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________________ मुद्राएँ अंकित करवायीं । ई. पू. 300 से लेकर 400 ईस्वी तक इन सात सौ वर्षों में लगभग दो हजार लेख प्राकृत में लिखे गये हैं। यह सामग्री प्राकृत भाषा के विकास-क्रम एवं महत्व के लिए ही उपयोगी नहीं है . अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए भी महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। . अभिव्यक्ति का माध्यम : प्राकृत भाषा क्रमशः विकास को प्राप्त हुई है। वैदिक युग में वह लोकभाषा थी । उसमें रूपों की बहुलता सरलीकरण की प्रवृत्ति थी। महावीर युग तक आते-आते प्राकृत ने अपने को इतना समृद्ध और सहज किया कि वह अध्यात्म और सदाचार की भाषा बन सकी। इससे प्राकृत के प्रचार -प्रसार में गति आयी। वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी। इसीलिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्व प्राप्त हुआ। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में प्रतीत होता है कि प्राकृत भाषा गाँवों की झोपड़ियों से राजमहलों की सभाओं तक समादृत होने लगी थी , अतः वह अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम चुन ली गयी थी। महाकवि हाल ने इसी समय प्राकृत भाषा के प्रतिनिधि कवियों की गाथाओं का गाथाकोश ( गाथासप्तशती ) तैयार किया , जो ग्रामीण जीवन और सौन्दर्य-चेतना का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। प्राकृत भाषा के इस जनाकर्षण के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया। नाटक समाज का दर्पण होता है। जो पात्र जैसा जीवन जीता है, वैसा ही मंच पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है। समाज में अधिकांश लोग दैनिक जीवन में प्राकृत भाषा का प्रयोग करते थे। अतः उनके प्रतिनिधि पात्रों ने भी नाटकों में प्राकृत के प्रयोग से अपनी पहिचान बनाये रखी। अभिज्ञानशाकुन्तलं की ऋषिकन्या शकुन्तला , नाटककार भास की राजकुमारी वासवदत्ता , शूद्रक की नगरवधू वसन्तसेना तथा प्रायः सभी नाटकों के राजा के मित्र , कर्मचारी आदि पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जनसमुदाय की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी । वह लोगों के सामान्य जीवन की अभिव्यक्ति करती थी। इस तरह प्राकृत ने अपना नाम सार्थक कर लिया था। प्राकृत स्वाभाविक वचन-व्यापार का पर्यायवाची शब्द बन गया था। समाज के सभी वर्गों द्वारा स्वीकृत भाषा प्राकृत थी। इस कारण प्राकृत की शब्द सम्पत्ति दिनोंदिन बढ़ रही थी। इस शब्द-ग्रहण की प्रक्रिया के कारण एक ओर प्राकृत ने भारत की विभिन्न भाषाओं के साथ अपनी धनिष्ठता बढ़ायी तो दूसरी ओर वह जीवन और साहित्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गयी। प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003677
Book TitlePrakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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