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________________ जैन आचार-संहिता का मूलाधार सम्यक् चारित्र है। जैन ग्रन्थों में चारित्र का विवेचन गृहस्थों और साधुओं की जीवन-चर्या को ध्यान में रखकर किया गया है | साधु-जीवन के लिए जिस आचरण का विधान किया गया है उसका प्रमुख उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार है, जबकि गृहस्थों के चारित्र - विधान में व्यक्ति एवं समाज के उत्थान की बात भी सम्मिलित है । इस तरह निवृत्ति एवं प्रवृत्ति मार्ग दोनों का समन्वय जैन आचार संहिता में हुआ है। आत्महित और परहित का सामंजस्य सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की पृष्ठभूमि में सम्यक्चारित्र में सहज उपस्थित हो जाता है । निज का स्वार्थ-साधन दूसरों के प्रति द्वेष और ईर्ष्याभाव तथा हिंसक वृत्ति का त्याग व्यक्ति सम्यग्दर्शन को उपलब्ध होते ही कर देता है । वस्तुओं का सही ज्ञान होते ही वह आत्मकल्याण तथा परहित की बात सोचने लगता है। उसमें आत्मा के गुणों को जगाने का पुरुषार्थ तथा जगत् के जीवों के प्रति करुणा और मैत्री का भाव जागृत हो जाता है। अनेकान्तवाद की वैचारिक उदारता से परिचित होते ही व्यक्ति अनाग्रहपूर्ण जीवन जीने लगता है । अतः उसके कदम सम्यक् चारित्र की भूमि को स्पर्श करने लगते हैं। यहाँ आकर साधक अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए ही है। अहिंसा के बिना जैन आचार शून्य है । मानवता - का कल्याण अहिंसा में ही सन्निहित है; इसीलिए जैन आचार में इसका सूक्ष्म और मौलिक विवेचन मिलता है। · अहिंसा की साधना के लिए जैन आचार में सत्य- अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह, दान आदि व्रतों का विधान है। जैन ग्रन्थों में इनकी सूक्ष्मतर व्याख्याएँ भी प्राप्त हैं; किन्तु यदि गहराई में देखा जाए तो जैन आचार आध्यात्मिक उपलब्धियों का ही सामाजिक परिणाम है। वस्तुतः अहिंसा का अर्थ आत्मज्ञान है । समताभाव की उपलब्धि है । जो व्यक्ति आत्मा और लोक के अन्य पदार्थो के स्वरूप का सही ज्ञान कर लेगा उसकी वृत्ति इतनी सात्विक हो जाएगी कि उससे हिंसा हो न सकेगी ; क्योंकि समानधर्मा जीवों को दुःख कौन पहुँचाना चाहेगा और किस लाभ के लिए ? जब व्यक्ति अहिंसा को अपने हृदय में इतना उतारेगा तभी वह सामाजिक हो सकेगा । अहिंसा की इस धुरी पर ही जैन आचार के अन्य व्रत गतिमान हैं । जैन आचार आध्यात्मिक और तत्वज्ञान के धरातल पर जितना गंभीर एवं महत्वपूर्ण है, उतना ही वह सामाजिक क्षेत्र में भी उपयोगी है। जैन दर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण ने जैन आचार को सर्वागीण बना दिया है । " जैन आचार ने जो आत्मज्ञान का सिद्धान्त दिया है वह मनुष्य के भीतर शून्यता रिक्तता को भरता है। आत्म सम्पदा से परिचित होने पर मनुष्य के लिए प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003677
Book TitlePrakrit aur Jain Dharm ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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