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________________ भी विचारक हैं ,जो उस आचरण को आचार कहते हैं , जो सांसारिक दुःखों को दूर करने में सहायक हो तथा जिससे आध्यात्मिक उपलब्धि हो । वस्तुतः जैनधर्म की आचार-संहिता इसी विचारधारा से सम्बन्ध रखती है। आचार्य कुन्दकुन्द का यह कथन कि चारित्तं खलु धम्मो ( चारित्र ही धर्म है ) तथा दशवैकालिकसूत्र की यह उक्ति कि अहिंसा , संयम और तप से युक्त धर्म उत्कृष्ट मंगल है जैनधर्म की उसी मूल भावना को प्रकट करते हैं , जिनमें आचार को अध्यात्म-प्राप्ति का साधन माना गया है ; अतः जैन आचार- संहिता केवल नैतिक नियमों से सम्बन्धित नहीं है , तत्वज्ञान और अध्यात्म से भी वह जुड़ी हुई है। व्यावहारिक दृष्टि से जैन आचार संहिता जहाँ एक ओर व्यक्ति और समाज को नागरिक गुणों से युक्त करती है , वहीं दूसरी ओर पारमार्थिक दृष्टि से वह उनका मुक्तिमार्ग प्रशस्त करती है । वस्तुतः जैन आचार संहिता में व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जीवन-पद्धति का समन्वय है। मानवता का मल्यांकन : जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रतिपादन से यह स्पष्ट हुआ कि आत्मा ही अच्छे बुरे कर्मो की केन्द्र है। आत्मा मूलतः अनन्त शक्तियों की केन्द्र है। ज्ञान और चैतन्य उसके प्रमुख गुण हैं ; किन्तु कर्मो के आवरण से उसका शुद्ध स्वरूप छिप जाता है। जैन आचार संहिता प्रतिपादित करती है कि व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य आत्मा के इसी शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना होना चाहिये ; तब यही आत्मा परमात्मा हो जाता है। आत्मा -को परमात्मा- में प्रकट करने की शक्ति जैन दर्शन ने मनुष्य में मानी है ; क्योंकि मनुष्य में इच्छा , संकल्प , और विचार-शक्ति है इसीलिए वह स्वतन्त्र क्रिया कर सकता है , अतः सांसारिक प्रगति और आध्यात्मिक उन्नति इन दोनों का मुख्य सूत्रधार मनुष्य ही है। जैन दृष्टि से यद्यपि सारी आत्माएँ समान हैं , सब में परमात्मा बनने के गुण विद्यमान हैं ; किन्तु उन गुणों की प्राप्ति मनुष्य-जीवन में ही संभव है, क्योंकि सदाचरण एवं संयम का जीवन मनुष्य-भव ही हो सकता है। इस प्रकार जैन-आचार संहिता ने मानवता को जो प्रतिष्ठा दी है , वह अनुपम है। जैन आगम-ग्रन्थों में स्पष्ट कहा गया है कि अहिंसा , संयम , तप-रूप धर्म का जो आचरण करता है उस मनुष्य को देवता भी नमस्कार करते हैं ; यथा धम्मो मंगलमुविट्ठ अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ।। 15 प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003677
Book TitlePrakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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