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प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन (20 वीं सदी के अंतिम दशक में )
अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं । पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोदहिं सिरसा ।।
जो अरहंत द्वारा प्रतिपादित अर्थ गणधर देवों द्वारा शब्द-रूप में भली प्रकार से रचा हुआ है, उस श्रुतज्ञानरूपी महासमुद्र को भक्ति - सहित मैं सिर से प्रणाम करता हूँ ।
The meaning revealed by the Arahanta ( emboided spiritually perfect personality) has been properly worded by the Ganadharas (chief disciples of the Arahanta). So by bowing my head with devotion. I make obeisance to the ocean of (worded) scriptural knowledge.
भारत भूमि की इस सांस्कृतिक नगरी चेन्नई में आयोजित अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के इस चालीसवें अधिवेशन में उपस्थित आदरणीय विद्वान मित्रो और जिज्ञासु स्वाध्यायप्रेमी भाईओ और बहनो ! आप सब का इस प्राकृत एवं जैनधर्म विभाग में हार्दिक स्वागत है ।
प्राचीन सांस्कृतिक गौरव से समृद्ध इस तमिलनाडु प्रदेश में जैन धर्म सुदीर्घकाल तक पल्लवित और पुष्पित हुआ है । जैनधर्म के परम साधक और विद्वान हजारों साधुगणों ने इस तमिल प्रान्त को अपने विहार से पवित्र किया है । प्राकृत के समर्थ प्राचीन आचार्य कुन्दकुन्द की तपोभूमि भी इस प्रदेश में रही है जो आज पोन्नूरमलै के नाम से जानी जाती है । प्राचीन समय में चेर, चोल, पाण्डव और पल्लव नरेशों ने जैन धर्म के विकास में अपना विशेष योगदान किया था । जैन धर्म की काशी इस तमिल भूमि में समन्तभद्र पूज्यपाद अकलंक, सिंहनंदी जिनसेन वीरसेन और माल्लिसेन जैसे महान् जैनाचार्यो ने अपने साहित्य का सृजन किया है। जैन संतों और जैन धर्म के सम्बन्ध में अनेक शिलालेख भी इस भूमि से प्राप्त हुए हैं । अतः तमिल प्रदेश की भाषा, संस्कृति और चिंतन के विकास में जैन धर्म की महती भूमिका रही है । समता और अहिंसा के सन्देश से जैनाचार्यो के ग्रन्थों और उपदेशों से इस तमिलनाडु प्रदेश को सिंचित किया जाता रहा है । अतः यह सुखद संयोग भी है कि इस बीसवीं
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प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन
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