्राब्दी में जैनधर्म। इसमें जैन साहित्य एवं जैन कला की प्रदर्शनी भी आयोजित थी। 56 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग 90 व्याख्यान , कार्यशाला गोष्ठी आदि इसमें आयोजित हुए जिनमें । आधुनिक संदर्भ में जैनधर्म · विषय पर विश्लेषण किया गया । अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका जैन स्प्रिट ( JAINA SPIRIT ) के प्रवेशांक का प्रकाशन डॉ अतुल शाह लंदन के संपादन में संपूर्ण विश्व में जैनधर्म दर्शन और आधुनिक विश्व के सम्बन्ध में नया विश्लेषण और सूचनाएँ प्रदान करने के लिए जैन स्प्रिट नाम की त्रैमासिक शोधपत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ है। अक्टूबर दिसम्बर 1999 का प्रथम अंक प्रसारित किया गया है , जिसमें जैनधर्म और दर्शन तथा पर्यावरण आदि के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी दी गई है। इसका संपर्क सूत्र हैMailling Address North America: Jaina Spirit ,1884 Dorsetshire Road, Columbus, OH 43229, U.S.A. Freephone : 1-888-JAINISM Rest of the World: Jain Spirit, 237 Preston Road, Wembley, Middlesex, HA9 8PE , UK. Tel: 44-20838 50005 Email : Subscribe @ jainspirit.org विदेशों में जैन विश्वविद्यालयों की संस्थापना का कार्य स्वर्गीय आचार्य मुनि सुशील कुमार जी ने कर दिया था । उनके प्रयास से ही 1993 ई. में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में एक जैन चेयर की स्थापना हुई है। यह चेयर दक्षिण एशिया अध्ययन संस्थान के अन्तर्गत काम करेगी । ज्ञातव्य है कि मुनिश्री न्यूयार्क में एक अहिंसा विश्वविद्यालय की स्थापना कर गये है , जो संयुक्त राष्ट्र संघ के शान्ति विश्वविद्यालय के साथ काम करेगा । इसमें अहिंसा एवं जैन विद्याओं के अध्ययन के साथ ही पर्यावरण पर भी अध्ययन किया जाएगा । पाश्चात्य विद्वानों द्वारा जैनविद्या पर किये गये कार्यों के इस विवरण को पूर्ण नहीं कहा जा सकता । बहुत से विद्वानों और उनके कार्यों का उल्लेख साधनहीनता और समय की कमी के कारण इसमें नहीं हो पाया है। फिर भी पाश्चात्य विद्वानों का निरन्तर लगन , परिश्रम एवं निष्पक्ष प्रतिपादन शैली का ज्ञान इससे होता ही है । पाश्चात्य विद्वानों द्वारा जैनविद्या के क्षेत्र में किये गये प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस योगदान का एक परिणाम यह भी हुआ कि भारत और विदेशों में जैनविद्या के अध्ययन- अध्यापन के लिए स्वस्थ वातावरण तैयार हुआ है। अनेक विदेशी विद्वान् भारत की विभिन्न संस्थाओं में तथा अनेक भारतीय विद्वान् विदेशों के विश्वविद्यालयों में जैनविद्या पर शोध-कार्य करने में संलग्न हैं । विगत तीन दशकों ( 1970 से 2000) में विदेशों में सम्पन्न जैनविद्या के अध्ययन की प्रगति एवं प्रकाशित पुस्तकों का विस्तार से मूल्यांकन किया जाना शेष हैं । विगत दशक में प्रकाशित प्रमुख साहित्य 1-समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा- युवाचार्य महाप्रज्ञ __ जैन विश्वभारती, लाडनूं ,1991 पृष्ठ 165 मूल्य- 25 रूपये । 2-द जैन वे आफ लाइफ- डॉ. जगदीशचन्द्र जैन , द एकेडेमिक प्रेस ,गुडगांव , 1991 , मूल्य 100 रूपये । 3-द जैन पाथ आफ अहिंसा - डॉ. विलास संगवे __ भगवान् महावीर रिसर्च, सेन्टर सोलापुर 1991 , 20 रूपये । 4-श्रावकाचार- जैन कोड आफ कण्डक्ट फार हाउसहोल्डर डॉ. बी के. खडबडी राजकृष्ण जैन चरिटेबल ट्रस्ट नई दिल्ली 1992 , 50 रूपये । 5-जिनवाणी के मोती -दुलीचन्द जैन , जैन विद्या अनुसन्धान प्रतिष्ठान , 18 रामानुज अयर स्ट्रीट , साहुकारपेट , मद्रास , 1993 , 50/ जिन वाणी के मोती सामान्य गृहस्थ के लिए आगम-साहित्य से संकलित बोधप्रद और मार्मिक सूक्तियों का संग्रह है जो मानव जीवन के लिए प्रेरणास्पद उपदेशों से भरापुरा होने से परम उपयोगी बन पड़ा है। सरल और हृदयस्पर्शी सूत्तियाँ सरल और प्रवाहमयी भाषा में अनुवादित होने के प्रत्येक जिज्ञासु पाठक के लिए सहज बोधगम्य है और दैनन्दिन जीवन में उत्साह एवं प्रेरणा देने वाली हैं। 6–महामन्त्र णमोकार वैज्ञानिक अन्वेषण- डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन , बी-5/263 , यमुनाविहार , दिल्ली 1993, 50/-रूपये 7-जयदेव महाकाव्य का शैली वैज्ञानिक अनुशीलन- कु. आराधना जैन, गंज बासौदा (विदिशा ) , 1994 मूल्य 50/-रूपये । 58 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8-आचारांगभाष्यम् ( मूलपाठ संस्कृत भाष्य, हिन्दी अनुवाद , तुलनात्मक टिप्पण , सूत्र-भाध्यानुसारी विषय- विवरण , वर्गीकृत विषय- सूची तथा विविध परिशिष्टों से समलंकृत )- आचार्य महाप्रज्ञ , जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं 1994 मूल्य 300/-रूपये ।। 9-लाइफ इन ए एंशियन्ट इंडिया एज डिपिक्टेड इन प्राकृत लिटरेचर -प्रो. के. कमला , प्राकृत अकादमी , 16 तुलजागुडा , मोजामजाही मार्केट , हैदराबाद , 10-प्राकृत वाक्यरचना बोध : युवाचार्य महाप्रज्ञ , सम्पादक – मुनि श्रीचन्द कमल जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं ( राज) 1991 , 100/-रूपये । 11-परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी -डॉ. के. आर. चन्द्रा प्राकृत जैन विद्या विकास फंड , अहमदाबाद ., 1995, 50 रूपये 12-निग्रंथ ( प्रवेशांक ) संपादक --एम. ए. ढाकी एवं जितेन्द्र शाह , शारदा बेन चिमनभाई एज्यूकेशनल रिसर्च सेन्टर , अहमदाबाद 1995 13-अपभ्रंश का जैन रहस्यवादी काव्य और कबीर - डॉ. सूरजमुखी जैन : कुसुम प्रकाशन आदर्श कालोनी , मुजपफरनगर 1996 ; 200 रूपये 14-भद्रबाहु -चाणक्य चन्द्रगुप्त कथानक एवं कल्किवर्णन , महाकवि रइधू, डॉ. राजाराम जैन , श्री दिगम्बर जैन युवक संघ , मूल्य 25 रूपये 15-अपभ्रंश अभ्यास सौरभ – डॉ. कमलचन्द सोगानी ; अपभ्रंश साहित्य अकादमी 85/रूपये 1996 16-जैन न्याय की भूमिका -डॉ. दरबारीलाल कोठिया , श्रीमहावीर जी (राज.) 1995 17-32 परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराज की प्रेरणा से स्थापित आचार्य शान्तिसागर छाणी ग्रन्थमाला , बुढ़ाना एवं प्राच्य श्रमण भारती मुजपफरनगर तथा अन्य प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित साहित्य - 1.सराक जैन क्षेत्रों का सर्वेक्षण समीक्षात्मक अध्ययन - -डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल 2.तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग -1-4 -डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री 3.मानवता की धुरी – नीरज जैन 4.समाज निर्माण में महिलाओं का योगदान - डॉ. नीलम जैन 5.जिन खोजा तिन पाइयाँ - डॉ. राजाराम जैन प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. भारतीय वांगमय में पार्श्वनाथ विषयक साहित्य डॉ. जय कुमार जैन पं. सुमेरूचन्द दिवाकर 7. जैन शासन 8. प्रमेय कमल मार्तण्ड परिशीलन प्रो. उदयचन्द जैन 9. मध्यकालीन जैन सट्टक नाटक डॉ. राजाराम जैन 10. जैन धर्म – पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री 11. जैन विज्ञान राष्ट्रीय संगोष्ठी प्रा. निहालचन्द जैन 12. षट्खण्डागम लेखन कथा डॉ. राजाराम जैन 13. स्मारिका - आचार्य कुन्दकुन्द राष्ट्रीय संगोष्ठी सरधना 14. स्मारिका - आचार्य समन्तभद्र संगोष्ठी मेरठ 15. जैन न्याय का आचार्य अकलंकदेव का अवदान ( संगोष्ठी ) 16. तिलोयपण्णत्ती भाग 1-3 आर्यिका विशुद्धमति माता जी सम्पर्कसूत्र अध्यक्ष - 60 - - - संघी प्रकाशन, सी -117, महावीर मार्ग, मालवीय नगर, जयपुर 302017 के प्रमुख प्रकाशन 33 - जैनधर्म और जीवन मूल्य - डॉ. प्रेम सुमन जैन 1990, मूल्य 150 34- प्राकृत कथा साहित्य परिशीलन - डॉ. प्रेम सुमन जैन, 1992, 180 / 35- प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृति - डॉ. प्रेम सुमन जैन, 1994, 190/ 36- जैन साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका • डॉ. प्रेम सुमन जैन, 1995, 225 / 37- पर्यावरण-संतुलन एवं शाकाहार डॉ. प्रेम सुमन जैन, 1995, 150/ प्राच्य श्रमण भारती, श्री महावीर टायर एजेन्सीज जी. टी. रोड. खतौली ( मुजपफरनगर ) 251201 अन्य प्रकाशन 38- जैनधर्म का सरल परिचय- बलभद्र जैन, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, 1996 पृष्ठ 282 मूल्य 200 / 39- जैन सिद्धान्त भास्कर The Antiquary, vol. 50-51 - प्राच्य दुर्लभ पाण्डुलिपि विशेषांक 2- सं. डॉ. ऋषभ चन्द्र फौजदार डी. के. जैन ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट आरा रूपये 200/ 20 / रूपये 25/- रूपये 40- अष्टपाहुड चयनिका – डॉ. कमलचन्द सोगाणी । 1996 41- आचारांग चयनिका -डॉ. कमलचन्द सोगानी, 1998 #2 " ; प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42-Arhat Parsva and Dharanendra Nexus : Ed. M.A. Dhaky. __L. D. Institute of Indology . Ahmedabad: 1997. Rs. 400\43-प्राकृत स्वयं शिक्षक - डॉ . प्रेम सुमन जैन , 1998 , 50/-रूपये 44- The Samdesarasaka --Abdul Rahaman ; Tr. by S.M. Mayrhofer : __Motilal Banarasidass , Delhi 1998 P.16 +259 : Rs. 400 45-जैन धर्म के आद्य प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव - डॉ. संगीता मिश्रा ; भारती निकेतन , अयोध्या , फैजाबाद , 1996 ई. , 50 रूपये । 46–श्रीवाग्भटविरचित नेमिनिर्वाणम् ; एक अध्ययन डॉ. अनिरूद्ध कुमार शर्मा , सन्मति प्रकाशन , मुजफ्फरनगर , मूल्य 350/- 1998 ई. 47-53-महाबंधो पुस्तक 1-7 भाग -पं. सुमेरू चन्द्र दिवाकर , संपा. -डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री , भारतीय ज्ञानपीठ , नई दिल्ली , 140/ 54-इतिहास के अनावृत्त पृष्ठ जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज सुशील मुनि आचार्य सुशील आश्रम , डिफैंस कालोनी , नई दिल्ली ; 1999 , 20/ 55-मुक्कुडै (वर्ष 26 अंक 2 अगस्त 1999) - श्री डी. सम्पतकुमार ; जैन यूथ फोरम , 3 बोग रोड़ चेन्नई 600017 56-अनेकान्तदर्पण ( प्रवेशांक 1999 ई.) __अनेकान्त ज्ञान मन्दिर शोध संस्थान , बीना -470113 ; 57-इसिभासियाई का प्राकृत-संस्कृत शब्दकोश - डॉ. के. आर. चन्द्रा ; प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी , अहमदाबाद 1998 60/-रूपया 58-युगप्रधान आचार्य जिनदत्तसूरि का जैनधर्म एवं साहित्य में योगदान , डॉ. स्मितप्रज्ञा श्रीविचक्षण स्मृति प्रकाशन, अहमदाबाद ; 1999 150/ Some English Publications 1- Gommatesa-Thudi--. Dr. B.K. Khadabadi, Kundkund Bharti, New Delhi, 1990 , Rs.20.00 2-- Bibliography of Prakrit and Jain Research ,-Dr.Kapoor Chand Jain , ___Shri Kailash Chand Jain memorial Trust , Khatauli- 1991 , Rs.60/3- The Clever Adulteress and other Stories - Dr. Phyllis Granoff, Mosaic Press , Oakville, Ontaria , L6J5E9, Canada, 1990 4-. Medieval Jainism : Culture and Environment -Dr. P.S. Jain & Dr. R.M. Lodha, Asjish Publishing House 8@81 Punjabi Bagh , New Delhi, 1990, प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5-.INDIA AS KNOWN TO HARIBHADRASURI -Dr. Ram Sajiwan Shukla ; 41-A, Sardar Club Scheme, Jodhpur ;1989 Rs 150 6-- The Jaina Path of Purification,--- PADMANABHA S. JAINI Motilal Banarsidass, Delhi 1979 Rs.200.00 7--Jainthology, Ganesh Lalwani Jain Bhawan P-25 Kalakar Street, Calcutta- 7 1991 Rs. 100.00 8-. Keuro-Science & Karma: the Jain Doctrine of Psycho-physical Force; - J.S. Zaveri & Muni Mahendra Kumar, Jain Vishva Bharti Institute, Ladnun; 1992, Rs.100\9-BHAVA PAHUDA, -Ajit Prasad, Lucknow, 1992 Rs.50.00 10--On Rahanemi - Dr. B.K. Khadabadi, Prakrit Bharti Academy, Jaipur-302003, 1993 Rs.20\11 -Jainism and Mahavira, Dr. Bhag Chandra Bhaskar, Digamber Jain Sahitya Sanskriti Samarkhshan Samiti D-302, Vevek Vihar, Delhi- 110095 1993 Rs.30\12-.A Tresaury of Jain Tales, V.M. Kulakarni, Shardaben Chimanbhi Educational Research Centre, Ahmedabad 380004,1994, Rs.2001 13-. A Treasury of Jain Tales, --V.M. Kulkar ni (ed) Sharaben Chimanbhai Educational Research Centre, Ahmedabad, 1994, Rs. 200.00 14- Stories from Jainism, --Muni Shree Mirgendra Muni maharaj, Jain Yoga Foundation 89 Marine Drive Bombay,1994 15-- Hindi Jaina Katha Sahitya, Satya Praksah Jain - Sri Parsvanatha Digambra Jaina Mandira, Sabji Mundri, Delhi- 110006,1993 16- Sattaka Literature -Chandramouli S. Naikar, Medha Kalyam Nagar, Dhariwad, Karnatak, 1993 Rs. 125.00 17--. Role of Space - Time in Jaina's Syadvada and Quantum Theory, --FILITA BHARUCHA - Satguru Publications of Indian Books Centre.Shakti Nagar Delhi, 1993 Rs. 120 62 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. --Purana Perenius Reciprocity and Transformation in Hindi and Jaina Texts, --WENDY DONIGE (ed) Delhi, 1993 Rs.300 19 - Religion and Philosophy of the Jainas, Vichand Raghavji Gandhi - Nagin J Shah , Jain International, Ahmedabad, 1993 Rs. 80 20-- Cyclopaedia of Yoga ( Yoga- Kosa), Srichandra Chorariya (ed)-- ---Jain Darsan Samiti 16 c Dover Lane , Calcutta, 1993 Rs. 100 21-. Prakata Bhasa evam Sahitya --Prem Suman Jain, Prakrit Janana Bharati Education Trust Bangalore, 1993 Rs. 140 22-.Jaina Dharma and Jivana Mulya , Prem Suman Jain, Sanghi Prakasana , Malaviya Nagar Jaipur 1990 Rs.90.00 23-.A Study of the Bhahwati sutra , a chronological analysis Prakrit Text Society, Ahmedabad 1994 Rs. 130.00 24-. Riches and Renunciation : Religion Economy and Society among the jains , --James Laidlaw Oxford , Clarendon Press , 1995 Prakrit Bharti Akadami , Malviya nagar , Jaipur Publications 25-. Philosophy And Spirituality of Srimad Rajchandra , --U.K. Pungalia ;- 1996 Rs. 180/26-. Studies in Jainology, Prakrit Literature and languages; , --Dr. B.K.Khadabadi ; 1997 Rs.300/27-.Best Jain Stories, Upadhaya Shri Pushkarmunji ji --Translator - Surendra Bothara; 1997 Rs.110/28-.Jainism In India ---Ganesh Lalwani, 1997 Rs. 100/29 - JAINA ACARA , Siddhanta Aur Svarupa --(The Jaina Conduct), -- Devendra Muni , Tr. Dr, Nagar Mal Sahal; 1995 Rs.300/30-.Samansuttam ---: Dr Kamal Chand Sogani , Udaipur 1993 Rs. 75/31-- Jainism In Andhra " As depicted in inscriptions ; ---Dr.G.Jawaharlal ; 1994 Rs.450/32-. THE SCIENTIFIC FOUNDATION OF JAINISN , --Prof K.V. Mardia University of Leeds, U.K Motilal Banarasidass Jawahar Nagar , Delhi , India प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33-. THE CANONICAL NIKSEPA-- Studies in JAINA Dialectics, --Baansidhar Bhatt, Bharatiya Vidya Prakashan, Delhi, 34--. Studies in Jainism,--Ramkrishana Mission Institute of Sulture, Golpark, Calcutta Rs.75.- 35--Pancasaka Prakaranam of Haribhadra Suri, --Dinanatha Sharma, Parsvanatha Vidyapitha Varanasi 1995 Rs.200.00 36--.Jaina Philisophy and Religion, Nagin J. Shah, B. L. Institute if Indology,Delhi 110036, 1998, Rs.450.00 37--.Baudha pramana mimamsa ki Jaina drsti se samiksa --Dharma chand Jain, Parsvanatha Vidyashram, Varanasi-5 Motilal Banarsidass, Delhi Publications 38-. Jaina System of Education, --D.C. Dasgupta, 1995 Rs. 200.00 39-- Jainism A pictorial guide to the Religion on Non Violoence, 40--.Jainsim An Indian Religion of Salvation, Helmuth von Glasenapp, an Engilish transalation (1995),Shridhar B. Shrotri, foreword by S. R. Banerjee, 1998 Rs.250.00 41--. Ascetics and King in a Jain Ritual Culture, Lawerence A.Babb, 1998 Rs. 225.00 42--Kalpasutra text edited --K.C. Lalwani, 1999 Rs. 250.00 43-. Aspects of Jainology, Dr Sagarmal Jain Felicitation, S. P. Pandey Parsavanatha Vidyapitha, Varanasi 1998 Rs. 800.00 44--.Mahabandha 1-7 text edited with indroduction, Hindi translation Bharatiya Janapitha, Delhi, 1998 Rs. 140.00 45--Ritthanemicariya of Svayambhu Part III (2) --,Ram Singh Tomar, Prakrit Text Society. Ahmedabad 1997 Rs.200.00 46--. Pahuda doha of Muni Ramasimha, ed by Devendra Kumar Sastri Bhartiya Jnanapitha Delhi 1998 Rs. 55.00 47-- Paumaccariu of Svayambhu, Kiran Sipani ( Kocar) 48--.Anatanaha Jina Cariyam of Nemichandra Suri, 64 " Svetambar Sthanaka Vasi Jaina Sabha Calcutta 1998 Rs. 150 Text ed by Pt Rupendra Kumar Pagariya, Ahmedabad 1998 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49--. Some Topic in the Developmemt of OIA, MIA, NIA H. C. Bhayani,Ahmedabad 1997 Rs. 75.00 50--. Siri Paumappaha Sami Cariyam of Devasuri - Pt. Rupendra Kumar Pagariya, 1995 Rs. 250.00 51-- Mahansitha Suya Khamdham,--Muni Sri Punyavijaya and Rupendra Kumar Pagariya,, Ahmedabad 1995 52-.Vasuedva Hindi of Sanghadasagani--H.C. Bhayani, Hasu Yagnik, Gujarat Sahitya Akadami Gandhindagar, 1989 Rs. 300.00 53-- Anekantavada as the basis of Equanimity. Tranquility and Systhesis of opposite view points, Parsva Foundation Series No. 4, Ahmedabad,1999 Rs. 100 54--.On the Language of the Satkhandagama Satya Ranjan Banerjee Sri Ganesa Varni Digambra Jaina Samsthana, Nariya Varanasi 1999 Rs. 20.00 55--.Prakrta Vyakarana Pravesika (in Hindi) Satya Ranjan Banerjee Jain Bhawan Calcutta, 1999 Rs. 20.00 56--. Weber's Sacred Literature of the Jains- ed by Ganesh Lalwani and Satya Rajan Banerjee, Jain Bhawan, Calcutta, 1999 57--Jinamanjari, ed Dr. S.A. Bhuvanendra Kumar, Maccasin Trailm Mississauga Canada L4Z 2W5; Rs. 100/58--Biology in Jaina Treatise on Reals,Dr. N. L. Jain : Parsavanatha Vidyapith I.T.I. Road, Varanasi, 1999 Rs. 200/59--. Jainism: A Pictorial Guide to the Religion on Non- violence, --Kurt Titze, Motilal Banarsidass, Delhi 1998 Rs. 2500/60--. Saman Suttam - Compled by Jinendra Varni; ; Eng. Trans - Justice T.K. Tukol and Dr. K.K. Dixit ; Sarva Seva Sangh Prakashan, Rajghat, Varanasi ;Rs. 100/61-. The Doctrine of the Jainas: Described after the Old Sources WALTHER SCHUBRING .295/ 62--. Collected Articles of L.A. Schwarzschild on Indo- Aryan 1953-1979,comploed by Royce Wiles, Faculty of Asian Studies, Australian National University, प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 65 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GPO Box $, Canberra ACT 2601 Australia , 1991 63-- King Sudraka and Hits Drama , --Biswanath Banerjee Orientalia. Collana di Studi Orientali del CESMEO diretta da Irma Piovano. V.Torino. Italy . 1994. price. $ 25. 64--. - Syntactic Studies of Indo - Aryan Languages.-- Sukumar Sen Institute for the study of Languages and Cultures of Asia and Africa. Tokyo University of Foreign Studies. Tokyo, 1995 Some other Publications on Jainism The Chuo Academic Research Institute. Tokyo . presents seven monograph series of books on Jainism under Philologica Asiatica by Morichi Yamazaki and Yumi Ousaka. These Mono. are the following: 65- 1 Dasaveyaliya : Pada Index and Reverse Pada Index. 1994 66--2. Isibhasiyam : Pada Index and Reverse Pada Index. 1994 67--.3. Ayaranga : Pada Index and Reverse Pada Index. 1994 68-- 4. Suyagada : Pada Index and Reverse Pada Index. 1995 69-- 5. Uttarajjhayana : Pada Index and Reverse Pada Index. 1995 70-- 6. Dasaveyaliya : Word Index and Reverse Word Index. 1996 71-- 7 .Isibhasiyaim : Word Index and Reverse Word Index. 1996 72-- A Pada Index and Reverse Pada Index to Early Jain Canons , 1995 73-- Franz Steiner Verlag presents Williem B. Bollee - Materials for an edition and study of the Pinda- And Oha- Nijjuttis of the Svetambra Jain Tradition. Vol I Pada Index and Reverse pada Stuttagart. 1991 pp 160 Vol II Text and Glossary Stuttgart ,1994 pp 418 74-- Uttarajjhaya Word Index and Reverse Word Index, M Yamazaki Y. Ousaka . Philologica Asiatica , Moonograph Series II 30 "x 20" pp 302 Tokyo .1997 75-- Doha giti Kosa of Sarahapada and Carya - giti-kosa of variouss Siddhas.---. H. C. Bhayani . Prakrit Text Society, Ahmedabad. 1997 76---Jaina Theory of Multiple Facets of Reality and Truth , NJ. Shah (ed) ( Anekantavada), Motilal Banarsidass , 1999 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77-- Hampa Nagarajaih --Jaina Parsva Templies in Karnataka , Shimoga ,1999 pp XX + 104. 78-- S. I. Nagar _- Jaina Sculptures in Indian and world Museums. New Delhi ,2000 pp.XXI + 188 + 169 plates. 79-- Acharya Yogindu's Yog- Saar -- by Shri Dasrath jain ; Arihant Internationa ,Delhi - 1998 , Rs. 100/ - 80-- Pearls of Jaina Wisdom -- by Sri Duli Chand Jain, __Research Foundation for Jainology , Chennai ; 1997 , Rs. 120/81---Springs of Jaina Wisdom -- by Sri Duli Chand Jain; Research Foundation for Jainology, Chennai ;1999 pp Rs. 30/82-- Introduction to Prakrit Literature by Dr. Prem Suman Jain National Institute of Prakrit Studies & Research, Shravanabelagola ,( Karnataka ) India , 1993 Rs. 40/ प्रमुख कतिपय अभिनव प्रकाशन 1-तमिलनाडु का इतिहास - पं. मल्ल्निाथ शास्त्री मद्रास 1995 कुन्दकुन्द भारती दिल्ली 110067 100/-रूपये 2- जैन आगमों का दार्शनिक एवं सांस्कृतिक विवेचन डॉ. पारसमणि खीचा , जनमंगल संस्थान, उदयपुर 1999 , 250/ 3-जैन धर्म और दर्शन – मुनि प्रमाण सागर जी महाराज , श्री दिगम्बर साहित्य प्रकाशन समिति बरेला , जबलपुर ( म. प्र. ) 1998 4-जैन न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान , डॉ. कमलेश जैन प्राच्य श्रमण भारती मुजपफरनगर (उ. प्र.) 1999 5- हिमालय में दिगम्बर मुनि - पं. पदमचन्द शास्त्री , श्री कुन्दकुन्द भारती ,नई दिल्ली 1995 मूल्य 25/-रूपया 6- THE LAYER GANGAS : MANDALLI -THOUSAND - Dr. Nagarajaiah Ankit Pustaka , Bangalore -1999 Rs.200/7- JAINA CORPUS OF KOPPALA INSCRIPTIONS X-RAYED, - Dr. Nagarajaiah , Hampa , Ankit Pustaka 53, Shamsingh Complex, Gandhi bazar Main Road Basavanagudi , Bangalore -1999 Rs.125/ प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8- JINA PARSVA TEMPLES IN KARANATAKA - Dr. Nagarajaiah, Hampa Hornbuja Jaina Matha HOMBUJA, Shimoga, Karanataka, 1999 Rs. 150/9-Studies in Jainism edited by Dr. Dulichand Jain, Jain Study Circle, Inc .99-11 60 Avenue # 3D Flushing, New York, 11368, USA 1997 10- Studies In Jainism : Reader - 1 edited by Dr. Dulichand Jain Jain Study Circle, Inc .99-11 60 Avenue, # 3D Flushing, New York, 11368, USA 1997 11- Studies In Jainism: Reader -2 edited by Dr. Dulichand Jain Jain Study Circle, Inc .99-11 60 Avenue, # 3D Flushing, New York, 11368, USA 1997 इस साहित्य सूची में कई प्रकाशनों के नाम जुड़ने में छूट गये हैं । प्राकृत और जैन धर्म की अनेक पुस्तकें व्यक्तिगत एवं किसी छोटे स्थान से भी प्रकाशित हुई हैं। अनेक पुस्तकें ऐसी हैं जो समीक्षा आदि में स्थान नहीं पा सकीं। प्रादेशिक भाषाओं में प्रकाशित होने वाला साहित्य भी सभी विद्वानों की दृष्टि में नहीं आ पाता है । अतः विगत दशक के प्रकाशित जैन साहित्य की एक बृहत् सूची बनाने का प्रोजेक्ट पूरा किया जाना एक उपयोगी कार्य होगा । सारस्वत संतों / विद्वानों का विछोह विगत दशक में प्राकृत एवं जैनविद्या के अध्ययन-अनुसंधान के क्षेत्र सं गहरायी से जुड़े हुए कतिपय विद्वान् एवं सन्त दिवंगत हुए हैं। उनकी सारस्वत कमी को लम्बे समय तक पूरा नहीं किया जा सकेगा। ऐस विद्वानों / सन्तों में आचार्य आनन्द ऋषि आचार्य तुलसी आचार्य देवेन्द्र मुनि आचार्य 68 7 " विमलसागर, आचार्य नानेश, तथा पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री प्रो. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. नथमल टाटिया, प्रो. दरबारी लाल कोठिया पं. बलभद्र जैन, डॉ. नरेन्द्र भानावत, डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, प्रो. दलसुख भाई मालवणिया आदि प्रमुख हैं । इन सभी दिवंगत सरस्वतीपुत्रों को सादर स्मरणपूर्वक नमन है । f # " प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो. प्रेम सुमन जैन जन्म : 1 अगस्त, 1942 सिहुँडी, , जबलपुर , म. प्र. कटनी, वाराणसी, वैशाली एवं बोधगया में संस्कृत, पालि , प्राकृत , जैन धर्म तथा भारतीय संस्कृति का विशेष अध्ययन / कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन विषय पर पीएच. डी..। अब तक 35 पुस्तकों का लेखन-सम्पादन एवं लगभग 150 शोधपत्र भी प्रकाशित। सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष पद पर कार्यरत। देश-विदेश के विभिन्न सम्मेलनों में शोधपत्र-वाचन। 1984 में अमेरिका एवं 1990 में यूरोप-यात्रा के दौरान विश्वधर्म सम्मेलनों में जैन दर्शन का प्रतिनिधित्व एवं जैनविद्या पर विभिन्न व्याख्यान सम्पन्न। सम्प्रति प्राकृत-अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन-कार्य में संलग्न। प्राकृत-अध्ययन प्रसार संस्थान , उदयपुर के मानद निदेशक एवं त्रैमासिक शोध-पत्रिका प्राकृतविद्या के संस्थापक सम्पादक। चम्पालाल सांड साहित्य पुरुस्कार 92 , प्राकृत ज्ञानभारती अवार्ड 93, आचार्य हस्ती स्मृति सम्मान 97 आदि से सम्मानित / अ. भ. प्राच्य विद्या सम्मेलन के चैन्नई अधिवेशन 2000 में प्राकृत एवं जैनधर्म खण्ड के अध्यक्ष / यू. जी. सी. द्वारा सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर में स्थापित बौद्ध अध्ययन एवं अहिंसा केन्द्र के मानद निदेशक। चौधरी ऑफसेट प्रा.लि. (0294) 584071, 485784 सम्पर्क : 29, विद्याविहार कालोनी, उत्तरी सुन्दरवास उदयपुर -313001 फोन : 490227