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________________ विगत पचास वर्षो में प्राकृत अध्ययन का जो विवरण विद्वानों के सामने उपस्थित हुआ है, उसे उजागर करने में प्राच्यविद्या सम्मेलन के जैनधर्म एवं प्राकृत सेक्शन का विशेष योगदान है। इसमें सम्मिलित होने वाले विद्वानों ने प्राकृत - अध्ययन को गति प्रदान की है। 1968 से प्राकृत सेमिनार भी यू. जी. सी के सहयोग से लगातार 5-6 विश्वविद्यालयों में हुए । उनके लेखों ने प्राकृत के महत्व को रेखांकित किया। इसी बीच कुछ विश्वविद्यालयों में जैनधर्म एवं प्राकृत की पीठ एवं विभाग स्थापित हुए। साथ ही पालि एवं संस्कृत विभागों के साथ भी प्राकृत का शिक्षण प्रारम्भ हुआ । वैशाली के प्राकृत शोध संस्थान ने प्राकृत के अध्ययन को कुछ जागृति प्रदान की। कुछ शोध - संस्थानों एवं प्रकाशकों ने प्राकृत के ग्रन्थों को मूल अथवा अनुवाद के साथ प्रकाशित किया । विश्वविद्यालय में प्राकृत के ग्रन्थों पर शोधकार्य सम्पन्न हुए । इन सब साधनों एवं प्रयत्नों में प्राकृत अध्ययन एक स्वतन्त्र विषय के रूप में उभर कर सामने आया है। इस सबका लेखा-जोखा भी विद्वानों ने समय-समय पर प्रस्तुत किया है। प्राकृत अध्ययन की इस प्रगति का परिणाम है कि आज जो हमारे देश में जैन विषय की लगभग तीन लाख पाण्डुलिपियां ग्रन्थभण्डारों में सुरक्षित होने का अनुमान है, उनमें से पचास हजार के लगभग पाण्डुलिपियां प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों की है। एक ग्रन्थ की विभिन्न पाण्डुलिपियां पायी जाती है, फिर भी यदि सूचीकरण किया जाय तो लगभग 600 प्राकृत के एवं 200 अपभ्रंश के कवि / लेखक / आचार्य अब तक हुए हैं, जिनकी लगभग दो हजार कृतियां (मूलग्रन्थ ) ग्रन्थ - भण्डारों में उपलब्ध हैं । इनमें से प्राकृत के अभी तक लगभग 300 ग्रन्थ एवं अपभ्रंश के 65-70 ग्रन्थ ही सम्पादित होकर प्रकाश में पाये हैं । लगभग पिछली पूरी शताब्दी के दिग्गज विद्वानों के प्रयत्नों से जब प्राकृत का अध्ययन इतना हो पाया है, तो शेष ग्रन्थों को प्रकाश में लाने हेतु 21 वीं शताब्दी का समय पर्याप्त नहीं है । पांडुलिपियों के सर्वेक्षण सूची - करण और सम्पादन के कार्य में लगने वाले विद्वानों का अभाव ही हो रहा है, प्रादुर्भाव नहीं । ऐसी स्थिति में अब पूरे देश में प्रतिवर्ष प्राकृत - अपभ्रंश के नये सम्पादित ग्रन्थों के निर्माण और प्रकाशन की संख्या पाँच से ऊपर नहीं है। यह स्थिति प्राकृत के प्रेमी विद्वानों, प्रकाशकों एवं समाज - नेताओं को आत्म-निरीक्षण की ओर प्रेरित करे यही भावना है । · भारत के विश्वविद्यालयों में जो जैनविद्या पर शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत हुए हैं, उनकी संख्या लगभग 600 तक पहुँच गयी हैं । इनमें प्राकृत के लगभग 90 शोध-प्र - प्रबन्ध हैं एवं अपभ्रंश के 60 | इन शताधिक शोध-ग्रन्थों में से अभी पचास प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003677
Book TitlePrakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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