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________________ प्रतिशत भी प्रकाश में नहीं आ पाये हैं । विदेशों में जैनविद्या की जो लगभग 65 थीसिस प्रस्तुत हुई हैं , उनमें 33 प्राकृत-अपभ्रंश की हैं और फ्रेंच एवं जर्मन आदि भाषाओं में उनमें से 25 शोध- प्रबन्ध प्रकाशित भी हो गये हैं । किन्तु उनका उपयोग भारतीय जैन विद्वानों के लिए करना असम्भव सा है। क्योंकि फ्रेंच, जर्मन , अंग्रेजी आदि में कार्य करने और उसका उपयोग करने की सुविधा यहां बहुत कम है। प्राकृत साहित्य में से अर्धमागघी आगम साहित्य के 45 ग्रन्थ, उनकी टीका साहित्य के लगभग 25 ग्रन्थ , शौरसेनी आगम–परम्परा और आचार्यों के 50-55 ग्रन्थ , प्राकृत के 8 महाकाव्य , 5 खण्डकाव्य, 22--24 चारितकाव्य , 15-16 मुक्तककाव्य . 8 सट्टक, 30-32 कथाग्रन्थ , व्याकरण एवं छन्द आदि फुटकर साहित्य के 30-35 ग्रन्थ ही अभी तक प्रकाशित हो पाये हैं । किन्तु इनमें से कई अनुपलब्ध हो गये हैं। प्रकाशित सभी प्राकृत ग्रन्थ , अपभ्रंश ग्रन्थ किसी एक पुस्तकालय में उपलब्ध भी नहीं हैं | 21 वीं शताब्दी के अध्ययन के लिए अब तक प्रकाशित प्राकृत- अपभ्रंश के समस्त ग्रन्थ किसी एक पुस्तकालय में उपलब्ध कराना आवश्यक है। इसके लिए आधुनिक उपकरणों का उपयोग भी किया जा सकता है। ज्ञात हुआ है कि अर्धमागधी के सम्पूर्ण आगमों को कम्प्यूटर में भरने की योजना तैयार की जा रही है। इसी तरह प्राचीन पाण्डुलिपियों का सूचीकरण भी कम्प्यूटर फीडिंग के माध्यम से किया जा सकता है। इन कार्यो में जो संस्थान व कार्यकर्ता आगे आयेंगे , 21 वीं सदी का प्राकृत अध्ययन उनके सहारे ही चलेगा। __21 वीं सदी में प्राकृत अध्ययन की प्रगति का प्रमुख आधार धर्म एवं सम्प्रदाय न होकर प्राकृत साहित्य का भाषात्मक एवं सांस्कृतिक वैशिष्ट्य होगा । प्राकृत भाषा की समृद्धि में जैन परम्परा के कवियों एवं आचार्यों का प्रमुख योगदान अवश्य रहा है। किन्तु जनभाषा होने के कारण प्राकृत भाषा भारतीय भाषाओं के विकास की धुरी है। संस्कृत साहित्य का अध्ययन प्राकृत के बिना अधूरा है। संस्कृत नाटकों में 60 प्रतिशत से अधिक प्राकृत का प्रयोग है। संस्कृत काव्यग्रन्थों के उदाहरण प्रायः प्राकृत की गाथाओं द्वारा दिये गये है। संस्कृत भाषा व शब्दकोश में प्राकृत से बने हजारों शब्द समाहित हैं । यही स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं की है। अतः प्राकृत के शोध का अब नया क्षेत्र प्राकृत का भाषात्मक अध्ययन होगा । इस दिशा में देश-विदेश के विद्वानों ने जो कार्य किया है , उसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता है । प्राकृत भाषाओं का वृहत् व्याकरण ग्रन्थ तैयार किये जाने की आवश्यकता है , जिसे विद्वानों की कोई टीम 10 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003677
Book TitlePrakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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