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स्मृति में स्थापित यह शौरसेनी प्राकृत विषयक व्याख्यानमाला इस देश की मूलभाषा शौरसेनी प्राकृत का स्वरूप और महत्व रेखांकित करेगी। प्राकृत और संस्कृत- दोनों इस देश की प्राचीन भाषायें हैं । ऋषियों , मुनियों , साहित्यकारों एवं वैयाकरणों ने दोनों को भरपूर सम्मान दिया है। भले ही आज संस्कृत का बोलबाला हो , किन्तु यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी होगी कि प्राकृत के बिना संस्कृत पंगु है। क्योंकि वेदों में प्राकृत-संस्कृत दोनों का प्रयोग है , यदि प्राकृत के शब्दों को वेदों से निकल दिया जाये , तो वे अपूर्ण रह जायेंगे । इसी तरह भास एवं कालिदास आदि के नाटकों से प्राकृत के अंश अलग कर दिये जायें , तो उनमें कुछ नहीं बचेगा , उनका स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा। हमारे देश के प्राचीन ऋषियों , मुनियों एवं मनीषियों की दोनों भाषाओं के प्रति समान दृष्टि रही , किन्तु आज दृष्टि का संतुलन परम्परा के अनुरूप नहीं है। प्राकृत के स्वरूप एवं महत्व को हमें नये सिरे से समझना व समझाना होगा।
__आचार्य श्री कुन्दकुन्द की स्मृति में स्थापित इस व्याख्यानमाला के प्रथम दिन व्याख्यानमाला का उद्घाटन करते हुए विद्यापीठ के कुलाधिपति आचार्य वी. वेंकटाचलम् ने कहा कि " संस्कृत विद्यापीठ में ही नहीं , अपितु देश के हर विश्वविद्यालय , महाविद्यालय एवं शिक्षण संस्थानों में प्राकृत के अध्ययन की स्वतन्त्र एवं परिपूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। विद्यापीठ के कुलपति प्रो. वाचस्पति उपाध्याय ने विद्यापीठ की विभिन्न प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए बताया कि " शौरसेनी प्राकृत को लेकर स्थापित यह आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला एक स्वर्णिम अध्याय हैं, जिसे आचार्य श्री ने विद्यापीठ के इतिहास में जोड़ा है। उन्होंने वेदों , उपनिषदों एवं अन्य ग्रन्थों से उदाहरण देकर बताया कि संस्कृत और प्राकृत का अभेदान्वय सम्बन्ध है।
व्याख्यानमाला के प्रथम सत्र के अध्यक्ष प्रख्यात भाषाशास्त्री एवं समालोचक तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याय के भाषाविभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. नामवर सिंह ने भाषावैज्ञानिक पृष्ठभूमि में प्राकृत के विशिष्ट महत्व को रेखांकित करते हुए बताया कि शौरसेनी प्राकृत भाषा से ही इस देश की अन्य क्षेत्रीय प्राकृतों , अपभ्रंशों एवं आधुनिक बोलियों का विकास हुआ है। उन्होंने सावधान किया कि भाषायें किसी धर्म या जाति की नहीं होती है, वे हर किसी की सम्पत्ति होती हैं ; अतः ब्राह्मणों की संस्कृत या जैन शौरसेनी जैसे प्रयोग बेहद संकीर्ण चिन्तन है , तथा भाषिक मानदण्डों के कतई विरुद्ध हैं ।
दो दिन की इस व्याख्यानमाला के प्रमुख वक्ता डॉ. लक्ष्मीनारायण तिवारी निदेशक , भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय विद्या संस्थान , नई दिल्ली ने अपने दो
प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन
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