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________________ की पत्रिका की महती भूमिका है। प्राकृत विद्या नामक त्रैमासिक पत्रिका उदयपुर से इसी उद्देश्य से प्रकाशित की गयी। अब दिल्ली से प्रकाशित हो रही है । 21 वीं सदी में प्राकृत के अध्ययन की क्या दिशाएं हों एवं उनके प्रति समाज का व विद्वानों का कितना और कैसा रुझान होगा यह कह पाना कठिन है । केवल आशावादी एवं आदर्शवादी बनने से प्राकृत अध्ययन विकसित नहीं हो जायेगा । इसके लिए प्राकृत भाषा के शिक्षण के प्रति जनमानस में रूचि जागृत करना आवश्यक है । विश्वविद्यालयों में जो प्राकृत का शिक्षण हो रहा है उसमें समाज के घटकों की भागीदारी न के बराबर है । साधु-सन्त, स्वाध्यायी बन्धु एवं समाज का युवावर्ग प्राकृत- शिक्षण से दूर हैं। विगत वर्षो में प्राकृत-शिक्षण के कुछ वर्कशॉप सरकारी स्तर पर सम्पन्न हुए है। उनमें विद्यार्थी तो दूर - प्राकृत के विद्वान् भी अपना पूरा समय नहीं दे पाये । जैसे चौबीस तीर्थकरों के इर्दगिर्द जैनविद्या की परम्परा घूमती है, वैसे ही समाज में कुछ सुनिश्चित विद्वान् हैं, वे हर समारोह, संगोष्ठी व्याख्यान सम्मेलन में आते-जाते रहते हैं । वे हर विषय के विशेषज्ञ माने जाते हैं, अतः उनकी किसी एक विषय के लिए प्रतिबद्धता नहीं है । कोई गहन स्थायी महत्व का कार्य उनके द्वारा सम्पन्न नहीं हो पाता। वे विद्वान समाज से मात्र सजावट व प्रदर्शन के लिए काम आ रहे हैं। यह प्रवृत्ति जब रुकेगी तभी प्राकृत - अध्ययन के लिए कुछ ठोस हो सकेगा । उनके द्वारा पहला कार्य यह होना चाहिए कि वे प्राकृत शिक्षण-शिविर के अधिष्ठाता बनें । 10-15 दिनों के 4-6 शिविर भी प्राकृत-शिक्षण के यदि आयोजित हुए तो प्रतिवर्ष लगभग सौ जिज्ञासु - प्राकृत के तैयार हो सकते हैं । इन्ही में से फिर प्राकृत की प्रतिभाएं खोजकर उन्हें 21 वीं सदी के लिए प्राकृत के विद्वान् बनाया जा सकता है I , 127 प्राकृत-अध्ययन के विकास के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। श्रमणविद्या संकाय की श्रमणविद्या पत्रिका (1983) में प्राकृत के मनीषी डा. गोकुलचन्द जैन ने अंग्रेजी में प्राकृत एवं जैनविद्या के उच्चस्तरीय अध्ययन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। प्राकृत की संगोष्ठियों की संस्तुतियां भी प्रकाश में आयी हैं । प्राकृत विभागों के व्यावहारिक अनुभवों ने भी प्राकृत - शिक्षण की कुछ दिशाएं तय की हैं । इन सबके मन्थन से यदि कुछ निष्कर्ष निकाले जाय तो 21 वीं सदी में प्राकृत अध्ययन के लिए निम्न प्रमुख कार्यो की प्राथमिकताएं तय की जा सकती हैं । इनमें से जिस संस्था व्यक्ति विद्वान्, सरकारी प्रतिष्ठान व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को जो अनुकूल लगे उस पर अपना योगदान कर सकता है | Jain Education International J " For Private & Personal Use Only प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन www.jainelibrary.org
SR No.003677
Book TitlePrakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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